Friday, February 19, 2010

देशी !


हीथ्रो हवाई अड्डे से प्रस्थान के वक्त भी उन दोनों बाप-बेटी को एयर पोर्ट तक ड्रॉप करने आई माँ ने एक पर फिर से रश्मि को, जिसे माँ-बाप प्यार से 'रिश' कहकर पुकारते थे, हिदायत भरे लहजे में समझाया था कि बेटा रिश, लौटते में वहां से फालतू का कूडा-कचडा मत उठा लाना। पर्यटन स्थलों पर वहाँ लोग "देशी माल" पर विलायती लेबल लगाकर पर्यटकों को मूर्ख बनाते है। अगर कोई चीज बहुत पसंद आ भी रही हो तो लेते वक्त दूकानदार जो दाम बताये, उससे ठीक आधे पर भाव तय करना। रश्मि को तो बस दादा-दादी के देश पहुचने की हडबडी थी, अत: वह माँ की बात को बहुत महत्व न देकर फोर्मलटी के लिए सहमती के तौर पर सिर्फ अपनी मुण्डी हिलाकर बार-बार " डोंट वोरी मोंम " कह देती थी।

पिता के लिए तो ब्रिटेन से भारत आना मानो दिल्ली से आगरा की ओवर नाईट जर्नी के समान था, और अपने माता-पिता के पास वो अक्सर साल-भर में जब-जब मौक़ा मिलता दसियों बार आ जाते थे। मगर रश्मी अपनी उस १५ साल की उम्र में पहली बार दादा-दादी से मिलने उनके देश, उनके गाँव आ रही थी। उसका जन्म और लालन-पालन ब्रेटन में ही हुआ था। रश्मी के पिता अपनी युवावस्था में एक हार्डवेयर इंजीनियर के तौर पर ब्रिटेन गए थे, और वहीं उनकी मुलाक़ात रश्मी की मम्मी अमृता से हुई थी, जो काफी पहले अपने माँ-बाप के साथ ब्रिटेन आकर बस गए थे। दोनों ने एक साल बाद वहीं ब्रिटेन में इक-दूजे संग शादी रचा ली थी। हालांकि रश्मि के दादा- दादी के अरमान कुछ और थे, मगर वे बेटे की खुशियों के आगे लाचार थे।

साढ़े आठ घंटे की हवाई और तदुपरांत तीन घंटे की सड़क यात्रा तय कर, रश्मि जब दादा-दादी के पास पहुंची तो मानो उनकी खुशी का कोई ठिकाना ही न था। दादाजी ने तो अपनी लाडली रश्मि को सर आँखों पर ही बिठा लिया था। अभी एक साल पहले ही तो वे लोग तकरीबन तीन महीने रश्मि के साथ ब्रिटेन में गुजारकर आये थे, और रश्मि का मृदु स्वभाव उनके रोम-रोम को जीत गया था। कस्बे में दादा-दादी और कस्बे वालो का प्यार पाकर रश्मि भी सब कुछ भुला बैठी थी, वह यह भी भूल गई थी कि उसकी मम्मी उसे ब्रिटेन में मिस कर रही होगी। उसे वहाँ के वातावरण और लोगो से घुलने- मिलने में तनिक भी परेशानी नहीं हुई थी, क्योंकि पश्चिमी सभ्यता के साथ-साथ माता-पिता, खासकर रश्मि के पिता ने उसे अपनी हिन्दुस्तानी संस्कृति से भी बखूबी जोड़े रखा था, उसे न सिर्फ हिन्दी बोलना सिखाया अपितु हिंदी और संस्कृत लिखना-पढ़ना भी सिखाया था। इसी का नतीजा था कि रश्मि अच्छी तरह से हिन्दी बोल, लिख और पढ़ सकती थी।

इस लाड-प्यार के बीच पखवाड़ा कब गुजर गया, रश्मि को पता भी न चला, इस बीच वह पिता के साथ एक पास के हिल स्टेशन भी घूम आई थी। और फिर एक दिन सुबह जब रश्मि उठकर बाहर आँगन में अखबार पढ़ रहे दादाजी के पास पहुँची तो दादाजी ने झट से पैर पसारे हुए पैरो के नीचे रखे मोड़े को पास खिसकाकर, रश्मि के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे वहां मोड़े पर बैठने को कहा। मोड़े पर बैठ रश्मि ने ज्यों ही अखबार हाथ में लिया, अखबार के फ्रंट पेज की मुख्य खबर पढ़कर और वहां छपे चित्र को देख वह एकदम चौंक सी गई। खबर यह थी कि जहरीली शराब पीने से उनके कस्बे के पास ही स्थित एक दूसरे कस्बे में २९ लोगो की मृत्यु हो गई थी। चित्र में कुछ लाशों के ऊपर विलाप करते परिजनों को दिखाया गया था। रश्मि ने कौतुहल बस खबर और चित्र के ऊपर उंगली टिकाते हुए दादाजी को जब संबोधित किया तो दादाजी ने दुखी मन से बस इतना कहा कि हाँ बेटा, क्या करे इनका इतना ही दाना-पानी था, मर गए सब। रश्मि ने सवाल किया, लेकिन दादाजी शराब जहरीली कैंसे हो गई होगी ? बेटा, कोई देशी ठर्रा पी गए होंगे, ये अभागे, सस्ते के चक्कर में ! दादाजी ने फिर संक्षिप्त जबाब दिया। तो क्या दादाजी, ये देशी शराब जहरीली भी होती है ? रश्मि ने फिर सवाल दागा । और दादाजी से नपा-तुला जबाब आया, बेटा, ये देशी माल कहाँ सही होता है, अनाप-सनाप ढंग से बनाते है। दादाजी के ये आख़िरी शब्द "देशी मॉल कहाँ सही होता है" रश्मि के अबोध मस्तिष्क पर हथोड़े की तरह प्रहार करने लगे थे।

तीन हफ्तों की इस अविस्मर्णीय भारत यात्रा के बाद आज रश्मि उदास मन से वापस ब्रिटेन लौट रही थी। लौटते में नई-दिल्ली तक के लिए उन्होंने ट्रेन पकड़ी थी। पापा के बगल में खिड़की के समीप वाली सीट पर बैठी रश्मि अभी- अभी ट्रेन में टोइलेट से होकर आई थी, और जिस वक्त वह ट्रेन के द्वितीय श्रेणी के वातानुकूलित डब्बे के टोइलेट के पास गई थी, तो पापा टोइलेट के बाहर तक उसके साथ आये थे। रश्मि ने ज्यों ही एक तरफ की टोइलेट का दरवाजा खोला था तो अन्दर मची गन्दगी को देख उसके मुह से तुरंत निकला 'ओह बॉय' ! उसके नाक पर हाथ रखने के अंदाज को भांपते हुए, उधर से गुजर रहे एक बुजुर्ग पेंट्री-मैंन ने रश्मि के पिता की तरफ देखते हुए, रश्मि को संबोधित करते हुए कहा था, ये देशी स्टाइल की टोइलेट है, आप बगल वाली में चले जाओ, वह वेस्टर्न है, और साफ़ है।

सीट पर खामोश बैठी रश्मि याद कर रही थी कि जब वह करीब नौ साल की थी और मम्मी के साथ बाजार गई थी, तो बाजार में उन्हें एक भारतीय युगल मिले थे। मम्मी थोड़ी देर तक उनसे बातें करती रही थी, और जब वे चले गए तो उत्सुकताबश रश्मि ने पुछा था कि मोंम ये कौन लोग थे ? और माँ ने अजीब सा मुह बनाते हुए कहा था कि अपने ही इधर के देशी लोग है। तभी पहली बार रश्मि का इस 'देशी' शब्द से पाला पडा था। मगर मम्मी के बताने के अंदाज और मुख मुद्रा से नन्ही रश्मि इतना तो समझ ही गई थी कि यह 'देशी' शब्द ज्यादा वजनदार नहीं है। फिर भारत आते वक्त मम्मी ने उसे बार-बार हिदायत दी थी कि वहाँ ज्यादा कूड़ा-करकट मत खरीदना, लोग देशी मॉल पर विलायती ठप्पा लगाकर माल को बेचते है। और फिर वह मनहूस दिन, जब उस देशी को पीने से वो २९ जिंदगियां हाथ धो बैठी थी। और तो और, जब वह पापा के साथ हिल-स्टेशन पर रात को जिस होटल में ठहरे थे, तो होटल मैनेजर ने तपाक से कहा था कि आपको कमरा सस्ता वाला चाहिए तो देशी स्टाइल का मिल जाएगा, और अगर महँगा चाहिए तो वेस्टर्न स्टाइल का मिलेगा।

पूरे घटनाक्रम को चलचित्र की भांति दिमाग पर दौडाते हुए और खिड़की से बहार झाँक रश्मि भारी मन से मंद-मंद मुस्कुरा दी थी। उसे लग रहा था कि जैसा कि मम्मी उसे बताया करती है, सच में यह देश मानसिक तौर पर अभी भी गुलाम है। वह तो सोचा करती थी कि अपने इस दादाजी-पितीजी के देश में "देशी" शब्द बड़ा ही आदरपूर्ण होता होगा। लेकिन यहाँ तो हर घटिया चीज को 'देशी' की संज्ञा दी जाती है।

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