Sunday, February 12, 2012

एक सौभाग्यशाली देश का दुर्भाग्य !

विविधताओं भरे इस देश में जहां अनेक धर्मों, जातियों, भाषाओं और पंथों के लोग निवास करते हैं, वहाँ   धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व और उदारवाद  सिर्फ इकतरफा यातायात का हिस्सा बनकर  नहीं रह सकते  हैं  और उसके अनुसरण का बोझ अकेले वहाँ के बहुसंख्यक समुदाय के कंधों पर डालना  सीधे-सीधे  न सिर्फ लोकतंत्र की मूल भावना का उल्लंघन है, बल्कि उसके उद्देश्यों को भी कमजोर करता है  किसी भी लोकतांत्रिक समाज में बिना भेदभाव के सभी के लिए समान अवसर उस  देश-समाज और व्यवस्था की सफलता का एक मुख्य पैमाना माना जाता है 

यह एक दुःख  की बात है कि जिन मौजूदा देश, काल और परिस्थितियों में हम जी रहे है  वह एक धर्मनिरपेक्ष समाज का हिस्सा कम और प्रतिस्पर्धी साम्प्रदायिक और जातीय तुष्टीकरण और वोट-बैंक की राजनीति का हिस्सा अधिक बनकर रह गया है। राष्ट्रवाद को हमारी कुटिल राजनीति और तुच्छ धार्मिक स्वार्थों ने महज एक साम्प्रदायिकता का अंग-चिंह बनाकर  रख छोड़ा है, और जो वास्तविक साम्प्रदायिकता और विघट्न  का जहर तमाम देश-समाज में  घोला जा रहा है,उसे हम धर्मनिरपेक्षता की संज्ञा देकर नजरअंदाज कर देते है  आज हर देश भक्त जो सवाल पूछता है, वह यह है कि आज  हमारे बीच में  "भारतीय" कहाँ  हैं? कोई हिन्दू है तो कोई मुसलमान, कोई सिक्ख तो कोई इसाई, कोई तमिल है तो कोई कश्मीरी, कोई मराठी है तो कोई असमी, भारतीय और  भारतीयता तो मानो कहीं गुम होकर रह गई है  कितने अफसोस की बात है कि  हम भारतीयों को आज दुनिया में एक सबसे भ्रष्ट, अनैतिक और धर्मांध  समाज  के अंग के तौर पर देखा जाता है   हम लाख अपनी प्रगति और खुशहाली की शेखिया बघारें मगर दुर्भाग्यबश सच्चाई यही है कि ब्रिटेन जैसे देश के नेताओं को कहना पड़ता है कि अगर हमने भारत को सहायता देना बंद कर दिया तो वहाँ लाखों लोग भूखों मर जायेंगे। ऐसा भी नहीं कि हमारे पास किसी चीज की कमी रही हो अंग्रेजों और मुगलों की गुलामी से पूर्व का हमारा एक गौरवशाली इतिहास था, था इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरा मानना है कि गुलामी के दौर का इतिहास बनावटी और तथ्यों से हटकर पेश किया हुआ है  हमारे पास प्राकृतिक संसाधन इसकदर मौजूद थे कि एक समय में इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था, मेहनतकश जन-शक्ति थी, बौद्धिक क्षेत्र में दुनियाभर में अपना लोहा मनवाने वाली युवा शक्ति थी, बहादुर सेनानी थे, क्या नहीं था ? मगर मनन करने की बात यह है कि इन सबके बावजूद भी हमारे राजनेता इस खेल में सिद्ध हस्त हो गए  कि किस तरह अपने राजनैतिक फायदे के लिए उन्हें अपनी फूट डालो और राज करो  की नीति को हमारे बीच बनाए रखना है। और उसके लिए सिर्फ नेताओं को ही दोषी ठहराना भी न्यायसंगत न होगा, आखिरकार ये नेता भी तो इसी समाज से उठकर आगे जाते हैं। इसलिए  इसके लिए पूरा ही समाज दोषी है, कोई एक ख़ास समाज या मजहब नहीं। 

जब हम किसी ख़ास समाज अथवा मजहब को देश की राजनीति को गंदा करने का श्रेय देते है, तो हम यह भूल जाते है कि जिस समाज पर दोष मड़ा जा रहा है, वह उस समाज से तादाद में कहीं कम है, जो समाज उनपर दोष मढ़ रहा है। अगर वृहत समाज में अल्प समाज की तरह एकता या भेडचाल नहीं है तो भला इसमें उस अल्प समाज का क्या दोष? हाँ, जहां तक देश हित, देश   की एकता और अखंडता का सवाल है, यह भी जरूरी है कि उस अल्प समाज को राष्ट्र-हित में अपने तुच्छ स्वार्थों को त्यागना होगा। उन्हें मजहब के उन ठेकेदारों, जिनकी सोच हमारे उन नेताओं से  ख़ास भिन्न नहीं है, जो ये सोचते है कि अगर समाज के लोग पढ़-लिख गए, खूब खाने-पीने लगे और प्रगति करने लगे तो इनके चूल्हों की आग ठंडी पड़ जायेगी, को एक नए स्वतंत्रता संग्राम की सी चुनौती समझ उनके चंगुल से हर हाल में बाहर निकलना ही होगा, अन्यथा पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कबीलाई इलाकों जैसी स्थिति हमारे  समक्ष भी कभी भी आ सकती है

वर्तमान में जारी इन कुछ राज्य चुनावों के दौरान क्या कुछ चल रहा है, इस सूचना क्रान्ति के युग में किसी से छिपा नहीं है। अनेक राजनीतिक पार्टियों द्वारा जनता को दूसरे दलों की साम्प्रदायिकता का भय दिखाकर एक सुनियोजित ढंग से खुद साम्प्रदायिकता का सहारा लेकर समाज को विभाजित करने का जो गंदा खेल पिछले छह दशकों से खेला जा रहा था, उसमे और तेजी आ गई है। और इसका जो एक और भी अफसोसजनक पहलू है, वह यह है कि जिस व्यक्ति के कन्धों पर देश के कानूनों को बनाने और उनके ठीक से संचालन को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी थी, जिन महाशय से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी है और अपनी मर्यादाओं की सीमारेखा का सम्मान करते हुए खुद एक जिम्मेदार नागरिक होने का जनता के समक्ष उदाहरण पेश करेंगे, वही उन कानूनों का न सिर्फ खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते नजर आ रहे है अपितु  उनको चुनौती भी दे रहे है। इस देश का इससे बड़ा और क्या दुर्भाग्य हो सकता है, अगर क़ानून मंत्री के ये हाल है तो जनता से क्या अपेक्षा करेंगे? इस देश के संरचनात्मक ढाँचे के मद्द्यनजर तख्तापलट संभव नहीं वरना तो इन हालातों में मॉलदीव जैसी स्थिति बनने में देर कितनी लगती? ६५ सालों से आप सरकार चला रहे है, एक ख़ास मजहब से तो आप इन ६५ सालों में सिर्फ और सिर्फ उनके शुभचिंतक के तौर पर ही वोट मांग और पा रहे है, फिर जो मुद्दा आज आप चुनाव जीतने के लिए उठा रहे है, या जो मुद्दा आज आपको याद आ रहा है , उसे पिछले ६५ सालों में क्यों नहीं आपने कार्यान्वित किया? जब सबकुछ नीतियाँ आप अल्पसंखयकों और पिछड़े वर्गों के हितार्थ ही बना रहे थे तो फिर आज आपको उनकी स्थिति  दयनीय क्यों नजर आ रही है? इसका मतलब आप अपने कार्यों में अक्षम है   फिर आप को किस बात का वोट दिया जाए ? बटला मुठभेड़ यदि फर्जी थी तो जनाब, दिल्ली और केंद्र में सरकार तो आप ही की थी, फिर क्यों नहीं आपने इस तथाकथित जघन्य कृत्य की जिम्मेदारी ली ? अपने भ्रष्ट कार्यों और लूटमार को छुपाने के लिए क्या  कोई और मुद्दा ही न बचा आपके पास? दोष उस ख़ास मजहब के लोगो का भी कुछ कम नहीं है जो मूक दर्शक बने बैठे है,  क्योंकि उन्होंने कभी खुलकर ये सवाल इस सरकार से पूछने की जरुरत महसूस नहीं की और  इसपर इसतरह की राजनीति को चलने दिया   

अब ज़रा रुख करे अपने चुनाव आयोग की तरफ   याद दिलाना अनुचित न होगा कि क्या राष्ट्रपति पद  की दावेदारी, क्या चुनाव आयुक्त की नियुक्ति , क्या सीवीसी की नियुक्ति,  इस सरकार के वे सारे अहम् निर्णय विवादों में घिरे रहे थे। जानकारी के मुताविक श्री खुर्शीद के रवैये से क्षुब्द  चुनाव आयोग ने  उनकी शिकायत राष्ट्रपति से की है यहाँ एक पुराना चुटकिला याद आ रहा है; एक बार रॉकेट और विमान में गुफ्तगू चल रही थी, रॉकेट सेखी बघारने से बाज नहीं आ रहा था कि वह अन्तरिक्ष में कहाँ-कहाँ नहीं जाता है। विमान बोला; यार वो तो सब ठीक है, मैं भी आसमान में दूर-दूर तक उड़ता हूँ, मगर ये बता कि मुझे तो उड़ने से पहले रनवे पर दूर तक दौड़ना पड़ता है, तू कैसे सीधे उछलकर ऊपर चला जाता है? रॉकेट हँसते हुए बोला, बेटा, जब खुद के पिछवाड़े आग लग जाए तो ऐसे ही उछलते है। खुद का चेहरा बचाने और गुस्सा निकालने के लिए चुनाव आयोग ने  श्री खुर्शीद की शिकायत राष्ट्रपति से लिखित तौर पर भले ही कर दी हो लेकिन जानकार इसे भी चुनाव आयोग द्वारा मामले की लीपापोती बता रहे है। उनका मानना है कि एक स्वायत्त संस्था होते हुए कायदे से आयोग को इसकी शिकायत सुप्रीम कोर्ट में करनी चाहिए थी। यह भी खबर है कि राष्ट्रपति ने उनकी शिकायत प्रधानमंत्री कार्यालय को भेज दी है, जिसे आम लोग आजकल यहाँ 'ठन्डे बस्ते' की संज्ञा देते है 

खैर, परिणाम जो भी हों मगर, चुनाव आयोग ने ऐसा करके एक गलत परिपाटी जो भी जन्म दे दिया है जिसमे पूर्वागढ़ साफ़ नजर आता है     इतना सबकुछ होते, देखते हुए भी हम अगर  नहीं चेते तो इसे मैं अपने इस सौभाग्यशाली देश का दुर्भाग्य न कहूं तो और क्या कहूँ ?    

नोट: जब बात निकली है तो यह भी एक गौर करने योग्य बात है जिस प्रकार से एक स्वशासी संस्था यानि  चुनाव आयोग को कौंग्रेस के ये नेता अपने अधीन समझने  या होने का दावा करते है तो अगर जिस रूप में ये अपना लोकपाल लाना चाहते है, उसके दांत कितने मजबूत होंगे इन्हें काटने के लिए उसका भी सहज अंदाजा लगाया जा सकता है !                                        

9 comments:

  1. durbhagya prabal hota hai to karn paarth se haar jata hai...

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  2. वाकई दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है ...
    सामयिक आलेख

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  3. अजब सी प्रतिस्पर्धा है..

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  4. ".... हमारा एक गौरवशाली इतिहास था।"

    गोदियाल साहब, "हमारा एक गौरवशाली इतिहास था" नहीं "हमारा एक गौरवशाली इतिहास है" कहिए। हमारे उस गौरवशाली इतिहास को जानबूझ कर छिपाया गया है और उसे संसार के समक्ष पुनः लाना अति आवश्यक है।

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  5. इतिहास जो पढाया जाता है वह संकर है. डाकटरड है...

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  6. आपसे सहमत शत प्रतिशत ..

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  7. जब तक जाति, धर्म, पार्टी बगैहरा देख कर बोट डालते रहेंगे हम... हमारी पुंगी यूं ही बजाई जाती रहेगी

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  8. अवधिया साहब, जबाब आपकी ही टिपण्णी में छुपा है, था का अर्थ यही है कि जो असली इतिहास था उसे कहीं दफ़न कर दिया गया और सिर्फ चाटुकारिता और तुष्ठिकरण वाला इतिहास परोसा गया !

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  9. हर हाल में इन्होनें अपने स्वार्थ ही साधने हैं......वाकई दुर्भाग्यपूर्ण

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सहज-अनुभूति!

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