प्रात: भ्रमण के उपरान्त बरामदे में बैठ बस यूँ ही शून्य को निहार रहा था कि सहसा नजर चिड़ियाओं का कोलाहल सुनकर सामने पार्क के एक छोर पर लड़ रही कुछ चिड़ियाओं पर जा टिकी। उनके व्यवहार से लग रहा था कि वे एक दूसरे को मरने-मारने पर उतारू है। बहुत देर तक उन्हें ही निहारता रहा। और स्थित तब जाके कुछ स्पष्ट हुई, जब पार्के के कोने पर स्थित एकमात्र छोटे से नीम के पेड़ पर वे सभी उड़कर आई। यह लड़ाई एक घोसले के लिए चल रही थी। दिलो - दिमाग को कुछ पल यह सोच कर बड़ा कष्ट हुआ क़ि हम स्वार्थी इंसानों ने कितनों के घर उजाड़ दिए अपना घर बसाने के चक्कर में।
यह सोचकर थोड़ा गुस्सा भी आया कि हम, हमारी सरकार और हमारे कुछ तथाकथित पर्यावरणविद, जानवरों और परिंदों के नित लुप्त होते संसार का रोना तो बहुत रो लेते है , मगर इनका घर बसाने की कभी किसी ने कोई सार्थक पहल करनी तो दूर , इस बारे में सोचने तक की जुर्रत नहीं की कि हमारे थोड़े से प्रयास से कैसे हम इन्हें अपनी भावी पीढ़ियों के लिए बचा कर सकते है। धिक्कार है ऐंसी स्वार्थी इंसान प्रजाति के लिए, जो एक अदद दीमाग होने के बावजूद भी सिर्फ अपने लिए ही सोचती है। अभी सालभर पहले मैं देखता था कि किस तरह दिल्ली की सडको के आस-पास से हजारों पेड़ों की बलि सिर्फ इसलिए दे दी गई क्योंकि हमें "कॉमन वेल्थ" कमानी थी।मगर हम भूल गए कि उन पेड़ों के साथ हमने कितने परिंदों के घर बसाने का सपना चकनाचूर कर दिया। और तो और हने उन बेघर होकर सड़क पर आये पशु-पक्षियों को "आवारा" की संज्ञा दी।हरामखोर, खुद आवारा गर्दी कर दूसरों का घर उजाड़ते है, और फिर उन्हें ही आवारा भी कहते है।
खैर, इस सरकार से, जो इंसानों की नहीं सोच पा रही, उससे यह उम्मीद रखना सरासर ज्यादती होगी कि वह पशु-पक्षियों के बारे में सोचकर उनके लिए कुछ शहरी चारागाह और पक्षियों के लिए घोसलों का इंतजाम करेगी, जोकि अगर इनके पास इच्छा शक्ति होती तो बड़े आराम से यह व्यवस्था की जा सकती थी। मसलन शहर में उगने वाली हर बहुमंजली सरकारी बिल्डिंग में एक फ्लोर पक्षियों के घोंसलों के लिए आरक्षित किया जा सकता था , क़ानून बनाकर शहर में घर बनाने वाले के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए था, कि वह मकान में एक निश्चित मात्रा में कुछ छिद्र (होल) इस तरह के बनाएगा कि जिसमे घर-मोहल्ले के आसपास विचरण करने वाले परिंदे जैसे गौरिया इत्यादि आसानी से अपना घोसला बना सके।
खैर, अगर मेरी बात आप लोगो को पसंद आई हो तो मैं आप लोगो से जरूर यह निवेदन करूंगा कि भले ही इससे आपके घर की सजावट में कुछ खलल पड़ता हो, मगर तनिक इन निरीह परिंदों के बारे में भी सोचकर अपने घर के आस-पास कुछ ऐसी व्यवस्था अवश्य करें कि चंद परिंदे भी आपके सतरंगी सपनो के साथ-साथ खुद के भी सतरंगी सपने संजो सके। "हमी हम हैं तो क्या हम हैं....... ?"
छुपे बैठ , छत पर रखे
कुछ गमलों की ओंट में !
चिड़ी पूछती थी चिडू से,
पगले, घर बसाने के ख्वाब
तो देख रहा है मगर ,
ये सोचा कभी कि
इन इंसानों की बस्ती में
तुझे घोसला बनाने की जगह देगा कौन ?
सुनकर चिडी की बात,
चिडू ने शून्य में कुछ निहारा,
बोलने को गले से खरास निकाली,
मगर शब्द थे कि
निकलने को तैयार ही न थे, अत :
कुछ कहना चाहकर भी वह रह गया मौन !!!
यह सोचकर थोड़ा गुस्सा भी आया कि हम, हमारी सरकार और हमारे कुछ तथाकथित पर्यावरणविद, जानवरों और परिंदों के नित लुप्त होते संसार का रोना तो बहुत रो लेते है , मगर इनका घर बसाने की कभी किसी ने कोई सार्थक पहल करनी तो दूर , इस बारे में सोचने तक की जुर्रत नहीं की कि हमारे थोड़े से प्रयास से कैसे हम इन्हें अपनी भावी पीढ़ियों के लिए बचा कर सकते है। धिक्कार है ऐंसी स्वार्थी इंसान प्रजाति के लिए, जो एक अदद दीमाग होने के बावजूद भी सिर्फ अपने लिए ही सोचती है। अभी सालभर पहले मैं देखता था कि किस तरह दिल्ली की सडको के आस-पास से हजारों पेड़ों की बलि सिर्फ इसलिए दे दी गई क्योंकि हमें "कॉमन वेल्थ" कमानी थी।मगर हम भूल गए कि उन पेड़ों के साथ हमने कितने परिंदों के घर बसाने का सपना चकनाचूर कर दिया। और तो और हने उन बेघर होकर सड़क पर आये पशु-पक्षियों को "आवारा" की संज्ञा दी।हरामखोर, खुद आवारा गर्दी कर दूसरों का घर उजाड़ते है, और फिर उन्हें ही आवारा भी कहते है।
खैर, इस सरकार से, जो इंसानों की नहीं सोच पा रही, उससे यह उम्मीद रखना सरासर ज्यादती होगी कि वह पशु-पक्षियों के बारे में सोचकर उनके लिए कुछ शहरी चारागाह और पक्षियों के लिए घोसलों का इंतजाम करेगी, जोकि अगर इनके पास इच्छा शक्ति होती तो बड़े आराम से यह व्यवस्था की जा सकती थी। मसलन शहर में उगने वाली हर बहुमंजली सरकारी बिल्डिंग में एक फ्लोर पक्षियों के घोंसलों के लिए आरक्षित किया जा सकता था , क़ानून बनाकर शहर में घर बनाने वाले के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए था, कि वह मकान में एक निश्चित मात्रा में कुछ छिद्र (होल) इस तरह के बनाएगा कि जिसमे घर-मोहल्ले के आसपास विचरण करने वाले परिंदे जैसे गौरिया इत्यादि आसानी से अपना घोसला बना सके।
खैर, अगर मेरी बात आप लोगो को पसंद आई हो तो मैं आप लोगो से जरूर यह निवेदन करूंगा कि भले ही इससे आपके घर की सजावट में कुछ खलल पड़ता हो, मगर तनिक इन निरीह परिंदों के बारे में भी सोचकर अपने घर के आस-पास कुछ ऐसी व्यवस्था अवश्य करें कि चंद परिंदे भी आपके सतरंगी सपनो के साथ-साथ खुद के भी सतरंगी सपने संजो सके। "हमी हम हैं तो क्या हम हैं....... ?"
छुपे बैठ , छत पर रखे
कुछ गमलों की ओंट में !
चिड़ी पूछती थी चिडू से,
पगले, घर बसाने के ख्वाब
तो देख रहा है मगर ,
ये सोचा कभी कि
इन इंसानों की बस्ती में
तुझे घोसला बनाने की जगह देगा कौन ?
सुनकर चिडी की बात,
चिडू ने शून्य में कुछ निहारा,
बोलने को गले से खरास निकाली,
मगर शब्द थे कि
निकलने को तैयार ही न थे, अत :
कुछ कहना चाहकर भी वह रह गया मौन !!!
आप घौसलें के लिए जगह छोडने की बात कर रहे हैं, अरे यहाँ तो चिडियों को ही खत्म कर दिया है। आदमी ने सब कुछ उदरस्थ कर लिया है।
ReplyDeleteनिकलने को तैयार ही न थे, अत :
ReplyDeleteकुछ कहना चाहकर भी वह रह गया मौन !!!
bahut khoob kaha hai
गोदियाल जी, आज मानवता रह ही कहाँ गई है? आज तो सभी ओर बस स्वार्थ ही स्वार्थ दिखाई पड़ता है। पहले गर्मी के दिनों में मिट्टी के बर्तनों मे पानी भरकर प्यासे पंछियों के लिये रखने का भी एक रिवाज था, आज तो पानी से भरे हुए ऐसे मिट्टी के बर्तन भी दिखाई नहीं पड़ते।
ReplyDeleteहमारा एक बरामदा कबुतरों का स्थाई प्रसुतिगृह बना हुआ है. इसका दर्द हम ही जानते है. न हटाने को मन करता है न रखने को.
ReplyDeleteआज हर इंसान की पीडा है, पर विकास के नाम पर इन निरीह पक्षियों के बसेरे छीन लिये गये हैं. सैकडों वर्ष पुराने पेड सडक चौडीकरण के नाम काट डाले गये हैं. अब नक्कारखाने में तूतू की आवाज जैसी आपकी हमारी आवाज होगई है.
ReplyDeleteरामराम.
गोदियाल जी , न गेम्स में बुराई है , न विकास में ।
ReplyDeleteहाँ उजाड़े गए घर , चाहे चिड़ियों के हों या इंसानों के , फिर से बसाये जाने चाहिए ।
प्रयावरण का ख्याल रखना अत्यंत आवश्यक है ।
पक्षिओं के कोलाहल में ईश्वरीय स्पंदन है। शब्द उच्चारण के दोष में -रोगी के मस्तिषक पर इस 'कोलाहल 'के असर का अध्ययन कर , वाणी दोष के निदान में महत्तवपूरन जानकारी मिलती है।
ReplyDeleteआपने इन अति संवेदनशील तथ्यों पर प्रकाश डाला -धन्यवाद। और नहीं हम कम से कम इस भयंकर गर्मीं में अपनी छत पर इन परिंदों के लिए शीतल जल की छबील तो लगा ही सकते हैं। और अगर सत्नाज़ा भी दाल दें तो क्या बात है।
पर्यावरण को बचाने की सीख देती
ReplyDeleteप्रेरणात्मक पोस्ट के लिए धन्यवाद!
सच है इंसानों के जंगल में परिंदों का क्या काम ? बहुत संवेदनशील हैं आप गोदियाल साहब...बहुत झेलते होगे...... !शुभकामनायें !
ReplyDeleteकुछ कहना चाहकर भी वह रह गया मौन !!!
ReplyDeleteमौन यूँ भी घटता है ...!!
कहने को बहुत कुछ है,मगर आपने शब्द ही छीन लिये हैं,मौन रहने पर मज़बूर हैं हम भी.ताऊ जी सही कह रहे हैं.रायपुर से नागपुर और नागपुर से अमरावती तक फ़ोर लेन सडक बनाने के नाम पर लाखों पेड काट डाले गये.अब सडक तो चौडी हो गई है मगर उस पर कंही छांव नज़र नही आती.
ReplyDeleteये सोचा कभी कि
ReplyDeleteइन इंसानों की बस्ती में
तुझे घोसला बनाने की जगह देगा कौन ?
पेड़ लगाओ, धरा बचाओ...और कोई उपाय नहीं है. बस, अपने हिस्से का सब करें...पंक्षी का बसेरा भी बस जायेगा.