कुटिलता, संकीर्णता, स्वार्थ-परायणता, खुदगर्जी, अर्थोपार्जन अथवा भौतिक उपलब्धियों की दौड आज इस देश को इस मुकाम पर ले आयेगी, कभी सपने में भी नहीं सोचा था। व्यथित मन बस, मूक-दर्शक बनकर इर्द-गिर्द घटित होते वृत्तांत को सिर्फ अपने मानस-पटल पर संकलित किये जा रहा है। अब, आगे क्या होगा ? यह प्रश्न निरंतर एक गूढ़ पहेली की भांति संभावनाओं और आशंकावों का मकडजाल मन के किसी कोने में बुनने में व्यस्त है। असंयम, संयम पर निरंतर हावी होता सा प्रतीत होता है, और अन्दर की तमाम कसमसाहट शान्ति के अंतिम हथियार, यानि कलम उठाने को एक बार फिर विवश कर देती है।
कुछ साल पहले अपने इसी ब्लॉग पर फ्रांस की महान क्रांति से सम्बंधित एक लेख लिखा था। उसको लिखने से पहले जब मैं उस क्रान्ति का अध्ययन कर रहा था, तो उस क्रान्ति के केंद्र में मुझे लोगों की भूख एक बारूद का ढेर और शाही परिवार का वह सवाल कि 'खाने के लिए अगर राशन नहीं है तो ब्रेड क्यों नहीं खाते', उस बारूद के ढेर की तरफ जाती एक चिंगारी की तरह नजर आ रहे थे। उन गुस्साए लोगो की जो इमेज मैं अपने मन-मस्तिष्क पर बनाने की कोशिश कर रहा था, तो वो चेहरे मुझे स्वाभिमानी से प्रतीत हो रहे थे। और उसी सिलसिले को याद करते हुए कल, मैं नादाँ उनकी तुलना अपने देशवासियों से करने बैठ गया। उनकी तुलना करने लगा उन चंद सक्षम और स्वाभीमानी देशवासियों से, जिन्हें हर सुबह पेट खाली करने के लिए किसी भी पब्लिक टॉयलेट में कम से कम पांच रूपये सिर्फ इसलिए खर्च करने पड़ते है, क्योंकि वे उन अधिकाँश देशवासियों की तरह, जो स्त्री,पुरुष, बच्चे सभी किसी सड़क और रेलवे लाइन के किनारे कतार में बैठकर, सर झुकाकर पेट खाली नहीं कर सकते। और ऊपर से सत्ता में बैठे उनके रहनुमा उनके साथ यह क्रूर मजाक करते हैं कि तुम आज के इस भयानक महंगाई के दौर में भी एक रूपये में भरपेट भोजन कर सकते हो। अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता हूँ कि शायद हमारे ये तथाकथित रहनुमा पक्के तौर पर आश्वस्त है कि हिन्दुस्तानियों में फ्रांसीसियों जैसे गट्स नहीं हैं।
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कक्षा ५ की किताब में सम्मिलित हुए एक और गांधी ! |
तीन-तीन प्रत्यक्ष और एक परोक्ष गुलामी झेली भी तो क्या, चाटुकारिता और चरण वंदना में फिर भी हमारा कोई सानी नहीं है। हमने और हमारे पूर्वजों ने बड़े-बड़े तगमे हासिल किये है, जिनपर हमें गर्व है। और इसी सिलसिले को हम आगे भी बखूबी बढ़ा रहे है, अपने दिलों में यह सकारात्मक उम्मीद पाले हुए कि हमारी इस स्वामिभक्ति और चाटुकारिता का एक न एक दिन हमें कोई मीठा फल किसी बड़े साहित्यिक पुरूस्कार, यहाँ तक कि भारत-रत्न के जैसे देश के सर्वोच्च पुरूस्कार के रूप में भी प्राप्त हो सकता है। ये बात और है कि रत्न बन जाने के बाद हम रत्न की तरह अपना हाव -व्यवहार भी बनाते है या फिर गली , कूचे में किसी ठेली वाले की तरह आवाज लगाते फिरें कि ये लेलो और वो मत लो, या मुझे ये पसंद है तुम भी यही खरीदो। आश्चर्य होता है यह देख, सोचकर कि कैसे ये लोग इतनी बड़ी हस्ती बने, कैसे इन्होने देश और राज्यों की न्यायपालिका और कार्यपालिका के सर्वोच्च पदों पर १०-१०, पंद्रह-पंद्रह साल तक काम किया? दहशतगर्दों के लिए तो इनके दिल में सम्मान है किन्तु उसके लिए कोई सम्मान नहीं है जिसने देश के खातिर अपनी कुर्बानी दे दी।
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उत्तराखंड में मलवे में सडती लाशें ! |
कहने को हम एक लोकतांत्रिक देश है, मगर आज कहीं कोई कर्तव्य-परायण सरकार नजर आती है क्या आपको जो जनता के प्रति वाकई जबाब देह हो? जले पर नमक छिड़ककर नसीहत देते हैं, गुस्सा अच्छी चीज नहीं है। अधिकार तो इन्होने सब अपने पास बखूबी समेट लिए, किन्तु कर्तव्य भिन्न-भिन्न इकाइयों में बाँट दिए है, ताकि इसका दोष उसके सर मढ़ा जा सके और जिम्मेदारी किसी की न रहे। भिन्न-भिन्न में फंड वितरित कर दो, तू भी खा और मुझे भी खाने दे, बस, हो गई कर्तव्य की इतिश्री!
शिखर - पत्थरों में अगर हम, आत्मा न ढूढ़ते,
मंदिर - मस्जिदों में जाकर, परमात्मा न ढूढ़ते।
फिर होती ही क्यों आज,हालत ये अपने देश की ,
हर एक गाँधी में अगर हम, "महात्मा "न ढूढ़ते।
लुंठक-बटमार, इस कदर न बेच खाते वतन को,
आचार-सदाचार का अगर हम,खात्मा न ढूढ़ते।
सड़क-कूचों में न चलता, पशुता का नग्न नाच,
सूरतों में अगर हम, पद्मा व फातमा न ढूढ़ते।
सजती न यूं तिजारत 'परचेत', पीर,फ़कीरों की,
हर पंडित, मुल्ला, पादरी में, धर्मात्मा न ढूढ़ते।