दो भिन्न रास्तों से
सफर को निकले
दो हसीन लम्हें,
अरमानों के चौराहे पर
संविलीन हो जाते है।
और फिर होता है
कोमल अहसासों का सृजन,
आशा और उम्मीद फिर से
मुसाफ़िर बन जाते है
मगर एक ही मंजिल के।
सीधी-सपाट, टेडी-मेडी
और उबड़-खाबड़ राहों का
सफ़र तय करते हुए
जब मंजिल पास आ जाती है
तब गुनगुनी धुप में बैठ
आशा, उम्मीद से कहती है;
आज प्रतिफल के भोजन में
परोसने को बस, दो ही मद है,
संतृप्ति और मलाल।
सफर को निकले
दो हसीन लम्हें,
अरमानों के चौराहे पर
संविलीन हो जाते है।
और फिर होता है
कोमल अहसासों का सृजन,
आशा और उम्मीद फिर से
मुसाफ़िर बन जाते है
मगर एक ही मंजिल के।
सीधी-सपाट, टेडी-मेडी
और उबड़-खाबड़ राहों का
सफ़र तय करते हुए
जब मंजिल पास आ जाती है
तब गुनगुनी धुप में बैठ
आशा, उम्मीद से कहती है;
आज प्रतिफल के भोजन में
परोसने को बस, दो ही मद है,
संतृप्ति और मलाल।
अच्छा लिखा है ..
ReplyDeletekalamdaan.blogspot.com
मंजिल के प्रांगण में
ReplyDeleteगुनगुनी धुप में बैठ
बाजू में दबाई पोटली को
सामने रख, खोलते हुए
आशा, उम्मीद से पूछती है;
खाने में प्रतिफल संग क्या दूं,
संतृप्ति या फिर मलाल ?... behad achhi rachna
संतृप्ति चलेगी :)
ReplyDeleteसंतृप्ति ही होना चाहिये... बहुत ही सुन्दर...
ReplyDeletebadiya...
ReplyDeleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज charchamanch.blogspot.com par है |
ReplyDeleteजितना जीवन जी डाला है, उसकी संतृप्ति बनी रहे..
ReplyDeleteआशा, उम्मीद से पूछती है;
ReplyDeleteखाने में प्रतिफल संग क्या दूं,
संतृप्ति या फिर मलाल ?
मलाल न ही मिले तो बेहतर .. सुन्दर प्रस्तुति
बहुत सुन्दर सार्थक प्रस्तुति। धन्यवाद।
ReplyDelete