Sunday, February 21, 2010

नया एकीकृत पाठ्यक्रम-कुछ सवाल !

मानव संसाधन विकास मन्त्री श्री कपिल सिब्बल के देश मे शैक्षणिक सुधारों के प्रति उठाये जा रहे कुछ कदम भले ही स्वागत योग्य हों, जोकि निश्चित तौर पर हमारी सरकारों को बहुत पहले और न सिर्फ़ कुछ गिने-चुने विषयों मे बल्कि पूरे पाठ्यक्रम के सम्बंध मे उठा लिये जाने चाहिये थे। खैर, देर आये दुरस्त आये, लेकिन मुझे इस मुहावरे को हज्म कर पाने मे कुछ दिक्कत मह्सूस हो रही है। मुझे लग रहा है कि अब बहुत देर हो चुकी, और कहीं यह नया प्रयोग लार्ड मैकाले की सदियों से सुप्त पडी आत्मा को इस देश मे एक बार फिर से अपना कुटिल खेल खेलने का अवसर न दे दे। दूसरी तरफ़ सरकार के इस कदम से अमेरिका समेत कुछ यूरोपीय देश यह आश लगाये बैठे है, और जैसा कि ओबामा प्रशासन मे दक्षिण और मध्य एशिया मामलों के सहायक मन्त्री रौबर्ट ब्लैक ने कहा है कि श्री कपिल सिब्बल ने उनसे वादा किया है कि सरकार संसद मे एक ऐसा विधेयक लायेगी जो भारत मे शिक्षा क्षेत्र खासकर उच्च शिक्षा मे विदेशी भागीदारी को बढायेगा।

जैसा कि विदित है कि देश भर के राज्य शिक्षा बोर्डो ने इस बात पर अपनी सहमति दे दी है, और जैसे कि स्कूल शिक्षा बोर्ड परिषद (COBSE) ने निर्णय लिया है कि सन २०११-१२ से समूचे देश मे विधार्थियों को हायर सेकेन्ड्री स्तर पर गणित और विज्ञान(भौंतिकी, रसायन, और जीव विज्ञान) का एक जैसा पाठ्यक्र्म पढना होगा। साथ ही स्कूल बोर्डो की परिषदें इस बात पर भी सहमत हैं कि उच्च शिक्षा और प्रोफेशनल कोर्सों के लिये भी २०१३ से एक आम प्रवेश परीक्षा ली जायेगी, जिसमे इन्जीनियरिंग और दवा के कोर्स भी शामिल है।

अब मुख्य विषय पर आता हूं । जैसा कि आप सभी जानते होंगे कि हमारे देश के कुछ राज्यों मे न सिर्फ़ दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों, बल्कि शहरों मे भी विधार्थियों को सभी पाठ्यक्रम हिन्दी और प्रान्तीय भाषाओं मे पढाये जाते है। अंग्रेजी एक सुनियोजित नीति के तहत नाम मात्र के लिये छटी कक्षा से पढाई जाती है। परिणाम स्वरूप विधार्थी आगे चलकर अनेकों दिक्कतों का सामना करता है। गणित और विज्ञान की कुछ अंग्रेजी शब्दावलियां ऐसीं है कि हम लाख सरल भाषा मे उसे हिन्दी और अन्य भाषाओं मे रुपान्तरित कर ले, लेकिन उसका मौलिक अर्थ सिर्फ़ अंग्रेजी का शब्द ही समझा पाता है। हम दूसरों की तसल्ली के लिये प्रवेश परिक्षाओं और पाठ्यक्रमों को हिन्दी मे चलाने का ढिढोरा पीटें, मगर सत्यता यही है कि इसके परिणाम स्वरूप आगे चलकर व्याव्हारिक जीवन मे वह विधार्थी प्रतिस्पर्धा मे टिक नही पाता। इंजीनियरिंग और स्वास्थ्य क्षेत्र को ही ले लीजिये, जब व्यावहारिक जीवन मे पल-पल सामना अंग्रेजी भाषा का ही करना है तो फिर वह हिन्दी किस काम की ? और यही वजह है कि कुछ राज्यों मे एक विधार्थी खुद की और माता-पिता की हार्दिक इच्छा के बावजूद भी मजबूरन नवीं अथवा ग्यारह्वीं कक्षा मे प्रवेश के वक्त गणित और विज्ञान विषय का त्याग कर देता है ।

अब इसका एक और पहलू देखिये। अन्य राज्यों का तो मुझे पता नही लेकिन जहां तक दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार का सवाल है, यहां पर पुस्तकों मे जो पाठ्यक्रम है, या युं कहें कि अभी जितना जटिल पाठ्यक्रम गणित और विज्ञान का इन राज्यों की पुस्तकों मे है, उतना सी बी एस ई की पुस्तकों मे नही है । पहले था, लेकिन बाद मे एक सोची समझी चाल के तहत इसे निम्न कोटि का बना दिया गया ! गणित के जो सवाल उपरोक्त राज्यों मे एक विधार्थी दसवीं मे पढ लेता है, उस तरह के सवाल सी. बी. एस. ई मे एक विधार्थी ग्यारह्वीं और और बारह्वीं कक्षा मे पढ्ता है। परिणामत: सी बी एस ई मे अध्ययनरत विधार्थी को वे प्रश्न अपने पाठ्यक्रम मे नही मिल पाते जिनके आधार पर उसे आगे चलकर आई.आई.टी. और अन्य प्रतियोगिता परिक्षाओं का सामना करना पड्ता है। नतीजन उसे मजबूरन कोचिंग का सहारा लेना पड्ता है। अत: इस बिन्दु से देखने पर तो यही लगता है कि समान पाठ्यक्रम लाने का फैसला उचित है, लेकिन फिर सवाल वही है कि इसे समान बनाने भर से क्या समस्या हल हो जायेगी ? क्या हिन्दी माध्यम से पढा विधयार्थी तीक्ष्ण बुद्दी का होने के बावजूद भी व्यावहारिक जीवन मे अंग्रेजी माध्यम से पढे विधार्थी का मुकाबला कर पायेगा ? या फिर दूसरी तरफ़ सिर्फ़ हायर सेकेन्ड्री स्तर पर बिहार, उत्तर प्रदेश जैसा पाठ्यक्रम पुस्तकों मे डाल भर लेने से सी बी एस् ई माध्यम का विधार्थी अचानक बढा दिये गये इस भार को झेल पाने मे समर्थ होगा ? या फिर पुस्तकों मे पाठ्यक्रम को इस स्तर का बना दिया जायेगा कि दोनो ही किस्म का बिधार्थी कहीं का भी न रहे ? वैसे ही पिछ्ले कुछ द्शकों मे हर लिहाज से शिक्षा का स्तर बहुत गिर चुका है।

क्या ही अच्छा होता कि बजाये इस तरह की हडबडी दिखाने और शिक्षा मे परिवर्तन लाने के श्रेय की होड से हट कर हम एक सुनियोजित और दीर्घकालिक निति के तहत निचले स्तर से ही पूरे देश मे शिक्षा प्रणाली को सुधारते, ताकि देश के किसी भी कोने मे स्थित किसी भी विधार्थी को आगे चलकर इन सब मुसीबतों का सामना न करना पडता । उम्मीद की जानी चाहिये कि शिक्षा सुधार की दिशा मे सरकारों द्वारा किये जा रहे प्रयास ईमान्दारी से और सोच-समझकर उठाये जायेंगे, न कि सिर्फ़ कुछ विदेशी शिक्षा संस्थाओ को देश मे डिग्री बेचने हेतु अपनी दुकानें चलाने तक सीमित रहेगा ! क्योंकि इसमे न सिर्फ़ एक विधार्थी का भविष्य बल्कि देश का भविष्य भी निहित है।


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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।