Saturday, February 6, 2010

आस्तीन के सांप !

जैसा कि आप लोग भी जानते होंगे, एक खबर के मुताविक हाल ही में आजमगढ़ से पकडे गए इंडियन मुजाहीदीन के आतंकवादी शहजाद आलम ने खुलासा किया है कि सितम्बर २००८ में बटला हाउस एंकाउन्टर से फरार होने में और उन्हें पनाह देने तथा आर्थिक मदद देने में दिल्ली का एक पूर्व विधायक शामिल था! विधायक का नाम भले ही अभी गुप्त रखा जा रहा हो , मगर आप और हम अनुमान तो लगा ही सकते है कि वह जैचंद कौन हो सकता है! अब इस खुलासे को भले ही बाद में अपने राजनैतिक लाभ के लिए ये हमारे राजनैतिक गण तोड़-मरोड़कर जो मर्जी अमली जामा पहनाये, इस जांच-पड़ताल का जो मर्जी हश्र हो, लेकिन यह शायद आप लोग भी न भूले हों कि कैसे इन आतंकवादियों का सपा और तृणमूल कौंग्रेस ने कुछ अन्य दलों के साथ मिलकर महिमा मंडन किया था, उन्हें अपनी तरफ से हर्जाना दिया था और किसतरह कौंग्रेस ने अपना एक सिपहसलार हाल ही में आजमगढ़ भेजकर वोट बैंक की सहानुभूति बटोरनी चाही ! और दूसरी तरफ इस देश के जिस बहादुर सिपाही, इन्स्पेक्टर शर्मा ने इनसे लोहा लेते हुए अपने प्राण न्योछावर किये, उसका परिवार आज तक मूलभूत सुविधाओ के लिए ठोकर खाने को मजबूर है ! ये आस्तीन के सांप जिस थाली में खा रहे है, उसी में छेद करने पर आमादा है ! ये है वो देश के असली दुश्मन, जिनमे वोट बैंक के लिए हमारे राजनैतिक दलों और इनके हिमायती तथाकथित सेक्युलरो को कोई खोट नजर नहीं आता !

8 comments:

  1. भारत में जयचंदों की कमी न पहले थी और न ही आज है।

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  2. सचमुच बहुत दुर्भाग्यपूर्ण

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  3. देश में हालात सदियों से ऐसे ही रहे है. जिन्होने रोष व्यक्त किया उन्हे कट्टर पंथी कहा गया. आज भी कहा जाता है. जो जयचंद बने वे सत्ता सुख भोग रहे थे, सत्ता सुख भोग रहे हैं. क्या किजियेगा?

    बहु संख्यक जब तक महान बनने के चक्कर में जयचंदो के साथ होगी....बंटाधार होता रहेगा.

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  4. बहुसंख्‍यक समाज जब तक यह नही सोचेगा कि उनपर खतरा मंडरा रहा है तब तक यह जगेगा नहीं। शायद यह कभी जगे भी नहीं, क्‍योंकि इतिहास में भी यह कभी नहीं जगा है। हमें एक बार पुन: गुलाम होने को तैयार रहना चाहिए। हमारे नेता तो थाली परोसकर देने को तैयार बैठे हैं।

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  5. १००० वर्षों की गुलामी के हम आदी हो गये हैं ........... पहले मुगल, फिर अँग्रेज़ और अब देश के जयचंद .........

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  6. अति दुर्भाग्यपुर्ण स्थितियां हैं, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं.

    रामराम.

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।