Monday, August 24, 2009

इसके अच्छे दिन कब आएंगे ?


लोकतंत्र  की राजनीति में, है ये कैसा गड़बड़ झाला,
दस्तखत खुद के कर नहीं पाता, नेता बना निराला .....
जाने कितने कत्ल किये और कितने किये घोटाला,

दस्तखत खुद के कर नहीं पाता, नेता बना  निराला .....

पेशा जिसका जेब काटना  और धंधा तोड़ना ताला,
लोकतंत्र का ये कमाल तो देखो, नेता बना निराला ....
जेल है जिसका ठौर-ठिकाना, आज बना है आला,

दस्तखत खुद के कर नहीं पाता, नेता बना  निराला .....

मालदार बना फिरे वो, जो था दो -टके  का लाला,
मतदाताओ की हुई कृपा ऐंसी, नेता बना  निराला  ......

मुह झूठे का कलयुग में उजला, सच्चे का है काला,
दस्तखत खुद के कर नहीं पाता, नेता बना  निराला .....

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।