Friday, August 21, 2020

ऐ जिंदगी।

ऐ जिंदगी बता,
तूने क्यों ये गजल छेडी,
इन बदरंग सफो़ंं मे,
हम तो जिये ही जा रहे थे तुझको, 
हर पल हसींंन लम्हों मे,
दफाओं की दरकार तो सिर्फ़, 
शिकायतों को हुआ करती है,
हमने तो कभी सोचा ही नहीं, 
नुक्शानों मे जिए कि नफ़ोंं मे।

ऐ जिंदगी, मुझको अब इतना भी मत तराश कि 
बदन की दरारें, नींद मे खलल का सबब बन जांए।







6 comments:

  1. बहुत सुन्दर

    ReplyDelete
  2. आदरणीय सर ,
    बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है यह। ह्रदय से आभार व सादर नमन।

    ReplyDelete
  3. ऐ जिंदगी, मुझको अब इतना भी मत तराश कि
    बदन की दरारें, नींद मे खलल का सबब बन जांए।
    वाह!!!

    ReplyDelete
  4. वाह!लाजवाब सर।
    ज़िंदगी फ़लसफ़ा ।
    सादर

    ReplyDelete

वक्त की परछाइयां !

उस हवेली में भी कभी, वाशिंदों की दमक हुआ करती थी, हर शय मुसाफ़िर वहां,हर चीज की चमक हुआ करती थी, अतिथि,आगंतुक,अभ्यागत, हर जमवाडे का क्या कहन...