फुरसत के क्षणों में कल एक खबर पर गौर कर रहा था कि नार्वे संकट गहरा गया है। और एक विशेष राजदूत भी उधर दौड़ा दिया गया है। उन दो अप्रवासीय मासूमों के मसले को शीघ्र हल करने के लिए उनके नाना-नानी भी दिल्ली में नार्वे के दूतावास पर धरने पर बैठे है, जो चंद महीनो पहले वहाँ के सरकारी संरक्षण में इस आरोप के तहत जबरन ले लिए गए थे कि उनके अप्रवासी भारतीय माँ-बाप उस देश के जीवन-स्तर के हिसाब से उनका लालन पालन नहीं कर रहे, और खासकर इस बात पर कि वे अपने बच्चों को अपने साथ ही सुलाते है।
वो यार, हम लोग भी न सच में ग्रेट है, असल बात का बतडंग बनाना तो हमें आता ही नहीं, और नहीं हम इन गोरी चमड़ी वालों के इतने लम्बे समय तक गुलाम रहकर ही ठीक से ही कुछ इनसे सीख पाए। खैर, मुद्दे पर लौटता हूँ, ये अगर राजनैतिक फायदे अथवा हथियारों की दलाली से जुडा मसला होता तो मैं दावे के साथ कह सकता था कि अपना डिग्गी बाजा अभी तक बज चुका होता, इस सुर-ताल में कि बच्चों के अभिभावक जरूर चारएसएस के बहकावे में आकर नाहक ही चिल-पौं मचा रहे है, बच्चे वहां के सरकारी खाते में फ्री में पल रहे है, और क्या चाहिए ?
और अगर मामले के पेंच कहीं ज़रा भी हाई-कमान के उजले कपड़ो में उलझे होते और यदि विशेष कुटिलता की जरुरत महसूस हो रही होती तो कुटिलों के कुटिल, कुटिल निप्पल भाई, अरे वही, अपने बल्ली मारांन के मशहूर लच्छेदार परांठे वाले, जो अपना तंदूर दस- लथपथ के नुक्कड़ पर लगाते है, उनकी बहुमूल्य सेवाएँ कब की ले ली गई होती। और वे अबतक अपनी नेक सलाह भी दे चुके होते कि नॉर्वे के जो भी दम्पति और उनके छोटे-छोटे बच्चे हमारे देश में है, उन्हें उठा लाओ और कस्टडी में ले लो इस बिनाह पर कि ये तथाकथित सभ्य लोग अपने मासूमों को अपने साथ न सुलाकर अलग कमरे और अलग बिस्तरों पर सुलाते है, जो हमारे देश के मानवीय मूल्यों, संस्कृति और स्टैण्डर्ड के खिलाफ है। दस-बीस डम्मी रिट याचिकाए भी अदालतों में डलवा चुके होते, साथ ही अपने कुछ पुच्छैल खबरिया माध्यमों को भी थोड़ा- बहुत चारा डालकर बीच-बीच में नमक-मसाला लगाकर यह ब्रेकिंग न्यूज भी प्रसारित करवाते रहते कि इस देश में किसतरह बाल-गृहों में बच्चों का बाल-शोषण और योन-शोषण किया जा रहा है। फिर देखते कि कैसे दौड़कर न सिर्फ नॉर्वे वाले उन बच्चो को रिहा करते अपितु उनके दो-चार मंत्री उन्हें लेकर एक विशेष विमान से उन्हें उनके अभिभावकों को सुपुर्द करने घर तक आते। मगर अफ़सोस कि ऐसा कुछ नहीं, मसले-मसले की बात है।
यदि मामला किसी और से सम्बन्धित होता तो अब तक न जाने क्या क्या हो गया होता और बच्चे न जाने कब के यहां आ गये होते.
ReplyDeleteनार्वे सरकार तो पागल हो ही गयी है , लेकिन हमारी सरकार बेहद खेदपूर्ण और असंवेदनशील रवय्या अपनाये हुए है। दो मासूम बच्चों से बिछड़ने का भी दर्द नहीं समझ रही है माता पिता का। सरकार चाहे तो बहुत कुछ कर सकती है।
ReplyDeleteसरकार चाहे तब तो ...
ReplyDeleteवाह!री नार्वे सरकार ,तेरे कानून निराले,
ReplyDeleteवो करें बेघर बच्चों को ,हम गले लगालें|
शुभकामनाये !
अजब नियम हैं, गजब देश है..
ReplyDeleteअभी सोनिया मेडम ने सरकार को कुछ करने का हुक्म नहीं दिया होगा .... नहीं तो हाई तौबा शुरू हो गयी होती अब तक ...
ReplyDeleteबढ़िया व्यंग बाण छोड़े हैं गोदियाल जी ।
ReplyDeleteबात तो सही है आपकी ।
शुक्रिया डा० साहब , सुबह से ६ टिप्पणिया मिल गई थी, मगर पता नहीं क्यों अब जाके आपकी टिपण्णी पढ़ कर लगा कि हाँ मेरे लेख को किसी ने पढ़ा है !
ReplyDeleteगोदियाल जी, यह पोस्ट बहुत कुछ कह जाती है. वैसे आप पता करें की नार्वे में 'भुक्की' पीने का रिवाज है की नहीं ?
ReplyDeleteसुबीर जी, आपका आभार ! भुक्की तो वे लोग ऐसी पीते है कि संक्रमण हो ही जाए :)
ReplyDeleteवैसे एक बात और कहनी थी डा० साहब, जैसी कि खबर है कि उन्होंने बच्चों को रिहा कर दिया है तो लगता है उन्होंने भी मेरा यह व्यंग्य पढ़ लिया और डर गए:) हा-हा-हा-हा-हा-हा....
ReplyDeleteएकदम सही पॉइंट लाये हैं, यही हो रहा है.
ReplyDeleteबच्चों के बहाने बुड्ढों (सब सुसरे बुड्ढों का किया धरा है ) को लपेट के फ़फ़ेड दिया सर । बेहतरीन मारा है ..आउ निप्पल जी का परिचय तो तबला तोड रहा । जय हो
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