पता नहीं,कब-कहां गुम हो गया
जिंदगी का फ़लसफ़ा,
न तो हम बावफ़ा ही बन पाए
और ना ही बेवफ़ा।
...............नमस्कार, जय हिंद !....... मेरी कहानियां, कविताएं,कार्टून गजल एवं समसामयिक लेख !
पता नहीं,कब-कहां गुम हो गया
जिंदगी का फ़लसफ़ा,
न तो हम बावफ़ा ही बन पाए
और ना ही बेवफ़ा।
इतना तो न बहक पप्पू ,
बहरे ख़फ़ीफ़ की बहर बनकर,
४ जून कहीं बरपा न दें तुझपे,
नादानियां तेरी, कहर बनकर।
वतन-ए-हिंद से लग्न लगानी है तो,
वक्ष पे 'राम' लगाना होगा।
'धर्म-निरपेक्षता' की कपट प्रवृत्ति को
अब 'वीराम' लगाना होगा ।।
शहर में किराए का घर खोजता
दर-ब-दर इंसान हैं
और उधर,
बीच 'अंचल' की खुबसूरतियों में
कतार से,
हवेलियां वीरान हैं।
'बेचारे' कहूं या फिर 'हालात के मारे',
पास इनके न अर्श रहा न फर्श है,
नवीनता का आकर्षण ही
रह गया जीने का उत्कर्ष है,
इधर तन नादान हैं
और उधर,
दिलों के अरमान हैं।
बीच 'अंचल' की खुबसूरतियों में
कतार से,
हवेलियां वीरान हैं।।
निमंत्रण पर अवश्य आओगे,
दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था,
वंशानुगत न आए तो क्या हुआ,
चिर-परिचितों का सैलाब था।
है निन्यानबे के फेर मे चेतना,
किंतु अलंकृत सभी अचेत हैं,
रही बात हमारी नागवारी की,
तभी तो हम 'परचेत' हैं।
निरुपम अनंत यह संसार इतना, क्या लिखूं,
ऐतबार हुआ है तार-तार इतना, क्या लिखूं ।
सर पर इनायतों का दस्तार इतना, क्या लिखूं
है मुझपर आपका उपकार इतना, क्या लिखूं ।
और न सह पायेगा मन भार इतना, क्या लिखूं,
दिल व्यक्त करे तेरा आभार इतना, क्या लिखूं।
सरेआम डाका व्यवहार पर इतना, क्या लिखूं,
दिनचर्या में लाजमी आधार इतना, क्या लिखूं।
इस दमघोटू परिवेश में भी दम ले रहा 'परचेत',
है इस ग़ज़ल का दुरुह सार इतना, क्या लिखूं ।
ना ही अभिमान करती, ना स्व:गुणगान गाती,
ना ही कोई घोटाला करती, न हराम का खाती,
स्वाभिमानी है, खुदगर्ज है, खुल्ले में न नहाती,
इसीलिए हमारी भैंस, कभी पानी में नहीं जाती।
कोटि-कोटि हम सबका नमन तुमको,
आज,बढ़ा दिया है देश का मान तूने।
पहुंचा के विक्रम को 'चंद्र-दक्षिण ध्रुव',
ऐ हमारे 'इसरो' के प्यारे, 'चंद्रयान' तूने।।🙏🙏
पता नहीं , कब-कहां गुम हो गया जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए और ना ही बेवफ़ा।