Wednesday, February 1, 2012

रुग्ण समाज की वेदी पर भेंट चढ़ती फलकें !

कुछ ख़ास आश्चर्य नहीं हुआ जब समाचार माध्यमों से यह मालूम पड़ा कि दो साल की एक मासूम फलक, जो हैवानियत के निर्मम हाथो कुचली और विक्षिप्त अवस्था में परित्यक्त दिल्ली के एक निर्माण स्थल से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के आईसीयु में मौत से जूझने के लिए छोड़ दी गई, और अब वेंटिलेटर पर जिन्दगी और मौत के बीच की लड़ाई अकेले लड़ रही है। और इसकी ख़ास वजह यह है कि क्योंकि यह घटना तो तब सुर्ख़ियों में आ गई जब मासूम फलक एम्स पहुची और मीडिया की नजरों में आई, वरना तो इस देश में रोज ही पता नहीं, इंसानों की दरिंदगी की शिकार कितनी ही अभागी फलकें भुखमरी, दरिद्रता, अज्ञानता और बेरोजगारी के अंधेरों में घुट-घुटकर दम तोड़ देती हैं, कोई गिनती ही नहीं। आप सहज अंदाजा लगा सकते है कि यह हाल तो तथाकथित आर्थिक हस्ती बनने को छटपटाते इस देश की राजधानी दिल्ली का है, इतने विशाल देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में क्या-क्या हो गुजरता होगा, भगवान् मालिक है।



आज ही एक खबर पर नजर गई कि पश्चिम बंगाल में एक सात माह की बच्ची को उसके माँ-बाप रेल के डिब्बे में ही भगवान् भरोसे छोड़ चलते बने। साथ में छोड़ गए एक ज्वलंत सवाल कि यदि यह मासूम, लडकी की वजाए लड़का होता तो क्या तब भी इसके माता-पिता इसके साथ यही सुलूक करते? एक और खबर पढ़ रहा था उत्तरी अफगानिस्तान के कुन्दूज प्रांत की, जहाँ २९ वर्षीय शेर मुहमद ने अपनी २२ वर्षीय पत्नी स्टोरे को सिर्फ इसलिए मार डाला क्योंकि उसने तीसरी बार भी बेटी को ही जन्म दिया था। यहाँ यह भी एक गौर करने लायक बात है कि इनकी शादी को अभी सिर्फ ४ साल ही हुए थे और इन्होने चार साल में तीसरी संतान को जन्म दिया था।अभी एक सप्ताह पहले की ही खबर थी कि इसी जगह में पुलिस ने एक पंद्रह साल की लडकी को उसके ससुरालवालों के चंगुल से छुडाया था, जिसे बेसमेंट में बंद करके कई दिनों से भूखा-प्यासा रखा गया था। और ऐसा नहीं कि यह घटना सिर्फ अफगानिस्तान अथवा पाकिस्तान में ही होती हो, हमारा देश इसमें कहीं भी पीछे नहीं। फलक को अस्पताल पहुंचाने वाली १४ वर्षीय लडकी किशोरी  के शोषण की दास्तान भी आप लोंगो ने ख़बरों में सुनी होगी, जो रौंगटे खड़े कर देने वाली है।
 

इस अफगान लडकी के नाक-कान सिर्फ इसलिए
काट दिए गए कि यह अपने आतंकवादी पति के
संग नहीं रहना चाहती थी!
 यह भी नहीं कि लिंगभेद की इस बीमारी से सिर्फ दुनिया का यह एशिया खंड ही जूझ रहा हो, परिलक्षण भिन्न हो सकते है मगर हमारा पुरुषप्रधान समूचा विश्व समाज ही इस समस्या से पीढित है। कल ही एक रिपोर्ट न्यू योर्क टाइम्स के एक ब्लॉग पर पढ़ रहा था, यहाँ देखें, जिसमे दर्शाया गया है कि किस तरह तथाकथित विकसित और सभ्य देश अमेरिका में कामकाजी गर्भवती महिलाओं के साथ भेदभाव और अन्याय होता है, एक सात माह की गर्भवती महिला कैशियर के प्रति बजाये नर्म व्यवहार अपनाने के उसका नियोक्ता उसे सिर्फ इस हास्यास्पद विनाह पर नौकरी से निकाल देता है, क्योंकि इस दौरान वह टायलेट विराम अधिक ले रही थी। दूसरी घटना में एक गर्भवती कामकाजी महिला, जोकि रिटेल शॉप पर कार्यरत थी, को इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया क्योंकि उसने अपने सुपरवाईजर को डाक्टर का सर्टिफिकेट दिखा यह अनुरोध किया था कि उसे डाक्टर द्वारा इस अवस्था में सीढियां चढ़ने और भारी सामान उठाने की मनाही थी। ऊपर से वहाँ की कोर्ट ने भी नियोक्ता के ही पक्ष में फैसला दिया।



सदियां गुजरी, अनेक महारथियों ने हमारे इस रुग्ण समाज के कायाकल्प के दावे किये, कुछ ने ईमानदार प्रयास भी किये, मगर फिर ढाक के वही तीन पात, मानसिक रुग्णता की भयावहता ज्यों की त्यों बनी हुई है। अफ़सोस कि शिक्षित कहे जाने वाले हमारे पुरुष समाज ने सिर्फ महिला के भूगोल को वर्णित करने तक ही अपने को सीमित रखा। लिंग-भेद रूपी समाज के इस घृणित फोड़े की शल्यक्रिया की ख़ास जरुरत किसी ने नहीं समझी। आरक्षण के मुद्दे पर बड़ी-बड़ी फेंकने वाले और महिला सशक्तिकरण पर घडियाली आंसू बहाने वाले हमारे ये भ्रष्ट नेतागण, जिनके हाथों हमने देश की बागडोर सौंप रखी है, पिछले १६ साल से महिला आरक्षण बिल के ऊपर पालथी मारे बैठे है।



आधुनिक सभ्यता के इस युग में जरुरत इस बात की है कि हम और हमारे समाज के ये तथाकथित ठेकेदार मानवता को शर्मशार करने वाली इन इंसानी हरकतों पर गंभीरता से मनन करते हुए किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुँचने हेतु यह तय करें कि आज वेंटिलेटर पर रखे जाने की अधिक आवश्यकता किसे है, फलक को या फिर सभ्य और सुशिक्षित कहे जाने वाले लिंगभेद की लाइलाज बीमारी से ग्रसित इस आधुनिक पुरुष प्रधान रुग्ण समाज को।

बस अंत में यही कहूंगा कि


ईमान के जीर्ण चेहरे काले न पड़ें,
जान के इस देश में लाले न पड़ें।
जुल्म के विरुद्ध आवाज उठती रहे,
जुबान पे इस देश में ताले न पड़ें।। 
 
Jai hind !

छवि गुगुल से साभार !

11 comments:

  1. ऐसी खबरें झकझोर देती हैं..
    kalamdaan.blogspot.com

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  2. ऐसी खबर पढ़कर मन खिन्न हो जाता है!

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  3. अफ़सोस है...पता नहीं कब बदलेगी मानसिकता...

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  4. अमानवीय संवेदनहीन कृत्य है ।
    जब तक आबादी यूँ ही बढती रहेगी , जान की कीमत घटती रहेगी ।

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  5. एक एक ईंट ही सही , सब रखें - एक ही कदम बढायें, पर बढायें

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  6. कब बदलेगी यह मानसिकता... धिक्कार है..

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  7. अमानवीय एवं वीभत्स कृत्य हैं..... हम कहाँ जाकर रुकेंगें ...?

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  8. यह रुग्ण मानसिकतायें, भगवान करे, स्वयं ही सुधर जायें।

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  9. jab tak dahej pratha ka ant aur mata pita dwara beti ko bhi bete ke barabar haq nahi milega ladkiyon ke sath yeh atyachar hota rahega ladki ladke ke anupat me antar badhta rahega jiske bhayankar parinaam samne aane vaale hain.manushyon ki soch ko badalna hoga naari ko aur majboot aur ladki ke haq me pahal karni hogi naari ko hi naari ke utthan me agrani hona hai majbooti se.

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  10. लड़की होने के अपराध का दंड भुगतना है ये तो.

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  11. jaghany kritya hai ye. aise log insaan nahin haiwaan hain.

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।