आपको याद होगा कि इस साल की शुरुआत के पहले दिन, यानि १ जनवरी, २०१० को हमारे गृहमंत्री ने पाकिस्तान को यह नसीहत दी थी;
" नयी दिल्ली १ जनवरी, 2010: केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने पाकिस्तान से मांग की कि वह अपनी जमीन पर संचालित होने वाले आतंकवादी ढांचों को नेस्तानाबूद करे. श्री चिदंबरम ने यहां कहा कि पाकिस्तान आतंकवादी ढांचो को खत्म करे.......... पाकिस्तान में आतंकवादी ढांचों की मौजूदगी को लेकर चिंता जताते हुए गृहमंत्री ने मांग की कि इन ढांचों को तत्काल नेस्तानाबूद किया जाना चाहिए."
इस खबर से यह तो स्पष्ट होता है कि दूसरों को नसीहत देना कितना आसान काम है और हम उसमे कितने माहिर है।लेकिन जब उन नसीहतों को अपने पर लागू करने की चुनौती आती है तो हम नैतिक मूल्यों की बात करने लगते है । ऐसा भी नहीं कि ये नसीहते हमारे शीर्षस्थ नेतावों ने पहली बार ही दी हो, इतिहास गवाह है कि उन्हें जब-जब मौक़ा मिला, तालिवान और पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर प्रान्तों में फैले कबायली सरदारों के आतंकवादी संगठनों पर भी उन्होंने जमकर बयानबाजी की। और दूसरी तरफ इनके अपने देश में क्या हो रहा है, माओवादी और नक्सली आतंकवादी यहाँ क्या कर रहे है, और इसको रोकने के लिए हमारे ये जिम्मेदार नेता कितनी जिम्मेदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे है, वह सर्वविदित है।
पाकिस्तान और भारत का एक शर्मनाक तुलनात्मक अध्ययन करें तो हम पायेंगे कि जिस पाकिस्तान को हम बुरा-भला कहने, कोई भी दोष मडने से नहीं चूकते, वह फिर भी हमसे बेहतर स्थिति में है। पाकिस्तान तो फिर भी इस आतंकवाद के सहारे कुछ अर्जित कर रहा है, हमने तो केवल और केवल गंवाया ही है। इस आतंक की बलि-बेदी पर भेंट होने वालो को हमारी सरकार मुआवजे का आश्वासन और यह घृणित कृत्य करने वालो को बस कुछ कोरी भभकिया देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती है, और फिर सुरु होता है एक और इसी प्रकार की कहानी दोहराए जाने का इन्तजार ।
* हम कहते है कि पाकिस्तान आतंकवाद का गढ़ है, तो क्या हमारे देश में नक्सल-माओ, हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आतंकवाद नहीं है?
* अगर हम कहते है कि पाकिस्तान अपने पश्चिमोतर प्रान्तों को नियंत्रित कर पाने में असफल है, तो हम अपने इस नक्सल आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों को नियंत्रित कर पाने में कितने सफल है ?
* हम आरोप लगाते है कि वहाँ का आतंकवाद सरकार, राजनितिक और आई एस आई पोषित है, तो क्या यह भी बताने की जरुरत है कि यहाँ का नक्सल-माववादी आतंकवाद किसके द्वारा पोषित है ?
* और सिर्फ यह कह भर देना कि विश्व में आतंकवाद पाकिस्तान से संचालित है, हमें इन आरोपों से मुक्त नहीं कर देता कि हमारे पड़ोसी देशो श्रीलंका, नेपाल, भूटान , बांग्लादेश और यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी आतंकवाद पैदा करने में हमारी भूमिका का दोष मडा है।
* तालिबानी आतंकवाद का तो हम जमकर विरोध करते है लेकिन कोई यह देखने की कोशिश भी करता है कि तालिबानी और नक्सली आतंकवाद में फर्क क्या है ? जैसा भी घृणित कृत्य, चाहे वह स्कूल भवनों को उडाना हो, संचार और यातायात तंत्र को नुकशान पहुंचाना हो, निरीहों पर अत्याचार करना हो, तालिबानी करते है, वही सब तो ये नक्सली आतंकवादी भी कर रहे है।
आज जब इस देश में लाल आतंकवाद बुरी तरह अपनी जड़े जमा चुका है, और न सिर्फ क्षेत्रीय बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक गंभीर चुनौती बन गया है। तो ऐसे वक्त में भी हमारे ये नेतागण इसमें अपने लाभ-हानि का चिटठा ढूंढ रहे है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अप्रत्यक्ष तौर पर हमारे अधिकाँश नेतागण इसे अपने लिए एक कुबेर के खजाने और जनता की दृष्ठि भर्मित करने का एक पुख्ता उपाय मानते है। नक्सलवाद के नाम पर उन क्षेत्रों, जहां नक्सलवाद मौजूद है, देश के खजाने से मोटी रकमें विकास के नाम पर लूटने का अवसर प्रदान करती है, क्योंकि इन्हें मालूम है कि उन क्षेत्रों में जाकर किसी की यह देखने की हिम्मत नहीं कि जो पैसा सरकारी खजाने से भेजा गया था, वह इस्तेमाल कहाँ हुआ ? दूसरी तरफ यह फायदा भी है कि इन नक्सली कृत्यों की वजह से जनता का ध्यान सरकार की कमियों,खामियों और ज्वलंत मुद्दों से बँट जाता है। और ये नेतागण समय-समय पर परस्पर विरोधी बयान देकर लोगो को बर्गलाने का पूरा प्रयास करते है।
दूसरी तरफ ये नक्सली नेता जिनकी सिंचाई की जमीन बिहार, बंगाल , उड़ीसा , छत्तीसगढ़ , आन्ध्र प्रदेश और एम् पी से लेकर दक्षिणी दिल्ली की पॉस कालोनियों एवं यहाँ के एक नेहरु के नाम पर चलाई जा रही वामपंथ की दूकान तक फैली है, अपनी इस कायरतापूर्ण हरकत को सही ठहराने के लिए ये देशद्रोही दलील देते है कि गरीबी, भूख, बीमारी और निर्वासन जनता के बीच असंतोष को पहुंचाता है। आजादी के ६० से अधिक वर्षों के गुजर जाने के बावजूद भी सरकार ने इनके लिए स्कूलों के रूप में इतनी अच्छी सुविधाएं प्रदान नहीं की, तथा शिक्षा, स्वच्छता, शहरी और अर्द्ध शहरी क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाए मुहैया कराने में सरकारी तंत्र विफल रहा है। क्या ये इस बात का जबाब दे पाएंगे कि उपरोक्त राज्यों में रोज कोई न कोई स्कूल , रेलवे स्टेशन, चिकत्सालय और अन्य सरकारी भवनों को ये बारूद से उडा रहे है, तो परिणाम क्या होगा ? प्रगति रुकेगी, इनके बच्चे स्कूल नहीं पढ़ पायेगे, इसलिए वे भी कल बन्दूक उठाकर नक्सली बनेगे। इनके बीबी बच्चो को उचित चिकित्सकीय सहायता नहीं मिलेगी क्योंकि डॉक्टर को भी अपनी जिंदगी प्यारी है, इस लिए इनके इलाको में कौन जायेगा? और कल फिर ये कायर खाते पीते तबके के तथाकथित लाल मानसिकता के बुद्धिजीवी देश और दुनिया को दोष देने के लिए यह बौद्धिक पाखण्ड करने लगे कि ये आदिवासी पिछड़ गए, तो जो ये कर रहे है क्या वह उचित है ? उन अनपढ़-गवार आदिवासी लोगो को, उनकी भावनावो को ये अपना करूणामई संगीत सुना-सुना कर भड़काते रहेंगे तो वे सुधरेगे कहा से?
जिन पर देश को चलाने की जिम्मेदारी है, तुच्छ स्वार्थों के लिए अगर आज वे कहते है कि चूँकि ये नक्श्ली अपने ही लोग है अत: अपने ही देश के भीतर हम अपने लोगो पर बल प्रयोग नहीं कर सकते, तो मैं पूछना चाहूँगा कि क्या नगा, मिजो और मणिपुरी तथा असमी लोग किसी गैर-मुल्क के लोग थे ? अमृतसर और स्वर्ण मंदिर किसी विदेशी मुल्क में था ? आज जब कभी कोई आन्दोलन कर रहा होता है और भीड़ अगर अनियत्रित हो जाए तो आपका पुलिस बल गोली चलाकर कई लोगो को मार देता है, उसवक्त क्या आप ये देखते है कि कौन उपद्रवी है और कौन आम नागरिक? यदि नहीं तो फिर नक्श्लियों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, यह ढकोसलेबाजी क्यों? कितना हास्यास्पद है कि हमारी सेनाओं के प्रमुख कहते है कि हम अपने लोगो के खिलाफ टैंक, कैनन और मिसाइल इस्तेमाल नहीं कर सकते।जानकार अच्छा लगता है कि अपनी निष्क्रियता छुपाने के लिए 'अपने लोगो " को ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है , मगर यह किससे पूछा जाए कि जो हजारों लोग इन नक्सलियों की वजह से अब तक मौत के मुह में जा चुके, वो किसके लोग थे ?
ठीक है , यदि इनके खिलाफ सेना का पूर्ण इस्तेमाल करना उचित नहीं तो आंशिक इस्तेमाल तो किया ही जा सकता है ? हमारे अर्धसैनिक बलों की तादाद में भी पिछले एक दशक में कई गुना वृद्धि हो चुकी है , उनका सही और पूर्ण इस्तेमाल करते हुए जब वे मोर्चे पर नक्सलियों से लड़ रहे हों तो उन्हें वायु सेना तो अपने लड़ाकू हैलीकॉप्टरों से मदद कर सकती है? अर्धसैनिक बलों को आप उचित प्रशिक्षण और हथियार तो मुहैया करा सकते है ? यहाँ एक मंत्री के साथ २०-२५ कारों का काफिला गुजरता है (बेवजह) और यह जानते हुए भी कि वहाँ कदम-कदम पर मौत बिछी है , क्यों इतने सारे जवानो को एक ही ट्रक में ठूंस दिया जाता है ? डीजल ज्यादा कीमती है या फिर एक जवान की जान ?
सी आर पी ऍफ़ की ६२ वीं बटालियन पर हाल में हुआ हमला एक आपदा थी, जो इन्तजार कर रही थी।माओवादी सिर्फ आसान निशानों पर ही हमला करते है क्योंकि वही इन कायरों की मूल योग्यता है। अपने कार्य नैतिकता और जमीनी स्तर पर कमजोर नेतृत्व की वजह से सी आर पी ऍफ़ भी उनके लिए एक आसान निशाना है। और जैसा कि आप लोग भी जानते होंगे कि मध्यम और उच्च स्तर पर इनका नेतृत्व आईपीएस लॉबी के हाथ में होता है, जिन्हें सैन्य और अर्धसैन्य मामलों की ख़ास जानकारी नहीं होती, और वे वहीं तक योग्य है जहां तक वे प्रेस कौन्फेरंस में कुछ चटपटा बयान दे और जनता की भावनाओं से खेले। जबकि उन्हें करना यह चाहिये था कि जो एक चुनौती भरा काम उन्हें मिला है, उसे सही से अंजाम तक पहुंचाए। अगर आज दंतेवाडा इतनी परेशानी पैदा कर रहा है तो निश्चित रूप से स्थानीय, राज्य और केन्द्रीय खुफिया मशीनरी का ढाचा वहाँ बुरी तरह ढह गया है ।
आज जरुरत है , हर उस जिम्मेदार नागरिक को यह बात भली प्रकार से समझने की कि किसी भी समस्या को अगर ज्यादा देर तक अनदेखा किया जाता रहे तो वह बाद में बिकराल रूप धारण कर लेती है । थाईलैंड इस बात का ताजा उदाहरण है कि कैसे वहाँ लाल कमीज वाले आन्दोलनकारियों ने उस देश को अराजकता के दौर में धकेल दिया है। किन्तु इस देश में शीर्ष पर विराजित अपार वैभव सम्पन्न विभूतियों की नपुंसकता को दूर करने का कोई रामबाण उपाय फिलहाल नहीं सूझता।बस अफ़सोस इस बात का है कि देश अपना चरित्र खोता जा रहा है। अंत में यही कहूँगा कि अभी भी वक्त है Force should be met with force, and the blackmailers should be made to understand that they cannot blackmail society with their killing.
चलते-चलते ये चार कविता की लाइने भी ;
खुद को यथेष्ट
भ्रष्टाचार के दल-दल में डुबो रहे है,
ये नुमाइंदे
आजकल बेफिक्री की नीद सो रहे है !
खाने को लूट की दौलत,
पीने को जनता का खून,
भागीरथ की
मुफ्त की गंगा बह रही,ये हाथ धो रहे है !!
जनता से उगाहे कर से ही
चलता सब काम इनका,
चाक-चौबंद सुरक्षा ऐसी,
घुस न पाए घर में तिनका !
जिन्होंने पैदा किये
अपने वीर सपूत देश के खातिर,
उन्हें इनके तुच्छ
मंसूबों की बलिबेदी पर खो रहे है!!
देश में अब खून की होली
हर रोज खेली जा रही,
जन-अश्रुओं को ये
नोटों की माला में पिरो रहे है!
खुद को यथेष्ट
भ्रष्टाचार के दल-दल में डुबो रहे है,
ये नुमाइंदे
आजकल बेफिक्री की नीद सो रहे है!!