पिछली होली के बाद के एक कवि सम्मलेन की यादे;
कवि महोदय जगह-जगह पर सुई धागे से भद्दे ढंग से तुल्पे, सफ़ेद कुर्ता-पजामा पहने, चेहरे पर काफी खिन्नता लिए, गुस्से में मंच पर आये, और माथे का पसीना फोंझते हुए माइक थाम कर कविता गायन करने लगे;
फाड़ दिया....
फाड़ दिया.....
फाड़ दिया सालों ने ......
"अरे कविवर, क्या फाडा ? आगे भी बढो, आप तो यही पर अटक गए", दर्शक दीर्घा से एक आवाज आई तो कविवर आगे बढे ;
याद है, जब तुम
पिछली बार,
मायके से आयी थी,
वह गिफ्ट मेरे लिए लाई थी,
सुन्दर, सफ़ेद चटकीला था.
न ज्यादा टाइट था,
और न ही ढीला था,
मगर इस होली पर उसे,
जो दिया था तुम्हारे मायके वालो ने !
मुझपर रंग मलने के बहाने,
फाड़ दिया.....फाड़ दिया.....फाड़ दिया सालो ने !!
कितना निखरता था,
मेरे गठीले बदन पर,
और तुम कहती थी ,
जब आप उसे पहन कर,
किसी कवि सम्मलेन में जाते हो,
सच में,
तुम मंच पर,
और कवियों से,
एकदम अलग नजर आते हो,
मगर इस होली पर,
गली-मोहल्ले, ठेके के दलालों ने!मुझपर रंग मलने के बहाने,
फाड़ दिया.....फाड़ दिया.....फाड़ दिया सालो ने !!
मुझे याद है तुमने,
कितने प्यार से,
वो मुझे दिया था,
और तुम्हारी उस भेंट को,
मैंने भी खुशी -खुशी कबूल किया था,
दिल नहीं लगता,
जबसे तुम फिर से मायके गई हो,
ख़त लिखकर बताना
अबके कब लौट रही हो ?
अपने पापा, यानी
मेरे ससुर जी को भी बता देना,
कि इस होली पर,
इस बस्ती के कंगालों ने !मुझपर रंग मलने के बहाने,
फाड़ दिया.....फाड़ दिया.....फाड़ दिया सालो ने !!
व़र्तमान में ऐसे ही कवि सम्मेलन है। जनता भी ऐसे ही फाड़-फूड का पसन्द करती है। रचना के माध्यम से सशक्त व्यंग्य।
ReplyDeleteसशक्त व्यंग्य। मजा आ गया.
ReplyDeleteमिल कर बस्ती के कंगालो ने
ReplyDeleteनया कुड़ता फ़ाड़ दिया सालो ने
जब कुरता ही सालों ने दिया था,
तो वो फ़ाड़ने का हक भी रखते हैं
जीजा को ऐसे ही थोड़े घुमने देन्गे,
उसका इंतजाम भी करेंगे-रक्षा बंधन तक
तब तक के लिए विश्राम,अगर कुर्ता एक ही था तो,
बहुत बढिया व्यग्य आज कल की पब्लिक कवि सम्मेलनो मे यही चाहती है -हल्का-फ़ुल्का-जायकेदार-चटखारे वाला
मिल कर बस्ती के कंगालो ने
ReplyDeleteनया कुड़ता फ़ाड़ दिया सालो ने
जब कुरता ही सालों ने दिया था,
तो वो फ़ाड़ने का हक भी रखते हैं
जीजा को ऐसे ही थोड़े घुमने देन्गे,
उसका इंतजाम भी करेंगे-रक्षा बंधन तक
तब तक के लिए विश्राम,अगर कुर्ता एक ही था तो,
बहुत बढिया व्यग्य आज कल की पब्लिक कवि सम्मेलनो मे यही चाहती है -हल्का-फ़ुल्का-जायकेदार-चटखारे वाला
"दिल नहीं लगता,
ReplyDeleteजबसे तुम फिर से,
मायके गई हो,
ख़त लिखकर बताना
अबके कब लौट रही हो ?"
दिल कैसे लगेगा भाई जब "फाड़ दिया सालो ने"!!
SACHMUCH FAAD DIYA SAALON NE
ReplyDeleteAAZAADI KE BAASATH SAALON NE
NETA KI DUSHPARINAMI CHAALON NE
FAAD DIYA
FAAD DIYA
FAAD DIYA
HARAMKHORON NE
POORAA KA POORAA UGHAAD DIYA
अपने पापा, यानी
ReplyDeleteमेरे ससुर जी को भी बता देना,
कि इस होली पर,
बस्ती के कंगालों ने !
मिलकर रंग मलने के बहाने,
फाड़ दिया.....
फाड़ दिया सालो ने !!
बहुत धारदार व्यंग्य किया है गोदियाल जी।
बधाई!
हा हा हा हा बड़ा फाडू कविता है
ReplyDeleteमिल कर बस्ती के कंगालो ने
ReplyDeleteनया कुड़ता फ़ाड़ दिया सालो ने ।।
वाह्! एकदम धारदार्!
वैसे ललित जी का कहना सही है कि जब दिया ही सालों नें था तो फिर उसे फाडने का हक तो वो रखते ही हैं :)
जय हो................
ReplyDeleteक्या फड़वाया... और फिर सब को बताया...
अजी कवि मोहदय साफ़ साफ़ क्यो नही कहते बीबी से दो तीन जोडे आती बार लेती आना..... पहले वाला तो .... फ़ाड.....
ReplyDeleteबहुत सुंदर जनाब
बहुत ही अच्छा शब्द संयोजन, बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteफाड़ दिया सालो ने !!
ReplyDeleteप्रचार करे रहो ...ससुर जी दूसरा भिजवाइ देंगे ...
Adarniya Godiyal ji.....
ReplyDeleteaapne to daraa hi diya tha.....
रंग मलने के बहाने आपका कुर्ता फ़टा है
ReplyDeleteआपने तो खरीदा नही था आपका क्या घटा है
सुन्दर कविता
ReplyDeleteनमस्कार
फाड़ दिया.....
ReplyDeleteफाड़ दिया सालो ने !!
ये भी खूब रही ....
मजेदार
एकदम फ़ाड़ू रचना है ये और महान कवि फ़ाड़ेखां को इस फ़टेहाल का सलाम। सटीक।
ReplyDeleteछूट मंचीय रंग...खूब ताली खींचती है ...सटीक दिया.
ReplyDeleteअनिल पुसाद्कर से सहमत
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