Tuesday, July 30, 2013

बनाने वाले ने हमें भी अगर, ऐसा ऐ काश बनाया होता


बनाने वाले ने हमें भी अगर, ऐसा ऐ काश बनाया होता,
किसी यूरोप की मेम को, हमारी भी सास बनाया होता।
     
गोरी सी इक जोरू होती,और हम वी.वी.आईपी भी होते,  
हर मोटे रईस ने अपना, हमें खासमखास बनाया होता। 
  
चाटुकारों की इक पूरी फ़ौज,चरण वन्दना में लींन होती,
कहीं भी बेधड़क घुसने का,हमारा भी पास बनाया होता।

कहाँ से कहाँ पहुँच जाते, फिर हम चूड़ी बेचने वाले भी ,

शहर के हर शागिर्द ने हमें, अपना ब़ास बनाया होता।

ऐ बनाने वाले , भाग्य हमारा ऐसा झकास बनाया होता, 

किसी यूरोप की मेम को, हमारी भी सास बनाया होता।    

Saturday, July 27, 2013

हर गांधी में अगर हमने महात्मा न ढूढा होता !


कुटिलता, संकीर्णता, स्वार्थ-परायणता, खुदगर्जी, अर्थोपार्जन अथवा भौतिक उपलब्धियों की दौड आज इस देश को इस मुकाम पर ले आयेगी, कभी सपने में भी नहीं सोचा था। व्यथित मन बस, मूक-दर्शक बनकर इर्द-गिर्द घटित होते वृत्तांत को सिर्फ अपने मानस-पटल पर संकलित किये जा रहा है। अब, आगे क्या होगा ? यह प्रश्न निरंतर एक गूढ़ पहेली की भांति संभावनाओं और आशंकावों का मकडजाल मन के किसी कोने में बुनने में व्यस्त है। असंयम, संयम पर निरंतर हावी होता सा प्रतीत होता है, और अन्दर की तमाम कसमसाहट शान्ति के अंतिम हथियार, यानि कलम उठाने को एक बार फिर विवश कर देती है। 

कुछ साल पहले अपने इसी ब्लॉग पर फ्रांस की महान क्रांति से सम्बंधित एक लेख लिखा था।   उसको लिखने से पहले जब मैं उस क्रान्ति का अध्ययन कर रहा था, तो उस क्रान्ति  के  केंद्र में मुझे लोगों की भूख एक बारूद का ढेर और शाही परिवार का वह सवाल  कि 'खाने के लिए अगर राशन नहीं है तो ब्रेड क्यों नहीं खाते', उस बारूद के ढेर की तरफ जाती एक चिंगारी की तरह नजर आ रहे थे। उन गुस्साए लोगो की जो इमेज मैं अपने मन-मस्तिष्क पर बनाने की कोशिश कर रहा था, तो वो चेहरे मुझे स्वाभिमानी से प्रतीत हो रहे थे। और उसी सिलसिले को याद करते हुए कल, मैं नादाँ उनकी तुलना अपने देशवासियों से करने बैठ गया। उनकी तुलना करने लगा उन चंद सक्षम और स्वाभीमानी देशवासियों से, जिन्हें  हर सुबह पेट खाली करने के लिए किसी भी पब्लिक टॉयलेट में कम से कम पांच रूपये सिर्फ इसलिए खर्च  करने पड़ते है, क्योंकि वे उन अधिकाँश देशवासियों की तरह, जो स्त्री,पुरुष, बच्चे सभी किसी सड़क और रेलवे लाइन के किनारे कतार में बैठकर, सर झुकाकर पेट खाली नहीं कर सकते। और ऊपर से सत्ता में बैठे उनके रहनुमा उनके साथ यह क्रूर मजाक करते हैं  कि तुम आज के इस भयानक महंगाई के दौर में भी एक रूपये में भरपेट भोजन कर सकते हो। अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता हूँ कि शायद हमारे ये तथाकथित रहनुमा पक्के तौर पर आश्वस्त है कि हिन्दुस्तानियों में फ्रांसीसियों जैसे गट्स नहीं हैं। 

कक्षा ५ की किताब में सम्मिलित हुए एक और गांधी ! 
तीन-तीन प्रत्यक्ष और एक परोक्ष गुलामी झेली भी तो क्या, चाटुकारिता और चरण वंदना में फिर भी हमारा कोई सानी नहीं है।  हमने और हमारे पूर्वजों ने बड़े-बड़े तगमे हासिल किये है, जिनपर हमें गर्व है। और इसी सिलसिले को हम आगे भी बखूबी बढ़ा रहे है, अपने दिलों में यह सकारात्मक  उम्मीद पाले हुए कि हमारी इस  स्वामिभक्ति और चाटुकारिता का एक न एक दिन हमें कोई मीठा फल किसी बड़े साहित्यिक पुरूस्कार, यहाँ तक कि भारत-रत्न के  जैसे देश के सर्वोच्च पुरूस्कार के रूप में भी प्राप्त हो सकता है। ये बात और है कि रत्न बन जाने के बाद हम रत्न की तरह अपना हाव -व्यवहार भी बनाते है या फिर गली , कूचे में किसी ठेली वाले की तरह आवाज लगाते फिरें कि ये लेलो और वो मत लो, या मुझे ये पसंद है तुम भी यही खरीदो। आश्चर्य होता है यह देख, सोचकर कि कैसे ये लोग इतनी बड़ी हस्ती बने, कैसे इन्होने देश और राज्यों की  न्यायपालिका और कार्यपालिका के सर्वोच्च पदों पर १०-१०, पंद्रह-पंद्रह साल तक काम किया? दहशतगर्दों के लिए तो इनके दिल में सम्मान है किन्तु उसके लिए कोई सम्मान नहीं है जिसने देश के खातिर अपनी कुर्बानी दे दी।   


उत्तराखंड में मलवे में सडती लाशें !
कहने को हम एक लोकतांत्रिक देश है, मगर आज कहीं कोई कर्तव्य-परायण सरकार नजर आती है क्या आपको जो जनता के प्रति वाकई जबाब देह हो? जले पर नमक छिड़ककर नसीहत देते हैं, गुस्सा अच्छी चीज नहीं है  अधिकार तो इन्होने सब अपने पास बखूबी समेट लिए, किन्तु कर्तव्य भिन्न-भिन्न इकाइयों में बाँट दिए है, ताकि इसका दोष उसके सर मढ़ा  जा सके और जिम्मेदारी किसी की न रहे। भिन्न-भिन्न  में फंड वितरित कर दो, तू भी खा और मुझे भी खाने दे, बस, हो गई कर्तव्य की इतिश्री!                  


   शिखर - पत्थरों में अगर हम, आत्मा न ढूढ़ते,
मंदिर - मस्जिदों में जाकर, परमात्मा न ढूढ़ते।

फिर होती ही क्यों आज,हालत ये अपने देश की ,
हर एक गाँधी में अगर हम, "महात्मा "न ढूढ़ते।

लुंठक-बटमार, इस कदर न बेच खाते वतन को,   
आचार-सदाचार का अगर हम,खात्मा न ढूढ़ते।

सड़क-कूचों में न चलता, पशुता का नग्न नाच,  
सूरतों में अगर हम, पद्मा व फातमा न ढूढ़ते।

सजती न यूं तिजारत 'परचेत', पीर,फ़कीरों की,    
हर पंडित, मुल्ला, पादरी में, धर्मात्मा न ढूढ़ते। 



Wednesday, July 24, 2013

'चीड़-पिरूल' विद्युत और उत्तराखंड !

अलग राज्य का दर्जा प्राप्त हुए उत्तराखंड को लगभग तेरह साल हो चुके है। कौंग्रेस और बीजेपी ने यहाँ बारीबारी से राज किया। आज की तिथि तक कुल 2309 दिन उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार रही और 2330 दिन कॉग्रेस की। बीजेपी के चार मुख्यमंत्रियों क्रमश: सर्वश्री नित्यानंद स्वामी, भगत सिंह कोश्यारी, बीसी खंडूरी  और रमेश पोखरियाल ने राज किया, जबकि कॉग्रेस के दो मुख्यमंत्रियों सर्वश्री एन डी तिवारी और विजय बहुगुणा ने यह सौभाग्य प्राप्त किया। लेकिन इसे उत्तराखंड का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि एक अलग राज्य बनने पर जो उम्मीदे और अपेक्षाए उसने संजोई थी, उसपर कोई भी राजनीतिक दल खरा नहीं उतरा।

अक्सर हमारा तमाम तंत्र अपनी अक्षमता को छुपाने के लिए पर्याप्त धन और सुविधाओं के अभाव  का रोना रोता रहता है। लेकिन अगर इच्छाशक्ति हो, मन में अपने क्षेत्र, राज्य  और देश को सशक्त बनाने का जज्बा हो तो सीमित स्रोतों से सरकार को सालाना मिलने वाली आय भी राज्य के विकास में एक महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकती है। उत्तराखंड में चीड़ के जंगलों की बहुतायत है। उत्तराखंड वन विभाग के अनुमानों के अनुसार उत्तराखंड के  १२  जिलों के १७ वन प्रभागों के करीब ३.४३ लाख हेक्टीयर जमीन पर चीड के जंगल हैं जिनसे प्रतिवर्ष करीब २०. ६०  लाख टन पिरूल (Pine needles), बोले तो चीड की नुकीली पत्तियाँ और स्थानीय भाषा मे कहें तो 'पिल्टू' उत्पन्न होता है।

पहाडी जंगलों में इस पिरूल के भी अपने फायदे और नुकशान है। वसंत ऋतू  के आगमन पर चीड के पेड़ों की हरी नुकीली पत्तिया सूखने लगती है। मार्च  के आरम्भ से ये पेड़ों से झड़ने शुरू हो जाते है और यह क्रम जून-जुलाई  तक चलता रहता है। जहां एक और सड़ने के बाद यह पिरूल जंगल की वनस्पति के लिए आवश्यक खाद जुटाता है  और बरसात में पहाडी ढलानों पर पानी को रोकता है, वहीं दूसरीतरफ यह वन संपदा और जीव-जंतुओं का दुश्मन भी है। आग के लिए यह बारूद का काम करता है और एक बार अगर चीड-पिरूल ने आग पकड़ ली तो पूरे वन परदेश को ही जलाकर राख कर देता है। सूखे में यह फिसलन भरा होता है और गर्मी के दिनी में पहाडी ढलानों पर कई मानव और पशु जिन्दगियां लील लेता है। कुछ नासमझ सैलानी बेवजह और कुछ  स्थानीय  लोग बरसात के समय नई हरी घास प्राप्त करने के लिए जान-बूझकर इनमे आग लगा देते है।

लेकिन आज की इस तेजी से विकासोन्मुख दुनिया  में चीड-पिरूल हमारी बिजली  और ईंधन की जरूरतों को पूरा करने में एक अहम् रोल अदा कर रहा है/कर सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ बारह टन पिरूल एक पूरे परिवार के लिए सालभर का ईंधन(लकड़ी का कोयला), ८ MWh (प्रतिघंटा) यूनिट बिजली और एक आदमी के लिए सालभर का रोजगार उत्पन्न करता है। एक अनुमान के अनुसार अगर हर वन क्षेत्र के समीप  एक १०० कीलोवाट का चीड-पिरूल विद्युत संयत्र लगा दिया जाए और १०० प्रतिशत पिरूल उत्पादन का इस्तेमाल बिजली उत्पन्न करने हेतु किया जाए तो इससे उत्तराखंड में करीब ३ लाख पचास हजार कीलोवाट से चार लाख किलोवाट बिजली उत्पन्न  की जा सकती है। आपको मालूम होगा कि एक सामान्य घर में २ कीलोवाट का बिजली का मीटर पर्याप्त होता है, खासकर पहाडी इलाकों में जहां अक्सर पंखे/कूलर चलाने की जरुरत भी नहीं पड़ती। इसका तात्पर्य यह हुआ कि डेड से दो लाख घरों में बिजली सिर्फ पिरूल संयंत्र से ही पहुंचाई जा सकती है ।  इतने तो पूरे उत्तराखंड में घर ही नहीं है तो जाहिर सी बात है कि बाकी की बिजली ( बांधो से प्राप्त विधुत के अलावा) अन्य राज्यों को निर्यात कर सकते है। हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा वो अलग, ग्रामीण लोगो को ईंधन मिलेगा वो अलग, वन संपदा को आग से बचाया जा सकेगा, वो अलग।         
                                 
Firing Up Dreams
पिरूल गैसीकरण प्लांट जिसमे पिरूल को छोटे टुकड़ों में काटकर डाला जाता है और उत्पन्न ऊर्जा को विद्युत लाइनों में पम्प कर दिया जाता है 

अब आते है इन सयंत्रों की लागत और उसके लिए आवशयक वित्त स्रोतों पर। १०० से १२० कीलोवाट  के  एक चीड़ -पिरूल विद्युत संयत्र की लागत करीब ४ करोड़ रूपये है। और उत्तराखंड में उपलब्ध कच्चे माल की कुल उत्पादन क्षमता(३५०००० कीलोवाट अथवा ३५० मेघावाट) प्राप्त करने के लिए करीब ३००० ऐसे संयंत्रों की  जरुरत पड़ेगी। यानि कुल वित्त चाहिए करीब एक ख़रब डेड अरब रुपये। माना कि जून २०१३ में आई उत्तराखंड प्रलय के बाद परिस्थितियाँ भिन्न हो गई है, किंतु अगर हम इस देश के पर्यटन मंत्रालय के आंकड़ों पर भरोसा करें तो अकेले सन २०११ में करीब २ करोड़ ६० लाख यात्री उत्तराखंड भ्रमण के लिए पहुंचे थे। ज्यादा नहीं तो मान लीजिये कि प्रति यात्री ने वहाँ औसतन हजार रूपये खर्च किये, तो सीधा मतलब है कि  कुल पर्यटन बिक्री या लेनदेन उस वर्ष में उत्तराखंड की करीब पौने तीन ख़रब  रुपये था। अब मान लीजिये कि मिनिमम  १० प्रतिशत राजस्व ( टैक्स इत्यादि) इस लेन-देन से सरकार को प्राप्त हुआ तो कुल हुआ पौने तीन अरब रूपये। तो अगर सरकार सिर्फ इसी धन को भी चीड-पिरूल विद्युत परियोजनाओं पर लगाए तो प्रतिवर्ष करीब ५०-५५ संयत्र लगा सकती है। वैसे भी एक अकेली बाँध परियोजना खरबों रुपये की बनती है। 

अफ़सोस कि इस दिशा में अभी तक कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया गया है। अवानी बायो एनर्जी नाम की एक प्राइवेट संस्था   इस दिशा में तमाम तकलीफों के बावजूद उत्तराखंड में हाथ-पैर मार रही है, प्रयास हालांकि उनका बहुत ही सराहनीय है। और शायद इस जुलाई अंत तक १२० कीलोवाट का उनका एक संयंत्र पिथोरागढ़ के त्रिपुरादेवी गाँव में काम करना शुरू भी कर देगा, मगर हमारी सरकारे कब जागेंगी, नहीं मालूम !  



छवि गूगल से साभार !               

Tuesday, July 23, 2013

घुन लगी हत्यारन व्यवस्था !

कल रात को टीवी पर खबरें देखते वक्त जब न्यूज एंकर ने दिल्ली के ग्रीनपार्क इलाके में एक ३३ वर्षीय डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता आनंद भास्कर मोरला की भरी  दोपहर बाज़ार में  एक नंगे बिजली के तार से करंट लगने से हुई दुखद मृत्यु का समाचार देते हुए यह कमेन्ट दिया कि देखा जाए तो  आनंद भास्कर की करंट लगने से मृत्यु नहीं बल्कि उनकी हत्या हुई है, और उसका हत्यारा हमारा यह  सिस्टम है, तो कुछ विचार मेरे मानसिक पटल पर उत्तराखंड त्रासदी के बारे में  भी कौंधे, जिन्हें यहाँ लिपिबद्ध कर रहा हूँ। 

गत माह उत्तराखंड और तमाम देश के जिन लोगो ने उत्तराखंड की त्रासदी झेली, वे अभी भी उस सदमे से बाहर निकलने में असफल है। किन्तु हमारे इस तथाकथित महान लोकतंत्र की राजनीति के गिरगिटों के लिए तो मानो यह एक सुनहरे अवसर की भांति है, जो अपनी रंग बदने की शैली मे और निखार इसके माध्यम से लाने में जुटे हुए है। कोई पीड़ितों का हमदर्द बनकर उस जगह जाकर घडियाली आंसू बहा रहा है , तो कोई खबरिया टीवी चैनलों के कैमरों के आगे मंदिर का मलवा साफ़ करने का नाटक कर रहा है। और जिनकी राजनीति किसी की कृपा से अनायास ही चमकी हुई थी वे इस बात का गम मना रहे है कि तमाम तैयारियों के बावजूद वे जनता के पैसों पर इस बार अपने बीबी/बच्चों को यूरोप और अमेरिका घुमाने नहीं ले जा सके।  

आप में से जो लोग कभी केदारनाथ घूमकर आये हों, वे लोग गौरीकुंड से आगे पैदल मार्ग पर बसे राम बाडा  नामक स्थान से भी अवश्य भली भांति परिचित होंगे। जिस तरह माँ वैष्णव देवी के रास्ते पर अर्धक्वाँरी के समीप यात्रियों के खान-पान और विश्राम की जगह पर रोज चहल-पहल रहती है, केदारनाथ तीर्थयात्रा के दिनों में रामबाडा भी ठीक उसी उद्देश्य को पूरा करता था ( 'है' नहीं लिख रहा क्योंकि अब वह पूरी तरह नष्ट हो चुका, पांच होटल और तकरीबन १५० दुकानों और घरों में से कुछ भी नहीं बचा )! दोनों में फर्क बस इतना था कि अर्धकुंवारी वैष्णव देवी पर्वत  के लगभग मध्य में है, जबकि रामबाडा मंदाकनी तट पर दो पहाड़ों के बीच एकदम घाटी में नाले के मध्य में बसाया गया था।  स्थानीय सरकार, मंदिर समिति और प्रशासन के तमाम महकमे इस बात से भली भाति वाकिफ हैं कि  पहाडो में बादल फटने, ग्लेशियर खिसकने की घटनाएं बरसात के दिनों में अक्सर होती रहती हैं, फिर भी इस रामबाडा नामक स्थल  को उस नाले में खूब फलने-फूलने दिया गया। नतीजन, १६- १७ जून, २०१३  को राते के विश्राम और सुबह के नाश्ते का समय होने की वजह से  सेकड़ों या यूं कहें कि हजारों की तादाद में सैलानी, तीर्थ यात्री और स्थानीय कारोबारी एक अकेले इसी स्थान से बहे, क्योंकि आठ सौ से हजार बारह सौ लोग तो हरवक्त वहाँ पर सीजन में रहते ही रहते थे।
रामबाड़ा, संवेदनहीनता की हद, नीव के नीचे नाला
या यूं कहे की एक पहाड़ी नदी और ऊपर व्यावसायिक भवन 


सभी जानते है कि आज हमारा यह देश और उसका प्रजातंत्र एक बहुत  ही बुरे दौर से गुजर रहा है। जिसके लिए जिम्मेदार न सिर्फ ये गिरगिट ही हैं, अपितु तमाम देश की जनता भी उतनी ही जिम्मेदार है, और नतीजतन हमें हमारी तमाम खामियों का हर्जाना इस रूप में चुकाना पड़ता है। सरकार नाम की चीज सिर्फ कुछ लोगो के ऐशो-आराम का जरिया बन चुकी है।  अपने कुशासन की जिम्मेदारी लेना तो गिरगिटों ने दशकों पहले ही छोड़ दिया था, किन्तु अगर जनता जागरूक होती तो होना यह चाहिए था कि देश की समाज सेवी संस्थाओं को, उन लोगो जिन्होंने अपने परिजन और प्रियजन उस  ख़ास स्थान, रामबाड़ा से खोये हैं, उनके साथ  मिलकर केन्द्रीय पर्यटन मंत्रालय, उत्तराखंड के तमाम मुख्यमंत्रियों और पर्यटन मंत्रियों, यहाँ तक कि राज्य बनने  से पहले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन पर्वतीय विकास मंत्रालय में मंत्री रहे लोगों  और  मंदिर समिति के मुखियाओं के ऊपर गैर-इरादतन ह्त्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए था। देखा जाए तो उन मौतों के लिए प्रकृति नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ हमारी यह घुनलगी जर्जर व्यवस्था(सिस्टम) ही जिम्मेदार है।   क्यों इन्होने सिर्फ अपने फायदे के लिए ऐसे खतरनाक स्थान को यात्रियों के विश्राम की जगह बनने और फलने-फूलने दिया।  क्या इनकी इसतरफ  ध्यान देने की कोई जिम्मेदारी नहीं थी? अगर सरकार में विवेक का अभाव न होता तो बजाये दैविक आपदा के लिए सड़कों, डामों इत्यादि में दोष ढूढने के ,पहले उन दोषों को ढूढने का प्रयास करती, जिन्हें अगर इसको रोकने के लिए जिम्मेदार लोग रोकना चाहते तो रोक सकते थे।  

कार्टून कुछ बोलता है- बधाई हो गुलामों, एक और युवराज.............. !


Monday, July 22, 2013

लघु व्यंग्य- अरहर महादेव !

आपको शायद याद होगा कि जिस तरह आजकल टमाटर के दाम आसमान छूं रहे है, ठीक उसी तरह २००९ में अरहर की दाल के भाव भी ४३ रूपये से बढ़कर सीधे १०५ रूपये प्रति कीलो तक पहुँच गए थे। उसी वक्त मैंने यह लघु-व्यंग्य लिखा था आज श्रावण मास के प्रथम सोमवार के अवसर पर दोबारा ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ, उम्मीद है आपको पढने में अच्छा लगेगा; 
      

सावन का महीना शुरू हो गया है।  और यह बताने की शायद जरुरत नहीं कि इस पूरे मास में हिन्दू महिलाए प्रत्येक सोमवार को शिव भगवान की पूजा-अराधना कर व्रत (उपवास)रखती हैं मंदिरों में शिव की पूजा-अर्चना की जाती है, तथा उन्हें श्रद्धा-पूर्वक ताजे पकवानों का भोग चढाया जाता हैं  



आदतन आलसी और अमूमन थोबडा सुजाकर, मुंह से आई-हूँ-हुच की कर्कश ध्वनि के साथ रोज सुबह खडा उठने वाला यह निठल्ला इंसान, उस रोज थोडा जल्दी उठा गया था बरामदे में बैठ धर्मपत्नी के साथ सुबह की गरमागरम चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अच्छे मूड में होने का इजहार उनपर कर चुका था।  अतः ब्लैक-मेलिंग में स्नातकोत्तर मेरी धर्मपत्नी ने मुझे जल्दी नहा-धोकर तैयार होने को कहा। यह शुभ-कार्य मुझसे इतनी जल्दी निपटवाने का कारण जब मैंने मुस्कुराकर उनसे पूछा तो उन्होंने भी एक कातिलाना मुस्कान चेहरे पर बिखेरते हुए बताया कि मुझे भी आज उनके साथ मोहल्ले के बाहर, सरकारी जमीन कब्जाकर बने-बैठे शिवजी के मंदिर में पूजा-अर्चना करने और भोग लगाने चलना है  


स्नान तदुपरांत तैयार हुआ तो धर्मपत्नी जी किचन में जरूरी भोग सामग्री बनाकर तैयार बैठी थी, अतः हम चल पड़े मंदिर की और मंदिर पहुंचकर कुछ देर तक पुजारी द्वारा आचमन और अन्य शुद्धि विधाये निपटाने के बाद हम दोनों ने मंदिर के एक कोने पर स्थित भगवान् की करीब दो मीटर ऊँची प्रतिमा को दंडवत प्रणाम किया धर्मपत्नी थाली पर भगवान् शिव को चढाने वास्ते साथ लाये पकवान सजा रही थी कि इस बीच मैंने जोश में आकर भगवान शिव का जयघोष करते हुए कहा; "हर-हर महादेव" ! 

जय-घोष किया तो मैंने पूरे जोश के साथ ऊँची आवाज में था,किन्तु चूँकि पहाडी मूल का हूँ, इसलिए आवाज में वो दमख़म नहीं है, और कभी-कभार सुनने वाला उलटा-सीधा भी सुन लेता है यही उसवक्त भी घटित हुआ जैसे ही मेरा हर-हर महादेव कहना था कि अमूमन आँखे मूँदे अंतर्ध्यान रहने वाले शिवजी ने तुंरत आँखे खोल दी। सफ़ेद रूमाल से ढकी कांस की थाली पर नजर डालते हुए बोले, "ला यार,बड़ा मन कर रहा था अरहर की दाल खाने का। तुमने अच्छा किया जो अरहर की दाल बनाकर लाये,पिछले एक महीने से किसी भी भक्तगण ने अरहर की दाल नहीं परोसी। मगर ज्यों ही मेरी धर्मपत्नी ने भोग की थाली में से रूमाल उठाकर थाली आगे की,शिवजी थाली पर नजर डाल क्रोधित नेत्रों से मुझे घूरते हुए बोले, "तुम लोग नहीं सुधरोगे टिंडे की सब्जी पकाकर भोग चढाने लाये हो और मोहल्ले के लोगो को सुनाने और गुमराह करने के लिए ऊंचे स्वर में अरहर की दाल बताते हो

शाहरुखिया अंदाज मे मै-मै करते हुए मैंने सफाई दी; भगवन, आप नाराज न हो, मेरा आपको क्रोधित करने व किसी को भी गुमराह करने का कोई इरादा नहीं था। दरह्सल आपके सुनने में ही कुछ गड़बड़ हो गई है मैंने तो आपकी महिमा का जय-घोष करते हुए हर-हर महादेव कहा था, आपने अरहर सुन लिया, इसमें भला मेरा क्या दोष? अब आप ही बताएं प्रभु कि इस कमरतोड़ महंगाई में आप तो बड़े लोगो के खान-पान वाली बात कर रहे है हम चिकन रोटी खाने वाले लोग भला आपको 105/- रूपये किलो वाली अरहर की दाल भला कहाँ से परोस सकते है? यहाँ तो बाजार की मुर्गी घर की दाल बराबर हो रखी है आजकल एक 'लेग पीस' में ही पूरा परिवार काम चला रहा है। और हाँ, ये जो आप टिंडे की सब्जी की बात कर रहे है तो प्रभू, इसे भी आप तुच्छ भोग न समझे, 55/- रूपये किलो मिल रहे है टिंडे भी। 

भगवान शिव का मूड काफी उखड चुका था और वो मेरी बकबक सुनने के लिए ज़रा भी इंटरेस्टेड नहीं दीख रहे थे। अत: उन्होंने थोडा सा अपनी मुंडी हिलाई, कुछ बड-बडाये, मानो कह रहे हो कि पता नहीं कहाँ-कहाँ से सुबह-सुबह मूड खराब करने चले आते है इडियट्स ...........और फिर से अंतर्ध्यान हो गए

Saturday, July 20, 2013

गृह-स्वामिनी स्तुति !




बजती जब छम-छम पायल,
दिल होकर रह जाता घायल,
सच बोलूँ तो है ये दिल नादां,
तेरी इक मुस्कान का कायल।
जैसा भी यह इश्क है मेरा, तेरे प्यार ने पाला है,
अनुराग जताने का तेरा, हर अन्दाज निराला है।

अंतर का प्यासा मतवाला,
तुम बनकर आई मधुबाला,  
ममस्पर्शी भाव जगाकर,
साकी बन भरती रीता प्याला, 
इक बेसुध को होश में लाई,प्रिये तू ऐसी हाला है,
अनुराग जताने का तेरा, हर अन्दाज निराला है।

देखी जो सूरत,गला सुराही,
आकाश ढूढने लगा बुराई,
मिलन की पहली रुत बेला पर,
चाँद ने हमसे  नजर चुराई।
खुसफुसाके कहें सितारे,कैसी किस्तम वाला है,
अनुराग जताने का तेरा, हर अंदाज निराला है।

आई जबसे हो तुम घर-द्वारे,
दमक उठे सब अंगना-चौबारे,
पूरे हुए, बुने वो मेरे नटखट,
हर अरमां, हर ख्वाब कुंवारे।
कांटे ख़त्म हुए गुलों ने,घर-दामन सम्भाला है,
अनुराग जताने का तेरा, हर अंदाज निराला है।

मिले तुम, अहोभाग हमारा,
निष्छल है प्रेमराग तुम्हारा,
उत्सर्ग प्रबल,सबल,सम्बल,
अतुल,अनुपम त्याग तुम्हारा,
मन मोदित है, भले ही रंग जिगर का काला है,
अनुराग जताने का तेरा, हर अंदाज निराला है।





Friday, July 19, 2013

बात गुजरे जमाने की !













पट ब्याह हुआ था, 
चट हुई थी मंगनी,    
छब्बीस का मैं था, 
बीस की जीवन संगनी।
इक-दूजे से मन की बातें,हम हरबात को दिल से कहते थे,   
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी,क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।

आँखों ही आँखों में बातें, 
जीने-मरने की सौगातें,
दिन होते थे रोज सुहाने,
और सलोनी होती रातें। 
हम हरदम ही गोरी मुखडे पर, इक काले तिल से रहते थे,
आलम ये था कि कमबख्त पड़ोसी, पिलसे-पिलसे रहते थे।       

खेल खेलते सुर्ख लवों का, 
बिंदी,माथे और भवों का,
चंचलता की परिपाटी पर, 
दौर था चलता कहकहों का।     
अकेले कभी तन्हा पल में भी, हम भरी महफ़िल से रहते थे,
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी, क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।

हंसना,कभी रोना-धोना,  
छत मुंडेर, आँगन का कोना,
आलिंगन कर बाहों में,    
मीठे-मीठे ख्व़ाब पिरोना।  
एक नींव पर कभी इसतरह, खड़े हम दो मंजिल से रहते थे,
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी,क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।  

  

Thursday, July 18, 2013

जिनकी खुद की कोई प्रेरणा नहीं वो औरों के क्या प्रेरणास्रोत बनेगे ?


देश की सड़कें तो पिछले कुछ दशकों से इस बात की आदी हो चुकी है कि रसूकदार लोगो के उनपर चलने के लिए न कोई कायदे कानून होते हैं और न ही कोई ट्रैफिक पुलिस के चालान का डर, इसलिए अब उन सड़कों को कोई शर्म जैसी चीज महसूस नहीं होती।  लेकिन छवि में दिख रहा स्कूटर अवश्य खुद को लज्जित महसूस कर रहा होगा कि न सिर्फ भारी भरकम शरीर वाला एक इंसान, बल्कि २०१४ में देश की सत्ता पर काबिज होने के प्रबल दावेदार एक बड़ी पार्टी के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर चुका व्यक्ति बिना हैलमेट उसपर सवार होकर देश के नियम-कानूनों को खुले-आम धत्ता बता रहा है। 

      

होते न गर तुम खुदगर्ज इतने !












दर्द-ऐ -दिल चीज क्या है,तुमने ये न हरगिज कहा होता,
एक कतरा गर सितम का, दिल ने  तुम्हारे सहा होता।

ह्रदय-संवेदना की गहराइयों से, तुम यूं न होते बेखबर,

इक पुलिंदा ख्वाहिशों का, कभी आंसुओं में बहा होता।

बढ़ते न हरदम  फासले, होते न गर  खुदगर्ज  इतने,   

हुजूम नाइंसाफियों का ये सारा,यूं न इतरा रहा होता।  

कर डालते घायल जिगर, तुम तोड़कर हमारा यकीं ,  

बुरा जो हमने भी अगर,  कभी तुम्हारा चाहा होता। 

वक्त के हर वार पे ये न भूलो, ढाल बनकर हम खड़े थे,

वरना शोखियों का बुत तुम्हारा, एक पल में ढहा होता।    

Wednesday, July 17, 2013

एक महीना- त्रासदी उपरान्त !


उत्तराखंड में आई प्रलय को एक महिना गुजर चुका। अमूमन यह होता है कि जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो देश के एक क्षेत्र विशेष को ही प्रभावित करती है। लेकिन शायद  मेरे जीवनकाल में तो कम से कम यह पहली घटना रही होगी, जिसने न सिर्फ उत्तराखंड अपितु समूचे देश के हर राज्य, यहाँ तक कि दुनिया को गहरे जख्म दिए। तीर्थ यात्रा और पर्यटन मौसम होने की वजह से देश और दुनिया के लोग उसवक्त  वहाँ पहुंचे  हुए थे। 

इस आपदा में जिनके बिछड़ गए उन लोगो को अपनों के आने का अभी भी इंतजार है। यहाँ से मेरे भी चार सगे संबंधी सौ से अधिक लोगो के उस दस्ते में शामिल थे, जो १७ जून की सुबह केदारनाथ के दर्शन कर वापस लौट रहे थे, और जब वह जलजला आया। ये उनकी खुश किस्मती और ऊपर वाले की असीम कृपा थी कि वे चारों १७वे दिन वापस यहाँ पहुँच गए। सौ से अधिक में से सिर्फ बीस लोग ही वापस आ पाए।हाल ही में फोन पर बातों के दौरान वे बता रहे थे कि उनके अधेड़ उम्र पड़ोसी दम्पति इतने भाग्यशाली नहीं थे, और उनके घर वालों को आज भी उनके लौटने का इन्तजार है। यदि आज भी गेट पर ज़रा सी भी ख़ट-ख़ट होती है, तो घर के तमाम सदस्य अपने कमरों से एक साथ निकलकर गेट पर भागे आते है कि क्या पता माँ-बाबूजी लौट आये हों। 

इस बारे में जब कभी सोचने लगता हूँ तो यह सोचकर हैरानी होती है कि हम किन सरकारों को पाल रहे है। क्या ये सरकारे सिर्फ सुख के समय में घोटाले करने के लिए ही हैं?  जब हर बात के लिए हमें अपनी सेना पर ही निर्भर रहना है तो बेहतर है कि देश को सेना के ही हवाले कर दिया जाये। एक क्षेत्र में आई आपदा से ही यह सरकार ठीक से नहीं निपट पा रही तो सोचिये भगवान् न करे अगर कभी देश में ही प्रलय आ गई तो क्या हम इन सरकारों से कोई उम्मीद रख सकते है ? एक महीना बीत चुका है और उत्तराखंड में मलवों में पडी बहुत सी लाशें अभी भी अंतिम संस्कार की बाट जोह रही है। प्रभावित लोगो तक राहत सामग्री के नाम पर सडे हुए गेंहू, फटे-पुराने कपडे और ऐक्स्पाइरी डेट की दवाये भी ठीक से नहीं पहुँच रही। सरकारी महकमे में यह जानने की किसी को इच्छा ही नहीं कि इस आपदा में कुल कितने लोग मरे। नहीं मालूम कि जो सरकारी आंकड़े गुमशुदा लोगो के दिए जा रहे है, वे कैसे एकत्रित किये गए?  जिनके बारे में छानबीन उनके परिजनों ने की, यदि सिर्फ उन्ही को आधार बनाकर आंकड़े प्रस्तुत किये जा रहे है तो उन  तमाम  साधुओं, विदेशी पर्यटकों, उन लोगो, जिनका पता करने वाला कोई बचा ही नहीं, उनका क्या ?                                     


सरकार के खोखले दावे और प्रशासनिक अकर्मण्यता की हद अखबार की इस करतन में साफ़ उजागर हो रही है;
दैनिक हिन्दुस्तान से साभार !





जहां एक ओर सेना के जाबांजो ने अपनी जान की बाजी लगाईं वहीं कुछ ये लोग भी हमारे बीच हैं


बस, आखिर में घूम फिरकर ऊपर वाले का ही भरोसा रह जाता है। भगवान् दिवंगतों की आत्मा को शांति प्रदान करे और आश्रितों को इस दुःख से उबरने की हिम्मत दे !  

Tuesday, July 16, 2013

क्या से क्या हो गया !

निकम्मों को अब मुल्क लायक कहता है,
राजकर्ता को प्रजा का सहायक कहता है, 
खलनायक थे जो कभी  सभ्य-समाज के,
उनको यह ज़माना अधिनायक कहता है।

स्याह वेश,बीहड़ों के होते थे जो शहंशाह,
समाज, व्यवस्था ने बदल दी उनकी राह।
चटक पोशाक पहने घुमते  क्षद्म बेषधारी,
अब  हक़ से लूटते है, तब लूट थी चाह।

डाकू और दस्यु इनका उपनाम होता था,
सर पर हर एक के मोटा इनाम होता था।
पोशाक भले ही अपने अंगरक्षको को दे दी,
किंतु करते वही हैं जो तब काम होता था। 
            
जुबाँ पर इनके मुफ़्त उपहार के वायदे है,
ठेंगे पर रखते, सरकारी नियम-क़ायदे हैं।
चम्बल बनाके रख दिया बस्ती-नगर को, 
असत चित में बसे, अनाचार के फायदे है।

और अंत में ;

ऐ खुदा ! 
हक़ हमको, हमारा कब मिलेगा,
भ्रष्टाचार से, 
देश को छुटकारा कब मिलेगा। 
कश्ती जो फंस गई, 
इस एक पापिनी भंवर में, 
उस डोलती नैंया को 
किनारा कब मिलेगा।   

Friday, July 12, 2013

अदालती फैसलों से असहज परजीवी !


देर से ही सही, किन्तु लोकतंत्र के लिए नासूर बन चुकी राजनीतिक विद्रधि के उपचार हेतु हाल ही में हमारी न्यायव्यवस्था के कुछ ऐतिहासिक फैसलों से जहां एक ओर व्याधिग्रस्त राजनीति के स्वास्थ्य सुधार के प्रति धुंधली सी उम्मीद की किरण जगी है, वहीं दूसरी ओर कुछ परभक्षियों की रातों की नीद भी हराम हो गई है, और ये कुटिल रोग-विषाणु इस नव-अन्वेषित दवा का तोड़ निकालने में जुट गए है।

जैसा कि विगत दिनों में हमने देखा कि देश की सर्वोच्च न्याय संस्था ने वर्षों से लंबित मामलों की सुनवाई करते हुए दो महत्वपूर्ण फैसलों में आपराधिक छवि के उन सभी परोपजीवियों, जिनपर गंभीर आपराधिक मामले तो दर्ज है, किन्तु वे चोरी और भ्रष्टाचार से इकट्ठा किये हुए धन और हराम के माल के सेवन से अर्जित बाहुबल के आधार पर साफ़ बच निकलते थे, ऐसे पराश्रयी, कामचोरों के लिए प्रजातंत्र की सर्वोच्च संस्थाओं (संसद और विधानमंडल )में सुगमता से घुसने के चोर दरवाजों पर कुछ महीन कानूनी जालियों के अवरोध यह निर्णय देकर खड़े कर दिए है कि  अगर कोई परान्नभोजी दो अथवा दो से अधिक साल की सजा  देश की किसी भी अदालत से प्राप्त कर चुका है तो ऐसे मुफ्तखोर को चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं होगा।  साथ ही जिस दिन उसे ऐसी सजा मुकर्रर की जायेगी उसी दिन से उसके द्वारा पहले से हासिल कुर्सी भी छिन जायेगी। और जब यह उपजीवी किसी अपराध की जेल की सजा काट रहा होगा तो, जब उसवक्त इसे  वोट देने का अधिकार हमारे संविधान में पहले से नहीं है तो इसे चुनाव लड़ने का भी अधिकार नहीं होगा।

अतीत में यह इन चापलूस पालितों का ही भ्रष्ट और कुलषित आचरण था जो कोर्ट को यह एकदम दुरुस्त फैसला लेना पडा। संभव है कि कुछ इन्ही के विरादर अपने ही इन कुछ विरादारों को फ़साने हेतु इसका भी दुरुपयोग करेंगे, लेकिन महज इसी आशंका के चलते अब और देश को इन दुश्चरित्र रोगाणुओं के हवाले नहीं किया जा सकता। जब कार्यपालिका अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल हो जाए तो लोगों का भरोसा न्यायपालिका पर ही बचता है, और मैं ये कहूंगा कि कोर्ट ने उसे बखूबी निभाया है। अब यह हर देशवासी का फर्ज बनता है कि  इस फैसले को तोड़ने-मरोड़ने की इन टुकड़खोरों  की हर चाल को हर कीमत पर नाकाम किया जाए।       

नोट: आलेख में परजीवी, परभक्षी, परोपजीवी इत्यादि शब्द सिर्फ उन अपराधियों के  लिए प्रयुक्त किये गए है जो अपने पापों को  छुपाने के लिए राजनीतिज्ञ का क्षद्म आवरण ओढ़े हुए हैं और देश को लूट रहे है।        

रमजान की राजनीति !

सर्वप्रथम सभी को, खासकर मुस्लिम बंधुओं को रमजान के पवित्र मास  की हार्दिक मुबारकबाद ! मैं उपरोक्त विषय पर कुछ नहीं लिख रहा बस, नीचे एक फोटो और एक लिंक लगा रहा हूँ। और एक सवाल सभी बुद्धिजीवियों, खासकर मुस्लिम बुद्धिजीवियों से करना चाहूंगा कि  निम्नांकित को देखने-पढने से आप क्या समझे ?  

१)
मोदी के 'रमजान मुबारक' से तिलमिलाई कांग्रेस


२)
पिछले सोमवार को  सम्मलेन में इमामों का अभिवादन करती श्रीमती दीक्षित  

चलते-चलते एक पुराना जोक:

फुर्सत के पलों में हवाईजहाज और रॉकेट गप लड़ा रहे थे। 
रॉकेट बड़ी-बड़ी छोड़े जा रहा था कि मैं चाँद पर जाता हूँ, मंगल पर जाता हूँ, अंतरिक्ष  में मै  तो ......  

हवाई जहाज बीच में ही उसे टोकते हुए: अरे वो तो ठीक है यार।  जाने को तो मैं भी आसमान में बहुत दूर-दूर की सैर करता हूँ, किन्तु तू ये बता कि जब तू जमीन से आसमान  में जाता है तो एकदम सीधे कैसे ऊपर को उछल जाता है ? मुझे तो ऊपर उठने के लिए पहले रनवे पर बहुत दूर तक तेजी से दौड़ना पड़ता है !

रॉकेट: बेटे, अपने पिछवाड़े जब कोई आग लगा दे तो सभी ऐसे ही उछलते है!           

Wednesday, July 10, 2013

कहीं शतरंज की बिसात उल्टी तो नहीं बिछ गई, लालू जी ?


अभी कल ही की तो बात है।  उच्चतम न्यायालय ने झारखंड की अदालत को चारा घोटाला कांड में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव से संबंधित मामले मे फैसला सुनाने से रोक दिया था। इसे लालू प्रसाद यादव के लिए एक बड़ी राहत के तौर पर देखा जा रहा है। लालू प्रसाद यादव की अपील पर कोर्ट ने यह व्यवस्था दी थी। लालू प्रसाद ने इस बिनाह पर  निचली अदालत के न्यायाधीश के प्रति पक्षपात की आशंका व्यक्त करते हुए न्यायालय में दावा किया कि सुनवाई कर रहे निचली अदालत के न्यायाधीश, नीतीश कुमार मंत्रीमंडल के एक वरिष्ठ मंत्री के रिश्तेदार है।



जब सुप्रीम कोर्ट का कल यह फैसला आया था तो कुछ अजीब सा मन हुआ था। हालांकि जो मैं सोच रहा हूँ, वह मेरी क़ानून के बारे में अल्प जानकारी की वजह से  यह संभव है कि शायद मैं गलत सोच रहा हूँ।    


चारा घोटाला में लालू को राहत : निचली अदालत के फैसला सुनाने पर रोक



उक्त फैसले के बाद कल शायद लालूजी से ज्यादा खुश कोई और रहा हो, और वे मन ही मन सोच रहे होंगे कि क्या पटकनी दी है  उन्होंने। लेकिन आज सुप्रीम कोर्ट ने लिली थॉमस केस की सुनवाई के दौरान जो ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, उससे तो मुझे यही लगता है कि हालाँकि इस खेल में लालूजी बहुत माहिर है, और यह आम धारणा है कि राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर उन्होंने चारा घोटाले से सम्बंधित अपने खिलाफ किसी फैसले को उन्होंने यहाँ तक घसीटा है।  किन्तु खुदानाखास्ता अगर आगे चलकर निचली अदालत का फैसला उनके खिलाफ गया और उन्हें अगर दो या अधिक साल की सजा मुक़र्रर की जाती है तो लालूजी तो गए काम से !! लालूजी के चेहरे की ये मुस्कराहट तो कहीं गुम होकर रह जायेगी।

आज  सर्वोच्च अदालत ने जो ऐतिहासिक फैसला दिया है, आइये एक नजर उस पर डालते है;    

अदालत ने फ़ैसला दिया है कि जिन नेताओं को दो साल या उससे अधिक की सज़ा सुनाई जाएगी, उसकी सदस्यता तत्काल रद्द हो जाएगी। इतना ही नहीं, क़ैद में रहते हुए किसी नेता को वोट देने का अधिकार भी नहीं होगा और ना ही वे चुनाव लड़ सकेंगे।  क्योंकि जेल जाने के बाद उन्हें नामांकन करने का हक़ नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट का ये फ़ैसला तत्‍काल प्रभाव से ही लागू माना जाएगा।  हालांकि आज से पहले सज़ा पा चुके लोगों पर ये फ़ैसला लागू नहीं होगा। कोर्ट ने कई जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करने के बाद ये ऐतिहासिक फ़ैसला दिया है। 

अब जब भी उनके ऊपर चल रही चारा घोटाले  से सम्बंधित जांच और अदालती कार्यवाही का फैसला यदि उनके खिलाफ गया तो बेचारे लालूजी यह अवश्य सोचगे कि काश, उनपर फैसला पहले आ गया होता, कम से कम सुप्रीम कोर्ट के इस नए फैसले से तो बच जाते  !!  इसीलिए कहा जाता हैं कि  वक्त बदलते देर नहीं लगती। 

Tuesday, July 9, 2013

वो जो कभी वादियाँ थी !



















डर लगता है वहाँ, 
बिजलियों की  कडकड़ाहट से, 
डर लगता है अब वहाँ, 
बादलों की गडगड़ाहट से। 

वीरान हुए खण्डहरों में, 
नीरवता ही पसरी पडी है,
डर लगता है वहाँ, 
चमगादडों की फडफड़ाहट से।


फिर कोई खतरे में है, 
जो फ़ौजी फ़रिश्ते आ गए, 
डर लगता है वहाँ,
पग-बूटों की ठकठकाहट से। 

फिर न जाने किसका 
आशियाना जमींदोज हुआ,
डर लगता है वहाँ,
दरकते शैलों की धडधड़ाहट से। 

सैलाब में प्रियजन खोये,
नयनों के समक्ष जिसने,
डर लगता है वहाँ, 
उस बूढ़ी माँ की बडबड़ाहट से।    

कुछ अभागे वो पात, 
जो टूटे थे आंधी में ड़ाल से,
डर लगता है उन,
शुष्क पत्तों की खडखड़ाहट से। 

वो जो दर-किवाड़ घर के,  
बने थे उजड़े दयार से, 
डर लगता है अब उनपर,
धीमी सी खटखटाहट से।

वो सिसकिया जो गूंजती है, 
वहाँ नदी के बीहड़ो में,   
डर लगता है अब उस ,  
मुक्ति-बोध छटपटाहट से।  
     

Saturday, July 6, 2013

एक भावी गजल-चल तुझे भी झेल लेंगे !

















जो साल सडसठ ठेले है  हमने, चंद और भी ठेल लेंगे,
बड़े-बड़े 'नमो'ने  झेले हैं हमने, चल तुझे भी झेल लेंगे।

है नाउम्मीदी से तो बेहतर, कुछ नए से अरमां जगाएं,
शतरंज के सब हैं खिलाड़ी, खेल नूतन फिर खेल लेंगे।

हुआ अगर नहीं भी सुचारू, आने से  तेरे आवागमन, 
है आदत हमें धकेलने की, मील चंद और धकेल लेंगे।

सिवाए झेलने और ठेलने के, हमने किया भी तो क्या,     
पापड़ ही पापड ही बेले है अबतक, कुछ और बेल लेंगे। 

क्षद्मनिर्पेक्ष बनकर राष्ट्र अपना,लूट खाया है जिन्होंने,  
सफल समझेंगे तुझे गर ये भी लोण,लकड़ी,तेल लेंगे।   
  
विधर्मी आंच में 'परचेत', फुल्के सेक जाते खुदगरज, 
सियासी इस दौर-ए-नफ़रत, हम मिलाप-ए-मेल लेंगे। 
  
     

Friday, July 5, 2013

आतुरता !

आगमन पर
मौसम-ए- बरसात,
अगर एक पौधा 

बरगद का जो मैं रोपूँ ,
तो 
हर कोई यही कहेगा;
'पागल है, नीलगिरि के रोप,
फायदे में रहेगा'।   

Wednesday, July 3, 2013

सुखी और लम्बी उम्र चाहिए? लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव लड़िये !

बहनजियों / भाभीजियों !


जी चौंकिए मत,  शीर्षक एकदम सही पढ़ा आपने। और ये नहीं कि इस रामबाण औषधि के बारे में आपको पहले से कोई जानकारी न हो। मगर क्या करे, ये कम्वख्त १२०० सालों की लम्बी गुलामी का विषाणु जो हमारी रगों में अन्दर तक घुसा हुआ है, पहले तो यह माँ-बाप को भयभीत करके उनके लाडलों को बीए, एमए करने पर मजबूर कर देता है और फिर ले जाकर खडा कर देता है किसी क्लर्क या चपरासी की भर्ती की लाइन मे, बस। यह कम्वख्त अधिकांश भारतीयों को इससे हटकर सोचने का वक्त ही नहीं देता, क्योंकि इसे तो ज्यादा से ज्यादा आम-आदमी पैदा करने में ही रूचि हैं, ताकि उन्हें यह अपने पसंदीदा, देश में मौजूद उन लुच्चे-लफंगे, जाहिल-गंवार और भ्रष्ट, महापुरुषों और महास्त्रियों के पेट का निवाला बनवा सके, जो इसके झांसे में न आकर स्कूल, कॉलेज जाने और आम-आदमी बनने के बजाये सीधे नेता बन गए। 

बहनजियों / भाभीजियों ! प्लीज, मेरी आप से विनती है कि आप हमारे   जीजाजियों / भाईजियों को यह जरूर बोलिएगा कि अबके आपके इलाके में जो भी लोकसभा/विधान सभा चुनाव हों, उसमें वे भले ही सिर्फ खुद के और अपने परिवार के निहितार्थ ही सही, किन्तु चुनाव में अवश्य खड़े हों।  क्या होगा, ज्यादा से ज्यादा  जमानत ही तो जब्त होगी। किन्तु नेता का ठप्पा तो लग ही जाएगा न। अरे, जमानत राशि का रोना छोडिये, क्या आपको मालूम नहीं है कि जमानत राशि मात्र दस हजार रूपये है। वैसे भी  हम लोग तीस-तीस हजार रूपये तो हर साल सिर्फ इन बीमा कंपनियों को मेडिकल इन्सुरेंश का प्रीमियम / संपति  के बीमें  का प्रीमियम ही भर देते हैं। और उसके बाद भी भगवान् न करे अगर खुदानाखास्ता कोई दुर्घटना हो जाये तो फिर देखिये इन बीमा  कंपनियों के नखरे, ये लाओ जी , वो लाओ। जब रिहायशी इलाकों में इनके छोड़े हुए चालाक लोमडे  बीमे  का कोई रसीला प्रस्ताव आपके समक्ष पेश करते है तो उसवक्त आपसे कोई सर्टिफिकेट नहीं मांगेगे, कोई सीधी जानकारी ( आपके काम की) नहीं देंगे।   हल्के से मुह के अन्दर ही  १२० की स्पीड में सिर्फ इतना बडबड़ायेंगे कि इन्सुरेंश इज दी सबज्क्ट मैटर आफ़ सोलिशिटेशन, बस। और आपसे कहेंगे कि आप  सिर्फ प्रीमियम का चेक हमें दे दो जी, बस । साथ ही आपका ख़ासमखास बनने का नाटक करते हुए फ्री फंड में एक-आदा उलटी सलाह यह भी दे देंगे कि अपनी उम्र दो साल कम करके दिखाओगे  तो  प्रीमियम कम पडेगा। मेडिक्लेम की एक पॉलिसी अगर आपने पहले से ही ले रखी है तो कहेगा कोई बात नहीं एक और ले लो। उस वक्त आप सोचोगे कि अरे यार इससे बड़ा शुभचिंतक तो अपना और कोई हो ही नहीं सकता इस दुनिया में।  लेकिन हकीकत का पता तब चलता है जब भगवान् न करे किसी वजह से आपको बीमे की रकम इनसे वसूलनी हो।  लोमड़े तो इस दौरान अपना मोबाइल फोन बंद करके बैठ जायेंगे , और बीमा कंपनी कहेगी कि जी अपना (बीमाधारक का ) जन्मतिथि का  प्रमाण दो, और सारे मेडिक्लेम के बिल, रसीद हमें ओरिजिनल में सबमिट करो।  तब जाकर अपनी अक्लमंदी पर तरस आता है कि पालिसी लेते वक्त, लोमडे के झांसे में आकर उम्र तो बीमा फ़ार्म में दो साल कम करके दिखाई हुई है, इनको डेट आफ बर्थ का प्रूफ क्या ख़ाक देंगे और अगर सारे ओरिजिनल बिल और भुगतान की रसीद एक बीमा कंपनी को दे देते हैं  तो दूसरी पालिसी जो दूसरी बीमा कंपनी से ले रखी है, उसको क्या सबमिट करेंगे क्लेम के लिए? दूसरी बीमा कंपनी वाला भी  ओरिजिनल बिल और रसीद ही मांगेगा क्लेम प्रोसेस करने हेतु ,यूं समझो कि  वो पालिसी तो बेकार हो गई। अस्पताल ने तो एक ही सेट इन दस्तावेजों का दिया था, और उस लोमडे ने पॉलिसी दिलवाते वक्त यह तो बताया ही नहीं था कि मेडीक्लेम की रकम आप सिर्फ एक ही बीमा कंपनी से वसूल सकते हो, एक से ज्यादा से नहीं।

कहने का आशय सिर्फ इतना है कि जिस प्रकार से हम बुरे वक्त के लिए इतनी भारी-भरकम रकम  इन्सुरेंश कंपनियों को प्रीमियम के तौर पर हर साल  इस उम्मीद में दे देते हैं कि बुरे वक्त में काम आयेगा, उसी तरह अच्छे वक्त की उम्मीद में कुछ पैसा चुनाव लड़ने पर भी लगाना चाहिए । जीत गए तो पाँचों उंगलियाँ  और सर कड़ाई में होगा और जीभ शुद्ध देशी घी में लपलपा रही होगी, वो भी कोई भी सर्टिफिकेट दिखाए वगैर ही। ओरिजिनल तो क्या वहां कोई फोटोकाफी भी नहीं माँगता।  अगर नहीं भी जीते और जमानत बचाने लायक वोट भी बटोर लिए तो जमानत के पैसे वापस मिल जायेंगे , नहीं तो सालाना भरे बीमा प्रीमियम से तो कम के ही नुकशान का गम रहेगा न। 

जानता हूँ कि अब आप ये सोच रहे होंगे कि जीजाजी / भाई जी लोग  तो संकुचायेंगे कि उनके पास नेता बनने की क्वेलिफिकेशन और क्वेलिटी तो है ही नहीं। इत्मीनान रखिये, मैं आपकी इस उलझन को भी अभी यहीं सुलझाए देता हूँ।     उनको बोलिएगा कि नेता और मंत्री बनने के लिए अपने देश में किसी भी क्वेलिफिकेशन की जरुरत नहीं होती,  अपने दांए-बाएं हाथ का अंगूठा सलामत होना चाहिए, बस। जो थोड़ी बहुत योग्यताएं चाहिए भी, वो सिर्फ इतनी भर है कि उम्र २५ से ऊपर हो, निर्दलीय  उम्मीदवार के तौर पर लड़ेंगे तो दस प्रस्तावक चाहिए (इतने तो आपके अगल-बगल पड़ोस में ही मिल जायेंगे, तुम्हारे प्रस्तावक वो बन जायेंगे और उनके तुम बन जाना)! अगर साल-डेड साल कभी जीजाजी/भाईजी लोगों ने कहीं जेल में भी काटे हो तो भी कोई चिंता की बात नहीं है। अपने देश का संविधान बहुत उदार है, वो कहता है कि अगर दो साल से ज्यादा की सजा काटी हो तो तभी आप इलेक्शन लड़ने के काबिल नही रहोगे।

अब नेता बनने के दूसरे पहलू  'क्वेलीटीज' पर आता हूँ। सर्वप्रथम आप यह देखें कि अगर वे थोड़ा बहुत लज्जावान किस्म के इंसान हैं तो उन्हें   उनके निर्लज बनने के लिए खूब प्रोत्साहित करें। बेशर्मी उनके चेहरे से हरवक्त  झलकनी चाहिए। साथ ही आप गांधीधाम से उनके लिए दो -चार खद्दर के कुर्ते-पजामे खरीद लाइए, और पास के पनवाड़ी को रोजाना घर पर दो पान देते जाने का ऑर्डर दे दो। जीजाजी/भाईजी लोग  सुबह जैसे ही नाश्ता करें उसके तुरंत बाद वह पान उनके मुहँ में ठूँस दिया करें और उन्हें ये हिदायत भी दें  कि गली से निकलते वक्त वे मुहं से थोड़ा पीक  गली में खडी किसी गाडी के बोनट के ऊपर अवश्य  डालते जांये।  ये एक अच्छे नेता की पहली निशानी होती है। गली में रोज कोई न कोई फसाद अवश्य करवाएं और वहाँ पर ये लोग खादी के कुर्ता-पजामा पहनकर पान चबाते हुए अवश्य  पहुंचें, और अपनी खूब नेतागिरी झाडें।      

नेतागिरी शब्द से याद आया, जब मैं  युवा था तो अक्सर सोचा करता था कि नेता तो अमूमन पुलिंग होते है फिर इनके साथ इनके काम(कुकृत्य) को स्त्रीलिंग का जामा क्यों पहनाया गया होगा? यानि कि नेता के साथ 'गिरी' शब्द क्यों जुडा होगा जबकि जुड़ना तो 'गिरा' शब्द चाहिए था। जब धीरे-धीरे बड़ा हुआ तो पूरी कहानी समझ में आ गई। समझ गया की यह शब्द किसी टुच्चे और चालाक किस्म के नेता के दिमाग की ही उपज रही होगी। नेतागिरी की जगह वह अगर नेतागिरा शब्द तभी इजाद कर देता तो आज तो इनके लिए आगे गिरने की गुंजाइश ही बाकी नहीं बचती। इसीलिये उस कायर ने दूर की सोचकर अपनी करतूतों को इस स्त्री-चिलमन से ढकने की कोशिश की होगी। .             

बहनजियों / भाभीजियों ! आप आज के पढ़े-लिखे इंसान हैं, नेता बनने  के क्या-क्या फायदे हैं, ये बखूबी जानते है। आजकल  समाचारों में आपने उत्तराखंड की त्रासदी के बारे में तो खूब सुना ही होगा। हजारों मर गए, लापता हो गए, लाखों ने कई-कई दिनों तक असीम कष्ट सहे, वहां से अपने घर तक पहुँचने की उस यात्रा में।  मगर  क्या आपने सुना कि अपने देश का एक भी नेता  इस त्रासदी का शिकार हुआ ? उनके तो उलटे इस त्रासदी से भाग खुल गए। इसे झेला किसने सिर्फ आम आदमी ने,  नेताओं को तो घोटाले करने और सियासत चमकाने से ही फुर्सत नहीं है ।  एक-आदा कोई जो वहाँ जाता भी तो वो भी साफ़ बचकर निकल आता।  यमराज भी सोचता होगा कि  जाने दो यार, कौन कीचड़ में पत्थर डाले। और हद देखिये कि उसके बाद एक-आदा जो वहाँ  पर थे भी, वे अपने परिचितों को ही सर्वप्रथम सेना की मुफ्त हैलीकॉप्टर सेवा का लुफ्त उठाने के लिए वहां आरक्षण देते नजर आये।

आप अपने पतियों और परिवार के सुख-समृद्धि  और लम्बी उम्र के लिए क्या-क्या नहीं करती? तरह- तरह के ब्रत (उपवास ) रखती है, कई-कई कष्ट उठाती है। मेरा यकीन मानिए की एक बार जब आपके "उनपर" भी नेता का ठप्पा लग जाएगा तो आपको भी कोई कष्ट नही उठाना पडेगा।  सब तरफ सुख ही सुख,  उलटे आपकी धाक और नखरे और भी बढ़  जायेंगे, वो अलग। जब हर घर से एक नेता चुनाव में खडा हो जाएगा तभी इन मौजूदा नेताओं को भी आम-आदमी की कीमत का अहसास होगा। इसलिए आप सभी से आग्रह है कि आप मेरी सलाह पर गौर फरमाकर इस देश को कृतार्थ करेंगे।  

आपका शुभचिंतक ,
पीसी गोदियाल "परचेत"  

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।