डर लगता है वहाँ,
बिजलियों की कडकड़ाहट से,
डर लगता है अब वहाँ,
बादलों की गडगड़ाहट से।
वीरान हुए खण्डहरों में,
नीरवता ही पसरी पडी है,
डर लगता है वहाँ,
चमगादडों की फडफड़ाहट से।
फिर कोई खतरे में है,
जो फ़ौजी फ़रिश्ते आ गए,
जो फ़ौजी फ़रिश्ते आ गए,
डर लगता है वहाँ,
पग-बूटों की ठकठकाहट से।
पग-बूटों की ठकठकाहट से।
फिर न जाने किसका
आशियाना जमींदोज हुआ,
आशियाना जमींदोज हुआ,
डर लगता है वहाँ,
दरकते शैलों की धडधड़ाहट से।
दरकते शैलों की धडधड़ाहट से।
सैलाब में प्रियजन खोये,
नयनों के समक्ष जिसने,
नयनों के समक्ष जिसने,
डर लगता है वहाँ,
उस बूढ़ी माँ की बडबड़ाहट से।
उस बूढ़ी माँ की बडबड़ाहट से।
कुछ अभागे वो पात,
जो टूटे थे आंधी में ड़ाल से,
जो टूटे थे आंधी में ड़ाल से,
डर लगता है उन,
शुष्क पत्तों की खडखड़ाहट से।
शुष्क पत्तों की खडखड़ाहट से।
वो जो दर-किवाड़ घर के,
बने थे उजड़े दयार से,
बने थे उजड़े दयार से,
डर लगता है अब उनपर,
धीमी सी खटखटाहट से।
धीमी सी खटखटाहट से।
वो सिसकिया जो गूंजती है,
वहाँ नदी के बीहड़ो में,
वहाँ नदी के बीहड़ो में,
डर लगता है अब उस ,
मुक्ति-बोध छटपटाहट से।
मुक्ति-बोध छटपटाहट से।
सही कहा है आपनें चारों और दहशत व्याप्त है !!
ReplyDeleteटूटी सड़कें, टूटे छप्पर, टूटे मंदिर , इक दिन फिर बन जायेंगे ,
ReplyDeleteडर लगता है बेटे की बाट जोहती, दुखी माँ की फुसफुसाहट से।
मार्मिक स्थिति है गोदियाल जी ।
कुछ जगहों पर की तो कमोवेश बड़ी दर्दनाक स्थिति है डा० साहब !
Deleteसैलाब में प्रियजन खोये,नयनों के समक्ष जिसने,
ReplyDeleteडर लगता है वहाँ, उस बूढ़ी माँ की बडबड़ाहट से।
वो सिसकिया जो गूंजती है परचेत नदी के बीहड़ो में,
मिलेगी कब न जाने उनको, मुक्ति छटपटाहट से।
बहुत ही मार्मिक और साथ ही सटीक भी.
रामराम.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति...
मुझे आप को सुचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक 12-07-2013 यानी आने वाले शुकरवार की नई पुरानी हलचल पर भी है...
आप भी इस हलचल में शामिल होकर इस की शोभा बढ़ाएं तथा इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और नयी पुरानी हलचल को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी हलचल में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान और रचनाकारोम का मनोबल बढ़ाएगी...
मिलते हैं फिर शुकरवार को आप की इस रचना के साथ।
जय हिंद जय भारत...
मन का मंथन... मेरे विचारों कादर्पण...
आभार कुलदीप जी !
Deleteवो सिसकिया जो गूंजती है परचेत नदी के बीहड़ो में,
ReplyDeleteमिलेगी कब न जाने उनको, मुक्ति छटपटाहट से।
वाह वाह !!! बहुत उम्दा गजल ,,,
RECENT POST: गुजारिश,
बहुत मार्मिक और संवेदनशील रचना ..... वाकई अब तो पहाड़ पर अधिक बारिश से डर लगता है ।
ReplyDeleteदर्दनाक हादसा..... सुंदर अभिव्यक्ति .......!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बुधवार (10-07-2013) को निकलना होगा विजेता बनकर ......रिश्तो के मकडजाल से ....बुधवारीय चर्चा-१३०२ में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यथावत-
ReplyDeleteबढ़िया है भाई जी |
शुभकामनायें-
वो सिसकिया जो गूंजती है परचेत नदी के बीहड़ो में,
ReplyDeleteमिलेगी कब न जाने उनको, मुक्ति छटपटाहट से।
..बहुत मार्मिक चित्रण .....ऐसे दुखद क्षणों में कुछ कहने नहीं बनता ..
सारे दृश्य एक दुखद अध्याय बाँच रहे हैं।
ReplyDeleteमन खिन्न है श्रीमान। आपने गहरा मर्म प्रस्तुत कर दिया आपदा उपरान्त का, पढ़ कर विचित्र लगता है।
ReplyDeleteएक सिहरन सी फ़ैल गयी, बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteवीरान हुए खण्डहरों में,
ReplyDeleteनीरवता ही पसरी पडी है,
डर लगता है वहाँ,
चमगादडों की फडफड़ाहट से।