Thursday, February 2, 2012

जीवन प्रतिफल !

दो भिन्न रास्तों से 
सफर को निकले  
दो हसीन लम्हें,
अरमानों के चौराहे पर 
संविलीन हो जाते है। 

और फिर होता है
कोमल अहसासों का सृजन,
आशा और उम्मीद फिर से
मुसाफ़िर बन जाते है  
मगर एक ही मंजिल के।   


सीधी-सपाट, टेडी-मेडी
और उबड़-खाबड़ राहों का
सफ़र तय करते हुए
जब मंजिल पास आ जाती है 
तब  गुनगुनी धुप में बैठ
आशा, उम्मीद से कहती है;

आज प्रतिफल के भोजन में 
परोसने को बस, दो ही मद है, 
संतृप्ति और  मलाल।  

9 comments:

  1. अच्छा लिखा है ..
    kalamdaan.blogspot.com

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  2. मंजिल के प्रांगण में

    गुनगुनी धुप में बैठ

    बाजू में दबाई पोटली को

    सामने रख, खोलते हुए

    आशा, उम्मीद से पूछती है;

    खाने में प्रतिफल संग क्या दूं,

    संतृप्ति या फिर मलाल ?... behad achhi rachna

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  3. संतृप्ति ही होना चाहिये... बहुत ही सुन्दर...

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  4. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज charchamanch.blogspot.com par है |

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  5. जितना जीवन जी डाला है, उसकी संतृप्ति बनी रहे..

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  6. आशा, उम्मीद से पूछती है;
    खाने में प्रतिफल संग क्या दूं,
    संतृप्ति या फिर मलाल ?

    मलाल न ही मिले तो बेहतर .. सुन्दर प्रस्तुति

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  7. बहुत सुन्दर सार्थक प्रस्तुति। धन्यवाद।

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संशय!

इतना तो न बहक पप्पू ,  बहरे ख़फ़ीफ़ की बहर बनकर, ४ जून कहीं बरपा न दें तुझपे,  नादानियां तेरी, कहर  बनकर।