Thursday, April 1, 2010

(कु)शिक्षा का मौलिक अधिकार !


नित नए नियम और क़ानून बनाने में माहिर हमारी सरकार ने आज इस दिशा में एक और सीढी पार कर ली है। जब हमारे भ्रष्ट नेतावो और नौकरशाहों की किसी एक क़ानून से कमाई बंद हो जाती है, तो वे झठ से दूसरा क़ानून बना डालते है। आजादी के इन ६०-६५ सालों में इस देश के अरबों, खरबों रुपये सिर्फ शिक्षा के नाम पर गरीब बच्चो के स्कूल में हाजिरी लगाने के एवज में उन्हें नकद प्रोत्साहन देने, मिड डे मील, आँगनबाडी और उसके बाद कुछ साल पहले सर्वशिक्षा अभियान, जिसका लक्ष्य 5 से 14 साल के बच्चों को 2010 तक उपयोगी और प्रासंगिक प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करना था, साथ ही स्कूलों को प्रबंध में समुदाय की सक्रिय सहभागिता सहित सामाजिक, क्षेत्रीय और लैंगिक विषमताओं को पाटने का एक दूसरा लक्ष्य भी था, खर्च कर दिए गए। स्कूलों के प्रबंध में समुदाय की सक्रिय सहभागिता की पोल तब खुल गई जब कल गाजियाबाद के एक निजी स्कूल ने २५० छात्रों को बढी हुई फीस न देने पर स्कूल से निकालने का फरमान जारी कर दिया, और जिसके एवज में भड़के अभिभावकों ने जोरदार हंगामा मचाया। किसी सरकारी अफसर और राजनेता ने स्कूल प्रशासन से तब यह पूछा कि क्या हुआ उस सर्व शिक्षा अभियान का जिसमे समुदाय की भागेदारी की बात कही गई थी? अब भले ही सरकार कहे कि स्कूल से किसी भी बच्चे को निकाला नहीं जाएगा, मगर क्या सरकार यह गारंटी देगी कि अपनी खुन-पसीने की कमाई से बच्चो को इन स्कूलों में पढ़ा रहे अविभावक आश्वस्त हो सके कि उनके बच्चो को इन शैक्षणिक दुकानों में उचित शिक्षा मिलेगी?

सर्वशिक्षा के नाम पर अरबो / खरबों रुपये डकारने के बाद अपनी असफलता छुपाने के लिए सरकार ने करीब आठ साल पहले शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के लिए संविधान में संशोधन किया था, और उसे अब जाकर लागू किया गया। कोई इनसे पूछे कि आठ साल क्यों लगे ? क्योंकि सर्वशिक्षा के नाम पर जो बचा-खुचा फंड सरकार के खाते में पडा था, वह भी डकारना था । एक खबर के मुताविक सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्कूल चलो का नारा दिया, लेकिन जब बच्चों को मुफ्त किताबें बांटने की बात आई तो अधिकारियों ने अपनी जेब गरम कर ली। कई क्विंटल किताबें कबाड़ीवाले को रद्दी में बेच दी गईं और जो नहीं बिकीं उसे खुले मैदान में जला डाला। ये है इनकी सर्वशिक्षा अभियान का सच।

शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने वाले 86वें संविधान संशोधन को संसद ने वर्ष 2002 में पारित किया था। इस मौलिक अधिकार को लागू कराने वाले कानून ‘बच्चों का मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार अधिनियम’ को संसद ने पिछले साल पारित किया , संविधान संशोधन विधेयक तथा नया कानून दोनों आज से लागू हो गए हैं। नए कानून के तहत राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों के लिए अब यह सुनिश्चित करना बाध्यकारी होगा कि हर बच्चा समीप के स्कूल में शिक्षा हासिल करे। यह कानून सीधे-सीधे करीब उन एक करोड़ बच्चों के लिए फायदेमंद होगा जो इस समय स्कूल नहीं जा रहे हैं। ये बच्चे, जो बीच में स्कूल छोड़ चुके हैं या कभी किसी शिक्षण संस्थान में नहीं रहे, उन्हें स्कूलों में दाखिला दिया जाएगा।

आप मौलिक अधिकारों की बात करते है, और उन मौलिक अधिकारों में एक समानता का अधिकार भी है। एक चपरासी की नौकरी पाने के लिए तो आपने दसवीं पास होना अनिवार्य कर रखा है, और एक राजनेता, जिसे देश के अहम् फैसले लेने होते है, उसके लिए कोई शैक्षिक योग्यता ही नहीं । देश की जो गत आज हो रही है, उसका एक मुख्य कारण यह भी है। तो फिर आप कौन से समानता के अधिकार की बात कर रहे है? हम दूसरे देशो की नकल तो बहुत जल्दी कर लेते है, लेकिन सिर्फ वहीं तक, जहां तक भ्रष्ट तरीके से हमारे खाने-पीने का जुगाड़ बनता हो। अमेरिका और यूरोपीय देशो की देखा-देखी कर हमने शिक्षा का निजीकरण तो कर दिया, लेकिन उनकी यह नक़ल करना भूल गए कि उन्होंने अपने सरकारी स्कूलों की शिक्षा का स्तर आज भी सर्वोपरी रखा है, और वहाँ का एक संपन्न व्यक्ति आज भी अपने बच्चो को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को प्राथमिकता देता है। अपने देश के सरकारी स्कूलों का हाल तो ब्यान करने की जरुरत ही नहीं। दूर-दराज के गांवो में आज भी सरकारी स्कूलों में सर पर छत नहीं है, बैठने के लिए दरी नहीं है, और बराबरी हम पाश्चात्य देशो की कर रहे है ।

यहाँ के निजी स्कूलों ने तो शिक्षा को नोट कमाने का एक बढ़िया धंधा बना डाला है। इस महंगाई के ज़माने में किस तरह एक माँ-बाप अपने बच्चे को पढ़ा रहे है, उसकी फिक्र किये वगैर, फीस तो एक तरफ, ये हर महीने किसी न किसी बहाने पर अभिभावकों से अन्य बेफालतू चीजो के लिए पैंसे ऐंठते रहते है। दूसरों को नैतिकता की दुहाई देने वाले हमारे कुछ राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्र स्कूल प्रवंधन से साठ-गाँठ कर, यह जानते हुए भी कि आज शहरों में तो हर घर में अखबार आता है, बच्चो को जबरन अखबार बांटने के नाम पर साल के शुरू में एनुअल फीस के साथ ही ४००-५०० रूपये अखबार के भी ऐंठ लेते है, और बच्चे को अखबार सालभर में मुश्किल से २ महीने भी नहीं मिलता। मैं इनकी कमाई का एक छोटा सा उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा ;

एक गए गुजरे १२वी तक के निजी स्कूल में १ से १२ तक प्रति क्लास में १०० बच्चे (ABC तीनो सेक्शन मिलाकर) होते है, यानी कुल १२०० बच्चे ;
और औसतन प्रति बच्चा साल में २५००० रूपये ( न्यूनतम ) फीस ली जाती है, यानी कुल आय = ३ करोड़
अब खर्चा देखिये; मान लीजिये स्कूल में कुल ५० शिक्षक और 30 अन्य कर्मचारी है , यानी कुल ८० कर्मचारी
औसतन १००००/- प्रतिमाह इन्हें वेतन का मतलब साल के ९६ लाख रूपये। बाकी के मेंटीनेंस पर ३० लाख रुपये लगा लो तो कुल खर्चा हुआ सवा करोड़ ,
यानि सीधे-सीधे एक करोड़ ७५ लाख का मुनाफ़ा साल में! जमीन इन्हें स्कूल के नाम पर सस्ती दरों पर मिलती है, विधुत दरों में छूट, टैक्स में छूट, और क्या चाहिए?

खैर, मुझे इनकी कमाई से कोई इर्ष्या नहीं, मगर सवाल यह उठता है कि क्या आम जनता इनके भारी भरकम फीस के खर्चे के बोझ को झेलकर अपने बच्चों को उचित शिक्षा दिला पायेगी, या फिर सरकार का शिक्षा के निजीकरण का मकसद ही यह है कि बच्चो को कुशिक्षा मिले, ताकि भविष्य में देश में नालायकों की एक लम्बी फ़ौज इक्कठी हो जाए, और ये अपनी राजनैतिक रोटियाँ मजे से सेकते रहे। उम्मीद करते है कि इस मौलिक अधिकार की भी गत कुछ सरकारी विज्ञापनों, स्टेशनरी की छपाई ( कमाई के लिए ) तक सीमित नहीं रहेगी और सही मकसद की प्राप्ति के लिए इस ओर सरकार की तरफ से इमानदारी से कदम उठाये जायेंगे । जय हिंद !

15 comments:

  1. भैया आपने लिखा तो ब्लोगवाणी ने सर आँखों पे बिठाया... मैंने लिखा तो एक दिन बाद ही सदस्यता ही बर्खास्त कर डाली... वह रे ब्लोगवाणी तू कब बनेगी मीठीवाणी...

    मेरा लेख यहाँ पढ़ें
    http://laraibhaqbat.blogspot.com/

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  2. सरकार का शिक्षा के निजीकरण का मकसद ही यह है कि बच्चो को कुशिक्षा मिले, ताकि भविष्य में देश में नालायकों की एक लम्बी फ़ौज इक्कठी हो जाए, और ये अपनी राजनैतिक रोटियाँ मजे से सेकते रहे। ....100% sahamat hun.

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  3. @EJAZ AHMAD IDREESI ब्लोगवाणी को इस शभ कार्य के लिए धन्यवाद दूंगा कि उन्होंने कुछ तो गंद हटाई ब्लॉगजगत से !

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  4. @ ejaz -
    लिखना किसे कहते हैं, लेख कैसा होता है एजाज भाई यह देखो,पढकर यह न कहना यह तो मैंने फलाने अखबार में पढ लिया था, वहां भी नाम इन्‍हीं का होगा

    @ गोदियाल जी आप ने खूब लिखा, गजब कर दिया, वाह जी वाह हमारी शाबाशी कुबूल फरमाओ बादशाहो,

    मैं समझता हूं ब्‍लागवाणी ने यह निम्‍न लेख हटाया है ब्‍लाग नहीं हटाया

    एक से अधिक पति वाली महिला के होने वाले बच्चे का बाप उन चारों में से कौन होगा? Polyandry in our Society

    http://laraibhaqbat.blogspot.com/2010/04/polyandry-in-our-society_01.html

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  5. sarkaar aur sarkaari kamo ka to bura haal hain
    ye to hindustaan hain pata nhi kaise chal raha ha fir bhi

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  6. गोदियाल जी,कमाल कर दिया आपने भी!नया बच्चा था,माफ़ कर देते तो क्या चला जाता आपका!और सरकार को खुश कर देते आज तो,अप्रैल फूल बनाने के लिए ही सही,आज तो सच्चाई छुपा लेते.....
    इस नाचीज़ की हौसलाफजाई के लिए आभार वयक्त करते है जी आपका!
    कुंवर जी,

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  7. ejaz ji aapka blog hatane layak hi hai....kuch to socha karo aise lekh likhne se pahale,

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  8. शिक्षकों को १०००० रुपए प्रतिमाह तन्ख्वाह? आश्चर्य! मेरे शिक्षकों को तो तीन चार हजार ही मिलते थे। बाकी की ट्यूशन से वसूली की जाती थी। छोटे से शिक्षक से लेकर प्रिंसिपल तक सब इसी में लिप्त थे। ये हाल रीवा की एक सीबीएसई पाठ्यक्रम चलाने वाली नामी गिरामी स्कूल का रहा है।
    बड़े बड़े नामी गिरामी मल्टीमीडिया संस्थानों में भी शिक्षक दो तीन हजार ही पाते हैं। या बहुत अधिक अनुभव हुआ तो पांच,छ: हजार बस। बाकी पैसा वो बाहर से फ़्रीलांसिंग करके कमाते हैं।
    शिक्षकों का तो चारों ओर से शोषण चल रहा है।

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  9. बाकी आपके लेख से पूरी तरह सहमत हूं।

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  10. १०० प्रतिशत सच ... सहमत हूँ आपके लेख से ... बधाई है इस बेबाक लेखन पर ....

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  11. गोदियाल जी,
    सरकार ने अप्रैल फ़ूल बनाया, हम बन रहे हैं। वैसे कमेंट वाला हिस्सा गजब का है।
    आभार।

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  12. गोदियाल जी, हमारे देश मै अंधी पीस रही है ओर कुतिया सारा आटा चाट रही है, वाली कहावत बिलकुल सही बनी है

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  13. "एक चपरासी की नौकरी पाने के लिए तो आपने दसवीं पास होना अनिवार्य कर रखा है, और एक राजनेता, जिसे देश के अहम् फैसले लेने होते है, उसके लिए कोई शैक्षिक योग्यता ही नहीं ।"

    अंधेर नगरी चौपट राजा!

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  14. mahodaya aapne likha to theek hai par adhoora hai jitnee bhi sahi education mil to rahi hai bat quality ki hai to sab kuch sarkar hi kare kya aap bataye aapne education reform k liye kya kiya

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।