यह दुनिया एक रंगशाला है
और हमसब इसके मज़ूर,
कुशल, अकुशल सब
जुटते हैं काम पर
कोई तन-मन से,
कोई अनमन से ,
निभाते फिर भी किन्तु
सब अपना-अपना किरदार !
रंगमच की राह में
कुछ समर्पण करते है
और कुछ परित्याग ....
लेकिन दस्तूर वही चलता है
पर्दा उठते ही अभिनय शुरू
और गिरने पर ख़त्म !!
अजीब रंगमंच है ये भी जिसके निर्देशक के बारे में कोई नहीं जानता..
ReplyDeleteमगर कभी-कभी कम्वक्त
ReplyDeleteमुंह बायें खडा यक्ष-प्रश्न
मन उद्द्वेलित कर जाता है; ... कभी कभी नहीं , कई बार
सुख की चाह, रही सब मन में..
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteकोई कुशल और कोई अकुशल... कर्म जारी रहना चाहिए बस। बढिय़ा रचना।
ReplyDeleteवाह ...बहुत ही अनुपम भाव संयोजन ।
ReplyDeleteशेख पीर [अरे वही- अपने शेक्सपीयर] से प्रेरणा लेकर लिखी गई सुंदर कविता के लिए बधाई :)
ReplyDeleteकिरदार निभाते-निभाते;
ReplyDeleteसमर्पण अथवा परित्याग ?
gahan sunder abhivyakti ...
बहुत सुन्दर गंभीर और सार्थक रचना...
ReplyDeleteसादर
मुंह बायें खडा यक्ष-प्रश्न
ReplyDeleteमन उद्द्वेलित कर जाता है;
कि क्या उचित है तब, जब
रंगकर्मी ही तंग आ जाए
किरदार निभाते-निभाते;
समर्पण अथवा परित्याग ?
इस भावपूर्ण रचना के लिए बधाई स्वीकारें
नीरज
कि क्या उचित है तब, जब
ReplyDeleteरंगकर्मी ही तंग आ जाए
किरदार निभाते-निभाते;
समर्पण अथवा परित्याग ?
यक्ष प्रश्न है... कई बार उठता है.