Saturday, March 20, 2010

खूब मजे लूट रहा, घर के भी, घाट के भी !



सुना था,जब-जब अराजकता के बादल घिरते है,
यहाँ, आवारा हर कुत्ते के दिन फिरते है !

कमोबेश,कुछ ऐसा ही परिस्थिति अबकी भी बार है,
दूषण - प्रदूषण से हुआ हर तंत्र बीमार है !


क्या कहने,अब तो धोबी के कुत्ते के ठाठ-बाट के भी,
खूब मजे लूट रहा, घर के भी, घाट के भी !


उसकी तो,बस नजर, अपने बाहुल्य बढ़ाई में है,
पांचों उँगलियाँ घी में,सिर कढाई में है !


हर तरफ,जिधर देखो, अराजकता ही नजर आती है,
रोटी की जगह टॉमी, बटर-ब्रेड खाती है !


ऐसी तो,बादशाहत, हरगिज देखी न सुनी थी हमने,
अवाम-ए-हिंद, कभी किसी बड़े लाट के भी !


क्या कहने, अब तो धोबी के कुत्ते के ठाठ-बाट के भी,
खूब मजे लूट रहा, घर के भी, घाट के भी !

8 comments:

  1. कुछ ऐसा ही परिस्थिति अबकी भी बार है,
    दूषण - प्रदूषण से हुआ हर तंत्र बीमार है !
    ऊपर लगा चित्र बहुत कुछ कह रहा है जी, ओर आप कि यह कविता भी बहुत अच्छी लगी इस , आज का सच

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  2. वा्ह गोदियाल जी,
    आज तो अट्ठा मारा है।
    गधे के साथ कुत्ते का
    भी हुआ गुजारा है।
    तंत्र जब से स्वतंत्र हुआ
    अमन चैन किसे गवारा है।

    आभार-टिप्पणी बक्सा खोलने के लिए।

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  3. बहुत अच्छी कविता ...

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  4. कुछ ऐसा ही परिस्थिति अबकी भी बार है,
    दूषण - प्रदूषण से हुआ हर तंत्र बीमार है !
    स्थिति तो यही है

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  5. आजकल तो कुत्तों के ही ज्यादा ठाठ बाठ हैं।
    गोदियाल जी , ये कौन सा बनवास काटकर लौटे हैं।
    खैर टिपण्णी खोलने का बहुत शुक्रिया।

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  6. "अब तो धोबी के कुत्ते के ठाठ-बाट के भी,
    खूब मजे लूट रहा, घर के भी, घाट के भी !!"

    बहुत खूब!

    जोरदार ठाठ-बाट हैं भाई! आरसी पी रहे हैं और खीर खा रहे हैं! :-)

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।