Sunday, March 21, 2010

साठ साल मे अक्ल न आई.....!


साठ साल मे अक्ल न आई,  देश के कुछ बदरंगो को,
चुन-चुन के ताजो-तख़्त दिया, लुच्चे और लफ़ंगो को ॥

बाग़ उजाडने वाले ही अब, बन बैठे बाग़ के माली हैं ,
जुर्म-अपकार के फूल खिले हैं, बगिया मे बदहाली है  ॥


जाति-समाज मे हवा दे रहे है, बे-फ़िज़ूल के पंगो को,
चुन-चुन के ताजो-तख़्त दिया, लुच्चे और लफ़ंगो को ॥

जन-नुमाइंदी की आड़ में होता सारा गडबड झाला है,
जन पैंसे को तरस रहा, कंठ इनके द्रव्य की माला है ॥

धन-कुबेर की चाबी सौंप दी, पथ-छाप भिखमंगों को,
चुन-चुन के ताजो-तख़्त दिया, लुच्चे और लफ़ंगो को ॥

लूट-खसौट ही उद्देश्य रह गया, इस आज  के नेता का,

तथ्य झुठलाना ही काम रह गया, यहां कानूनबेता का ॥

पथ-भ्रष्ठ कर युवा शक्ति को, पैदा कर रहे हुड-दंगो को,

चुन-चुन के ताजो-तख़्त दिया, लुच्चे और लफ़ंगो को ॥

14 comments:

  1. सही है ,अपनी बदहाली के लिये कमोवेश जनता ही जिम्मेदार है

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  2. बहुत खूब. वाकई कमाल का लिखा है. क्या सही चित्रण किया है आपने देश की बदहाली का.
    आरक्षण का राक्षस योग्यता पर भारी है, बेरोजगार पढ़े लिखे नवयुवक को अनपढ़ नेताओ की गलत नीतियों का शिकार होना लाचारी है.

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  3. साठ साल मे अकल न आई, देश के भूखे-नंगो को ।
    चुन-चुन कर सदन भेज रहे, लुच्चे और लफ़ंगो को ॥
    vicharon mes amanta lagi Godiyal sir.. ye bhi sach hai ki jo sach hai wo sach hi hai. :)
    bahut sari sachchaiyon ko udghatit kiya aapne behatreen dhang se.

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  4. कहावत है न....
    साठा में पाठा....
    यानि कि साठ साल में भी बच्चा....
    लड्डू बोलता है...
    http://laddoospeaks.blogspot.com

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  5. साठ साल मे अकल न आई, देश के भूखे-नंगो को ।
    चुन-चुन कर सदन भेज रहे, लुच्चे और लफ़ंगो को ॥
    अभी तो यही पंक्तियां पढी है। पर इतना सुंदर है कि आगे पढने से पहले आपका आभार प्रकट करने के आवेग को रोक नहीं पाया।

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  6. साठ साल मे अकल न आई, देश के भूखे-नंगो को ।
    चुन-चुन कर सदन भेज रहे, लुच्चे और लफ़ंगो को ॥
    आगे आगे देखिये अगले साठ साल के लिये फ़िर से इन्हे ही चुनने की नीयत है......
    बहुत सुंदर जी

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  7. इस कविता में आपका तेवर देखते ही बनता है।
    चमन उजाडने वाला, बन बैठा बाग का माली है ।
    भ्रष्ठाचार के फूल खिले हैं, बगिया मे बदहाली है ॥
    धन-कुबेर की चाबी सौंप दी, राह के भिखमंगो को ।
    साठ साल मे अकल न आई, देश के भूखे-नंगो को ॥

    एक शे’र पेश करने से नहीं रोक पा रहा हूँ
    मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है,
    सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है।
    हुकूमत मुंहभराई के हुनर से खूब वाकिफ है,
    ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है।

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  8. साठ साल मे अकल न आई, देश के भूखे-नंगो को ।
    चुन-चुन कर सदन भेज रहे, लुच्चे और लफ़ंगो को ॥

    मजा नही आया!

    साठ साल मे अकल न आई,
    अपने इन भिखमंगों को ।
    चुन संसद में भेज रहे हैं,
    लुच्चे और लफ़ंगो को ॥

    अब ठीक है ना!

    चलिए आपका टिप्पणीबॉक्स तो खुला!

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  9. असलियत उजागर करने का इससे बढ़िया तरीका नहीं हो सकता
    बधाई

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  10. साठ साल मे अक्ल न आई,अपने इन भिखमंगों को ।
    चुन-चुनकर संसद भेज रहे, लुच्चे और लफ़ंगो को ॥......yhee shee hai,bdhai achhee rchna ke liye.

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  11. बहुत बढ़िया रचना आज यहीं तो सब हो रहा है . कविता के माध्यम से बढ़िया प्रस्तुति के लिए आभार .

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  12. काश कि

    तुम्हारे नयनों की तरह,

    मेरा ये नादां दिल भी

    समझदार होता ।

    आते चाहे कितने ही

    आंधी-तूफ़ान,

    जज्बातों के अंधड,

    मगर यह अपना

    आपा न खोता ॥
    बहुत सुन्दर भावनाएं.......उतने ही सुन्दर शब्द अदायगी भी

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  13. बहुत खूब ...दिल से निकली रचना

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  14. बहुत बढ़िया रचना आज यहीं तो सब हो रहा है . कविता के माध्यम से बढ़िया प्रस्तुति के लिए आभार .

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।