कृत्य मे हो अगर संदिग्धता, करे कोई ऐतबार कैसा,
नजर न आये मिजाज नीरव, नम्र तेरा व्यव्हार कैसा।
पाले रखे हों जब जिगर मे, अंत्य ख्याल प्रतिघात के,
फ़रमाबरदार अल्लाह का बन, आस्था से प्यार कैसा।
निकले न हों जुबां से कभी, सरस स्नेह के दो लफ़्ज भी,
रिपु बना के अग्रज को, जेहाद मुक्ति का आधार कैसा।
भोग के लोभ मे लबे-राह, बना लिया इक आशियाना,
वसीला बना अशक्त-ए-पर्दानशीं, सर्ग का करार कैसा।
खुदा के फ़जल से बनी जब, कृति अनवरत संसार की,
पाने को अज्ञेय जन्नत हो रहा, इसकदर बेकरार कैसा।
एक ही माटी से ढाले जब उसने सभी एक ही चाक पर,
कहे, तोड डाल काफ़िरे-घडों को, अरे यह कुम्हार कैसा।
गैर के मजहब की भी स्तुति करना सीख,निन्दा नही,
जब इन्सानियत ईश धर्म है, फिर तेरा अहंकार कैसा।
- अंत्य = तुच्छ -फ़रमाबरदार=आज्ञाकारी
- लबे-राह= सड्क किनारे -वसीला= जरिया,
- अग्रज= बडा भाई - सर्ग= सृष्टि, रिपु= शत्रु
नजर न आये मिजाज नीरव, नम्र तेरा व्यव्हार कैसा।
पाले रखे हों जब जिगर मे, अंत्य ख्याल प्रतिघात के,
फ़रमाबरदार अल्लाह का बन, आस्था से प्यार कैसा।
निकले न हों जुबां से कभी, सरस स्नेह के दो लफ़्ज भी,
रिपु बना के अग्रज को, जेहाद मुक्ति का आधार कैसा।
भोग के लोभ मे लबे-राह, बना लिया इक आशियाना,
वसीला बना अशक्त-ए-पर्दानशीं, सर्ग का करार कैसा।
खुदा के फ़जल से बनी जब, कृति अनवरत संसार की,
पाने को अज्ञेय जन्नत हो रहा, इसकदर बेकरार कैसा।
एक ही माटी से ढाले जब उसने सभी एक ही चाक पर,
कहे, तोड डाल काफ़िरे-घडों को, अरे यह कुम्हार कैसा।
गैर के मजहब की भी स्तुति करना सीख,निन्दा नही,
जब इन्सानियत ईश धर्म है, फिर तेरा अहंकार कैसा।
- अंत्य = तुच्छ -फ़रमाबरदार=आज्ञाकारी
- लबे-राह= सड्क किनारे -वसीला= जरिया,
- अग्रज= बडा भाई - सर्ग= सृष्टि, रिपु= शत्रु
bahut khoobsoorat khyaal
ReplyDeletebahut achi kavita he bhai saheb
ReplyDeleteढेर सारी शुभकामनायें.
http://kavyawani.blogspot.com
shekhar kumawat
गैर-मजहब की भी स्तुति करना सीख ले, निन्दा नही ।
ReplyDeleteइन्सानियत ईश धर्म है, फिर यह तेरा अहंकार कैसा ॥
shaandaar!!!
sabhi blogeron k liye prerak !!!!
kaash ham sabhi apne aham se mukt hona seekh len!!!!
रचना प्रस्तुति पर बधाई...
ReplyDeleteबहुत उम्दा... शानदार.. धन्य भाव लिये हुये.. उन्हें भी समझ आये तो सोने पे सुहागा.
ReplyDeleteव जो कर रहे है वो करना छोड़ दे तो फिर कोंन पूछेगा उन झूठे नाम के लोभियों को! नहीं है ये प्यार!
ReplyDeleteकुंवर जी,
खुदा के फ़जल से बना जब, कृति अनवरत संसार की ।
ReplyDeleteपाने को अज्ञेय जन्नत हो रहा, इस कदर बेकरार कैसा ॥आपकी मान्यता पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
सही सीख ,
ReplyDeleteक्या बात है
Ek hi maati se dhale jab usne sabhi ek hi chaak par!
ReplyDeleteKahe, tod dal kaafir ghadon ko, are yeh kumhaar kaisa!!
Godiyaal Saab, insaniyat ka pukhta sandesh deti hai aapki rachna!
Aabhar!
गैर-मजहब की भी स्तुति करना सीख ले,
ReplyDeleteनिन्दा नही ।
इन्सानियत ईश धर्म है,
फिर यह तेरा अहंकार कैसा ॥
बढ़िया सन्देश देती हुई है आपकी रचना!
एक ही माटी से ढले जब उसने सभी एक ही चाक पर ।
ReplyDeleteकहे, तोड डाल काफ़िर घडों को,अरे यह कुम्हार कैसा ॥
बहुत सुंदर जी .
धन्यवाद
इस हौसला अफजाई के लिए सभी मित्रों को मेरा तहेदिल से धन्यवाद !
ReplyDeleteनिकले नही जुबां से कभी, सरस स्नेह के दो लफ़्ज भी ।
ReplyDeleteरिपु बनाके अग्रज को, जेहाद मुक्ति का आधार कैसा ॥
thik kaha jab 2 pyaar ke bol bhi nhi bol sakte to unse sakaratmak kranti kaise ki kya umeed ki ja sakti hain.
काफिर घड़ों को तो टूटकर बिखरना ही है। आस्थाविहीन आदमी हम बर्दास्त नहीं कर सकते। वो भी केवल हम में आस्था होना ही अनिवार्य है। बढिया लिखा है।
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