Tuesday, February 16, 2010

गलत निर्णय का खामियाजा !

लोकतंत्र में सरकार का चुनाव किसी स्कूल की उस माध्यमिक बोर्ड की परिक्षा के समान है, जिसमे उत्तीर्ण होने वाला विद्यार्थी आगे चलकर अपने और देश के उज्जवल भविष्य की नीव रखता है। मगर यदि एक विद्यार्थी जो न सिर्फ पढ़ाई में एकदम गया गुजरा हो, बल्कि किसी भी दृष्ठिकोंण से उत्तीर्ण होने के काबिल ही न हो, और मूल्यांकनकर्ता जबरन उसे न सिर्फ उत्तीर्ण कर दे, अपितु उसे अब्बल नंबर भी दे दे, तो आप सहज अंदाजा लगा सकते है कि आगे चलकर उस विद्यार्थी के हाथों उस देश का भविष्य क्या होगा, जिसका वह नागरिक है। ठीक यही हाल केंद्र की मौजूदा सरकार का भी है। यह जानते हुए भी कि क्या महंगाई का मुद्दा, क्या आर्थिक मुद्दा, क्या विदेश नीति का मुद्दा, क्या बेरोजगारी का मुद्दा, क्या ढांचागत विकास का मुद्दा, क्या आतंकवाद का मुद्दा, क्या क़ानून और व्यवस्था का मुद्दा, न सिर्फ एक मुद्दे पर अपितु लगभग सभी मुद्दों पर पिछले कार्यकाल के दौरान यह सरकार पूर्णतया विफल रही थी। इस देश के वोटर ने दूसरे कार्यकाल का जिम्मा भी उन्ही को सौंप दिया, यानि एक अनुत्तीर्ण विद्यार्थी को जबरन पास कर दिया, तो खामियाजा भी भुगतना ही होगा। बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए ? इसके खामियाजे अब साफ़ परिलक्षित भी होने लगे है। २६/११ के बाद प्रदर्शित की गई नपुंसकता का ही परिणाम है कि आज उनके आंका मुजफ्फराबाद और लाहोर से मंच पर चड़कर हिन्दुस्तान, उसके प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को खुलेआम गालिया दे रहे है। क्योंकि उन्होंने भी भांप लिया है कि इनके बस का कुछ नहीं, सिर्फ हवाई तीर छोड़ने में उस्ताद है, बस।


दूसरी तरफ, हमारी अदूरदर्शिता, अपरिपक्वता और निर्णय की दिशाहीनता का ही परिणाम है कि देश के अन्दर मौजूद नक्सलियों और मावोवादियों का दुस्साहस इस कदर बढ़ गया है कि वे खुले-आम चुनौती देने लगे है। मगर सरकार है कि हाथ पर हाथ धरे बैठी है। जरा सोचिये, जो जवान मारे गए है, उनकी जगह सरकार में बैठे इन लोगो के अपने बेटे होते तो क्या फिर भी ये लोग इसे तरह की कोताही बरतते? मगर हमारी इस शासन प्रणाली की सबसे बड़ी विडम्बना तो यही है कि जो सुरक्षाबल इन भ्रष्ट और अकर्मण्य लोगो की नीतियों का शिकार हो रहे है, वही इन अकर्मण्य लोगो और उनके परिवारों की रात दिन सुरक्षा में मस्तैद है। जनता भले ही जान हथेली पर रखकर घर से बाहर निकलती हो, मगर इनके तो कुत्ते-बिल्लियों और मूर्तियों को भी सरकारी सुरक्षा प्रदान है। ऐसा नहीं है कि इन्हें चुनने का दोष सिर्फ अशिक्षित वोटरों पर ही डाला जाए, जो इस देश के तथाकथित शिक्षित और सेक्युलर वोटर है उनसे भी मैं सवाल करूँगा कि हालांकि मैंगलोर में प्रमोद मुथालिक और उसकी ब्रिगेड ने पिछले साल जो कुछ किया वह गलत था, मगर जब उसके प्रतिक्रियास्वरूप आप लोग उसे चद्दियाँ भेज सकते है तो क्या आपमें इतनी भी हिम्मत बाकी नहीं कि कुछ बुर्के और चूडियाँ इस सरकार में बैठे नुमाइंदों को भी भेज सको? हालांकि आज के लगभग सभी नेता एक ही थाली के चट्टे-बट्टे नजर आते है, मगर इतना तो है कि जहां और जितने भी राज्यों में आज बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की सरकारे है, वहां कम से कम विकास की चर्चा तो होती है। क्या गुजरात, क्या बिहार, क्या छतीसगढ़, क्या मध्य प्रदेश, वहाँ भले ही जरा सा सही मगर कोई तो विकास के आंकड़े दे रहा है, इन्होने तो पिछले साठ सालो में सिर्फ अपना घर भरा।

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।