मानचित्र पर किल्क कीजिये
अभी चंद रोज पहले मैंने एक लेख ज्योतिषी और भविष्य बाणी से सम्बंधित लिखा था! और जिसमे मैंने गलती से यह दावा कर दिया था कि मैं लगभग सभी विषयों पर लिख चुका हूँ ! लेकिन बाद में घुमक्कड़ी के चैम्पियन , मस्तमौला श्री नीरज जाट जी की एक टिपण्णी प्राप्त हुई , जिसमे उन्होंने मेरे दावे को यह कहकर ख़ारिज कर दिया था कि आपने घुमक्कड़ी पर कुछ भी नहीं लिखा! बाद में मैंने भी रिअलाइज किया कि वास्तव में अभी बहुत से ऐसे क्षेत्र है, जिनको हमने छुआ ही नहीं ! नीरज जी से वादे के हिसाब से आज एक पोस्ट घुमक्कड़ी पर लगा रहा हूँ ! चूँकि यह करीब २२ साल पुरानी बात है, और एल्बम को टटोलने पर जो फोटो मेरे हाथ लगे, उन्हें यहाँ लगा रहा हूँ, हालांकि तस्वीरे पुरानी होने की वजह और कैमरे की गुणवत्ता के हिसाब से बहुत साफ़ नहीं है! फिर भी उम्मीद करता हूँ कि आप थोड़ा बहुत लुफ्त उठाएंगे ! आपने हाल ही में तो नीरज जी के सहयोग से यमनोत्री के दर्शन किये थे तो मैंने सोचा कि क्यों न आपको गंगोत्री के दर्शन करवाऊ !
१० अगस्त ,१९८८ , २२ से २५ साल की उम्र के हम चार लोगो की मित्र-मंडली ( मैं, विपिन सोनी , बलवंत और श्रीनिवास, रास्ते में एक और अनजान मित्र जुड़ गया जो कि तब कहीं ओखला में कोकाकोला में कार्यरत थे और वे भी गौमुख ही जा रहे थे, इसतरह हम लोग पांच हो गए थे ) दिल्ली से ऋषिकेश की रात्रि बस सेवा से रवाना हुए! सुबह ३ बजे ऋषिकेश पहुंचे तो हल्की बारिश ने हमारा स्वागत किया! रोडवेज बस अड्डे से सीधे टीजीएम्ओ के बस अड्डे पहुंचे ! वहाँ से गंगोत्री जाने के लिए जब टिकट खिड़की पर पहुंचे तो कलर्क महोदय बोले की बारिश की वजह से रास्ते ठीक नहीं है, अभी सिर्फ बडकोट और उत्तरकाशी के बीच में ज्ञानसू के पास एक बड़े भूसंख्लन की खबर है, अगर आप फिर भी जाना चाहते है, तो गाडी जहाँ तक जायेगी, उसके आगे का किराया आपको वापस कर दिया जाएगा ! आज की बात होती तो शायद हम ऋषीकेश से ही लौट आते मगर तब हम भी नीरज जी की तरह ही मस्तमौला थे, सो चल पड़े ! ज्ञानसू के पास बहुत बड़ा पहाड़ टूटकर सड़क पर आया हुआ था, अत: ड्राइवर-कंडक्टर ने बसों को लौट-पौट करने का निर्णय लिया ! यानि कि सड़क पर पड़े मलवे के उस पार खडी जो बस गंगोत्री से सवारी लेकर आयी थी, वो ऋषिकेश की बस द्वारा लाई गई सवारियों को लेकर वापस गंगोत्री जायेगी और जो बस ऋषिकेश से आई थी, वो वहीं से वापस ऋषिकेश !
हमें उनके इस निर्णय से बड़ा शुकून मिला और झटपट उस बस में जा बैठे ! मगर परेशानी आगे और भी आने वाली थी ! उत्तरकाशी से मुश्किल से ३०-३५ किलोमीटर आगे ही बढे होंगे कि एक और भयंकर लैंडस्लाइड ! भयंकर इसलिए भी थी उसके मलवे के नीचे डीजीबीआर (बौर्डर रोड और्गनाइजेशन ) का एक बुलडोजर चालक समेत दब गया था! डीजीबीआर के जवान और मजदूर उसे बाहर निकालने के लिए वारफूट पर काम कर रहे थे ! अब फिर से वही तरकीब अपनाई जाये जो ज्ञानसू के पास अपनाई गई थी, यानि बसों का लोट-पोट ! वही किया गया, मगर अबके भीड़ बढ़ गई थी क्योंकि सवारियां इधर से दो बसों की थी और उधर सिर्फ एक ही बस थी! किसी तरह सभी यात्रियों को एडजस्ट किया गया, लेडिजों, बच्चों, बूढों को सीट और जवान लोगो को स्टैंडिंग, कुछ स्थानीय सवारियां बस की छत में भी बैठ गई !
बस धीरे-धीरे आगे बढ़ी ! तब जवान थे, बोलने में मुह नहीं थकता था, श्रीनिवास मित्र दूर पहाड़ों पर बने पहाडी मकानों को देखकर मुझसे बार-बार पूछता , यार वहाँ लोग रहते है क्या ? मैं ज्यों ही हाँ में जबाब देता या अपनी सफाई देता त्यों ही विपिन सोनी पूछ बैठता , अच्छा ये बता, ये पहाडी खाते क्या है ? चूँकि मैं पहाड़ों का ही रहने वाला हूँ तो मैं भी पूरी ईमानदारी से उन्हें वहाँ के रहन सहन की विस्तृत जानकारी देता! खामोश और सुनशान पहाड़ों के बीच से निकलती हमारी बस की आवाज ही हमारे कानो में गूंजती थी! बीच में एक जगह पर जहां पर कि इस पहाडी से उस पहाडी पर जाने के लिए सैकड़ों फिट गहरी अंधेरी खाई ( वहाँ शायद ही कभी धूप जा पाती होगी ) के ऊपर से एक संकरा लोहे का पुल था, ज्यों ही बस गुजरी , नीचे देख कई यात्रियों की कंपकंपी छूट गई ! वहाँ से थोड़ी ही दूरी पर एक और हल्की लैंडस्लाइड हो रखी थी, मगर डीजीबीआर ने उस मलवे को समतल कर बस जाने लायक बना दिया था ! हमारी बस ४५ डिग्री की ढलान लेते हुए जब उस मलवे से गुजर रही थी तो बस में सवार ज्यादातर मराठी यात्रियों के प्राण सूख रहे थे! एक अजीब सी खामोशी थी, कि कड़क और पंजाबी अंदाज में प्यारी सी स्टाइल में बोलने वाले विपिन सोनी ने कहा ; "यार मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई", उसकी इस हरकत पर तुरंत बलवंत बोला ' चुप बे स्साले ....." और फिर ज्यों ही बस ने वह मालवा पार किया एक जोर का ठहाका बस में सवार उन सभी यात्रियों ने लगाया जो उस समय उसकी उस मासूमियत भरी बात को सुनकर खामोश उसका मुह त!क रहे थे!
उसके बाद बस भटवाडी में चायपानी के लिए रुकी , और फिर रात करीब आठ बजे हम गंगोत्री पहुँच गए! वहा जहां पर भागीरथी एक फाल के तरह गिरती है उसपर बने पुल को पार कर हम गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट-हाउस में रात को रुके ! सुबह उस गेस्ट हाउस के कर्मचारी ने हमें जगाया और कहा कि यदि आप लोग गरम पानी से नहाना चाहते है तो गर्म-पानी भी मिल जाएगा! नाह-धोकर हमने गंगोत्री मंदिर के दर्शन किये और फिर चल पड़े २१ किलोमीटर लम्बी गौमुख की दुर्गम और थकाऊ पैदल यात्रा पर! रास्ते में अनेक मनोहारी एवं भयावह तस्वीरे आँखों को देखने को मिली ! करीब ढाई बजे हम गौमुख पहुँच गए थे! वहाँ पर ऑक्सीजन की कमी की वजह से गले की नसे बंद सी होने लगी थी, दम घुटे जैसा लग रहा था! बलवंत तो रो भी पडा था, उसे किसी तरह हमने समझाया बुझाया और वहाँ मौजूद एक चाय की झोपडी नुमा दूकान से उसे गरमागरम २ कप चाय पिलाए और गरम राख उसके गले पर मली ! थोड़ी देर मौजमस्ती करने के बाद हम करेब ३-4 कलोमीटर पीछे लाल बाबा के आश्रम भुज्बासा में रात बिताने को पहुंचे! उन बिषम परिस्थितियों में भी उस बाबा ने वहा यात्रियों के लिए आश्रम में बहुत अच्छा इंतजाम किया हुआ था! रात को बाबा से यह कहानी भी मालूम पड़े कि गौमुख ग्लेशियर से आगे तपोवन में तीन फ्रांसीसी युवतियां एक पहाडी गुफा पर पिछले कई सालों से रह रही है ! गर्मी के मौसम में वे लोग अपने खाने पीने की जरूरी चीजे उस गुफा में संग्रह कर लेती है और फिर सर्दियों के ६ महीने गुफा के अन्दर ही रहकर बिताती है ! सर्दियों में जब तेज बर्फ गिरती है तो वे लोहे की एक लम्बी छड से उस परत को तोड़कर, जो गुफा के मुहाने को ढक देती है, ऑक्सीजन के लिए रास्ता बनाती है!
अगले दिन सुबह उठकर हम वापस गंगोत्री के लिए चल पड़े और रात उत्तरकाशी में बिताई ! फिर हरिद्वार और फिर १४ अगस्त १९८८ को दिल्ली ! दिल्ली पहुँच कर देखा कि नाक और गालों से ही नहीं बल्कि पैरों से भी चमड़ी उतर गई थी ठण्ड से, इससे बचने का सर्वोतम उपाय यह रहता है कि चेहरे पर वास्लिन मलकर गंगोत्री से आगे बढे, रास्ते में बर्फीला पानी न पीकर पानी अपने साथ बोतल पर लेजाये ! बर्फीले पानी से चेहरे को न धोंये, इत्यादि ! तो यह था मेरा २२ साल पुराना गौमुख का यात्रा वृत्तांत ! नीरज भाई की घुमक्कड़ी की मैं इसलिए दाद देता हूँ कि यह काम देखने में जितना आसान दिखता है, असल मैं है नहीं !
यह है गौमुख, गर्मियों मेंभागीरथी यहाँ से उसी बेग से निकलती है जैसे कि गंगोत्री में,
गौमुख के आगे की तस्वीर ( मैं और विपिन सोनी ) सामने वह बर्फ का ग्लेशियर है |
गंगोत्री मंदिर के ठीक आगे सीडियों में बैठे हम लोग |
रास्ते में सुस्ताते हुए |
गौमुख के रास्ते में श्रीनिवास , मैं और सोनी |
मानचित्र पर किल्क कीजिये
अभी चंद रोज पहले मैंने एक लेख ज्योतिषी और भविष्य बाणी से सम्बंधित लिखा था! और जिसमे मैंने गलती से यह दावा कर दिया था कि मैं लगभग सभी विषयों पर लिख चुका हूँ ! लेकिन बाद में घुमक्कड़ी के चैम्पियन , मस्तमौला श्री नीरज जाट जी की एक टिपण्णी प्राप्त हुई , जिसमे उन्होंने मेरे दावे को यह कहकर ख़ारिज कर दिया था कि आपने घुमक्कड़ी पर कुछ भी नहीं लिखा! बाद में मैंने भी रिअलाइज किया कि वास्तव में अभी बहुत से ऐसे क्षेत्र है, जिनको हमने छुआ ही नहीं ! नीरज जी से वादे के हिसाब से आज एक पोस्ट घुमक्कड़ी पर लगा रहा हूँ ! चूँकि यह करीब २२ साल पुरानी बात है, और एल्बम को टटोलने पर जो फोटो मेरे हाथ लगे, उन्हें यहाँ लगा रहा हूँ, हालांकि तस्वीरे पुरानी होने की वजह और कैमरे की गुणवत्ता के हिसाब से बहुत साफ़ नहीं है! फिर भी उम्मीद करता हूँ कि आप थोड़ा बहुत लुफ्त उठाएंगे ! आपने हाल ही में तो नीरज जी के सहयोग से यमनोत्री के दर्शन किये थे तो मैंने सोचा कि क्यों न आपको गंगोत्री के दर्शन करवाऊ !
१० अगस्त ,१९८८ , २२ से २५ साल की उम्र के हम चार लोगो की मित्र-मंडली ( मैं, विपिन सोनी , बलवंत और श्रीनिवास, रास्ते में एक और अनजान मित्र जुड़ गया जो कि तब कहीं ओखला में कोकाकोला में कार्यरत थे और वे भी गौमुख ही जा रहे थे, इसतरह हम लोग पांच हो गए थे ) दिल्ली से ऋषिकेश की रात्रि बस सेवा से रवाना हुए! सुबह ३ बजे ऋषिकेश पहुंचे तो हल्की बारिश ने हमारा स्वागत किया! रोडवेज बस अड्डे से सीधे टीजीएम्ओ के बस अड्डे पहुंचे ! वहाँ से गंगोत्री जाने के लिए जब टिकट खिड़की पर पहुंचे तो कलर्क महोदय बोले की बारिश की वजह से रास्ते ठीक नहीं है, अभी सिर्फ बडकोट और उत्तरकाशी के बीच में ज्ञानसू के पास एक बड़े भूसंख्लन की खबर है, अगर आप फिर भी जाना चाहते है, तो गाडी जहाँ तक जायेगी, उसके आगे का किराया आपको वापस कर दिया जाएगा ! आज की बात होती तो शायद हम ऋषीकेश से ही लौट आते मगर तब हम भी नीरज जी की तरह ही मस्तमौला थे, सो चल पड़े ! ज्ञानसू के पास बहुत बड़ा पहाड़ टूटकर सड़क पर आया हुआ था, अत: ड्राइवर-कंडक्टर ने बसों को लौट-पौट करने का निर्णय लिया ! यानि कि सड़क पर पड़े मलवे के उस पार खडी जो बस गंगोत्री से सवारी लेकर आयी थी, वो ऋषिकेश की बस द्वारा लाई गई सवारियों को लेकर वापस गंगोत्री जायेगी और जो बस ऋषिकेश से आई थी, वो वहीं से वापस ऋषिकेश !
हमें उनके इस निर्णय से बड़ा शुकून मिला और झटपट उस बस में जा बैठे ! मगर परेशानी आगे और भी आने वाली थी ! उत्तरकाशी से मुश्किल से ३०-३५ किलोमीटर आगे ही बढे होंगे कि एक और भयंकर लैंडस्लाइड ! भयंकर इसलिए भी थी उसके मलवे के नीचे डीजीबीआर (बौर्डर रोड और्गनाइजेशन ) का एक बुलडोजर चालक समेत दब गया था! डीजीबीआर के जवान और मजदूर उसे बाहर निकालने के लिए वारफूट पर काम कर रहे थे ! अब फिर से वही तरकीब अपनाई जाये जो ज्ञानसू के पास अपनाई गई थी, यानि बसों का लोट-पोट ! वही किया गया, मगर अबके भीड़ बढ़ गई थी क्योंकि सवारियां इधर से दो बसों की थी और उधर सिर्फ एक ही बस थी! किसी तरह सभी यात्रियों को एडजस्ट किया गया, लेडिजों, बच्चों, बूढों को सीट और जवान लोगो को स्टैंडिंग, कुछ स्थानीय सवारियां बस की छत में भी बैठ गई !
बस धीरे-धीरे आगे बढ़ी ! तब जवान थे, बोलने में मुह नहीं थकता था, श्रीनिवास मित्र दूर पहाड़ों पर बने पहाडी मकानों को देखकर मुझसे बार-बार पूछता , यार वहाँ लोग रहते है क्या ? मैं ज्यों ही हाँ में जबाब देता या अपनी सफाई देता त्यों ही विपिन सोनी पूछ बैठता , अच्छा ये बता, ये पहाडी खाते क्या है ? चूँकि मैं पहाड़ों का ही रहने वाला हूँ तो मैं भी पूरी ईमानदारी से उन्हें वहाँ के रहन सहन की विस्तृत जानकारी देता! खामोश और सुनशान पहाड़ों के बीच से निकलती हमारी बस की आवाज ही हमारे कानो में गूंजती थी! बीच में एक जगह पर जहां पर कि इस पहाडी से उस पहाडी पर जाने के लिए सैकड़ों फिट गहरी अंधेरी खाई ( वहाँ शायद ही कभी धूप जा पाती होगी ) के ऊपर से एक संकरा लोहे का पुल था, ज्यों ही बस गुजरी , नीचे देख कई यात्रियों की कंपकंपी छूट गई ! वहाँ से थोड़ी ही दूरी पर एक और हल्की लैंडस्लाइड हो रखी थी, मगर डीजीबीआर ने उस मलवे को समतल कर बस जाने लायक बना दिया था ! हमारी बस ४५ डिग्री की ढलान लेते हुए जब उस मलवे से गुजर रही थी तो बस में सवार ज्यादातर मराठी यात्रियों के प्राण सूख रहे थे! एक अजीब सी खामोशी थी, कि कड़क और पंजाबी अंदाज में प्यारी सी स्टाइल में बोलने वाले विपिन सोनी ने कहा ; "यार मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई", उसकी इस हरकत पर तुरंत बलवंत बोला ' चुप बे स्साले ....." और फिर ज्यों ही बस ने वह मालवा पार किया एक जोर का ठहाका बस में सवार उन सभी यात्रियों ने लगाया जो उस समय उसकी उस मासूमियत भरी बात को सुनकर खामोश उसका मुह त!क रहे थे!
उसके बाद बस भटवाडी में चायपानी के लिए रुकी , और फिर रात करीब आठ बजे हम गंगोत्री पहुँच गए! वहा जहां पर भागीरथी एक फाल के तरह गिरती है उसपर बने पुल को पार कर हम गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट-हाउस में रात को रुके ! सुबह उस गेस्ट हाउस के कर्मचारी ने हमें जगाया और कहा कि यदि आप लोग गरम पानी से नहाना चाहते है तो गर्म-पानी भी मिल जाएगा! नाह-धोकर हमने गंगोत्री मंदिर के दर्शन किये और फिर चल पड़े २१ किलोमीटर लम्बी गौमुख की दुर्गम और थकाऊ पैदल यात्रा पर! रास्ते में अनेक मनोहारी एवं भयावह तस्वीरे आँखों को देखने को मिली ! करीब ढाई बजे हम गौमुख पहुँच गए थे! वहाँ पर ऑक्सीजन की कमी की वजह से गले की नसे बंद सी होने लगी थी, दम घुटे जैसा लग रहा था! बलवंत तो रो भी पडा था, उसे किसी तरह हमने समझाया बुझाया और वहाँ मौजूद एक चाय की झोपडी नुमा दूकान से उसे गरमागरम २ कप चाय पिलाए और गरम राख उसके गले पर मली ! थोड़ी देर मौजमस्ती करने के बाद हम करेब ३-4 कलोमीटर पीछे लाल बाबा के आश्रम भुज्बासा में रात बिताने को पहुंचे! उन बिषम परिस्थितियों में भी उस बाबा ने वहा यात्रियों के लिए आश्रम में बहुत अच्छा इंतजाम किया हुआ था! रात को बाबा से यह कहानी भी मालूम पड़े कि गौमुख ग्लेशियर से आगे तपोवन में तीन फ्रांसीसी युवतियां एक पहाडी गुफा पर पिछले कई सालों से रह रही है ! गर्मी के मौसम में वे लोग अपने खाने पीने की जरूरी चीजे उस गुफा में संग्रह कर लेती है और फिर सर्दियों के ६ महीने गुफा के अन्दर ही रहकर बिताती है ! सर्दियों में जब तेज बर्फ गिरती है तो वे लोहे की एक लम्बी छड से उस परत को तोड़कर, जो गुफा के मुहाने को ढक देती है, ऑक्सीजन के लिए रास्ता बनाती है!
अगले दिन सुबह उठकर हम वापस गंगोत्री के लिए चल पड़े और रात उत्तरकाशी में बिताई ! फिर हरिद्वार और फिर १४ अगस्त १९८८ को दिल्ली ! दिल्ली पहुँच कर देखा कि नाक और गालों से ही नहीं बल्कि पैरों से भी चमड़ी उतर गई थी ठण्ड से, इससे बचने का सर्वोतम उपाय यह रहता है कि चेहरे पर वास्लिन मलकर गंगोत्री से आगे बढे, रास्ते में बर्फीला पानी न पीकर पानी अपने साथ बोतल पर लेजाये ! बर्फीले पानी से चेहरे को न धोंये, इत्यादि ! तो यह था मेरा २२ साल पुराना गौमुख का यात्रा वृत्तांत ! नीरज भाई की घुमक्कड़ी की मैं इसलिए दाद देता हूँ कि यह काम देखने में जितना आसान दिखता है, असल मैं है नहीं !
यह है गौमुख, गर्मियों मेंभागीरथी यहाँ से उसी बेग से निकलती है जैसे कि गंगोत्री में,
पहाडी जंगली हिरन, इन्हें गढ़वाली में घ्वैड और काखड कहते हैं ! |
हरिद्वार से चार धाम के रूट, मानचित्र को बड़ा करके देखने के लिए उस पर क्लिक करें ! |
भुज्बासा, गौमुख से चार किलोमीटर पहले यहाँ पर गढ़वाल मंडल विकास निगम का गेस्ट हॉउस और लाल बाबा का आश्रम है! चित्र को बड़ा देखने के लिए उस पर किल्क करें !
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इतिश्री !!!!
२२ साल पुराना था या २२ दिन!
ReplyDeleteप्रवाह तो ऐसा था जैसे अभी कुछ दिन पहले ही गए हो वहा.....
और फर्क तो आ ही गया है जी तब की और अब की हवा में.....
कुंवर जी,
२२ साल पुराने व्रतांत को आने ऐसे लिखा है जैसे कल की ही बात है .... चित्र थोड़े पुराने हैं पर आपकी लेखनी ने उसे नवीन बना दिया है ...
ReplyDeletevery adventourous and thrilling
ReplyDeleteबढियां वृत्तांत मगर बोलते तो बुड्ढ़े ज़यादा है !
ReplyDeleteचलो इसी बहाने हमने भी यात्रा कर ली।
ReplyDeleteबढि़या यात्रावृतांत.
ReplyDeleteआप 22 साल पहले भी चश्मा लगाते थे। :-)
ReplyDeleteअच्छा लगा आपका यात्रा वृतांत
कुछ और यादें भी लिखियेगा
प्रणाम
गोदियाल जी , चित्र भले ही धुंधला गए हों , लेकिन आपकी यादें अभी तक तरो ताज़ा हैं । हों भी क्यों न , ऐसी यादें कभी नहीं भुलाई जा सकती ।
ReplyDeleteहम भी केदार- बद्री के दर्शन कर चुके हैं , लेकिन यमनोत्री -गंगोत्री जाने का प्रोग्राम अभी तक नहीं बन पाया ।
अब तो सोचकर भी लगता है कि कितनी भीड़ भाड़ होती है , पहाड़ों पर । फिर ग्लेशियर कहाँ बचेंगे ।
डाक्टर साहब ने ठीक कहा चित्र भले ही धुंधला गए हों पर आपकी यादें अभी भी एकदम ताजा हैं. आपके यात्रा वृतांत में वही प्रवाह है जो गंगा जी का गंगोत्री से निकलते वक्त होता है. बहुत बढ़िया. अच्छा लेखक जहाँ हाथ डाले वहीँ से सोना निकाल लेता है.
ReplyDeleteगोदियाल जी सुंदर चित्रों के सहित बढ़िया यात्रा वृतांत और वो भी उन दुर्गम जगहों का जहाँ जाना इतना आसान भी नही...बढ़िया प्रस्तुति..धन्यवाद जी
ReplyDeleteवाह जी, मजा आ गया आप की यात्रा का विवरण पढ कर, लेख से लगता है कल की ही बात हो, इन सडको पर हर साल इतने लोग जाते है तो हमारी सरकार यहां पक्का इंतजाम क्यो नही करती, पक्की सडके, ओर ऊपर से गिरने वाले पहाड को रोकना, अजी आप लोग तो अंदर बेठे थे जो लोग छत पर बेठे होगे उन का क्या हाल हुआ होगा?
ReplyDeleteबेस्लिन वाली बार बहुत सही है, लेकिन अगर वेस्लिन ना मिले तो सर्सॊ का तेल भी वही काम करता है.धन्यवाद
बहुत बढ़िया........ यादें ताज़ा कर हम से सांझा करने का बहुत बहुत आभार !!
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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22 साल पुरानी यात्रा का वृतांत आपने ऐसे सुना दिया मानो पिछले हफ्ते ही वहाँ गये हों... या तो आप रोजाना विस्तृत डायरी लिखते और उनको मेन्टेन भी करते हैं... और यदि यह सब आपने मात्र अपनी स्मृति के आधार पर लिखा है... तो... आपके चरण कहाँ हैं देव... स्पर्श करता हूँ।... इस विलक्षण स्मरणशक्ति का राज सभी को बताइये अवश्य!
आभार!
रोमांचक यात्रा का सुंदर वर्णन. चित्र धुंधला गए हैं मगर आपकी याददाश्त जबरदस्त है.
ReplyDelete"घुमाया आपने जहा नही जा सके हम
ReplyDeleteसुनाया वो जो नही भुला सके तुम"
आभार आपका
वाह....! कहना ही पड़ा !!... २२ साल पुराने व्रतांत को आपने सजीव कर दिया... धुंधले चित्र और ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं.
ReplyDeleteमनोहारी और थोड़ी सी भयावह यात्रा...
गोदियाल जी, आप 10 अगस्त 1988 को गये थे, तब पता है हम कितने दिन के थे? मात्र 17 दिन के।
ReplyDeleteआप सही कह रहे हो कि अगर आज किसी को ऋषिकेश में ही पता चल जाये कि उत्तरकाशी के पास भूस्खलन हो गया है, तो शायद ही कोई जाने को तैयार हो पायेगा।
उस दिन अगर आप यमुनोत्री जाते तो शायद बडकोट से ही 50-60 किलोमीटर पैदल चलना पडता। क्योंकि वहां की सडक आज भी कच्ची तुल्य ही है, उस जमाने तो होगी ही नही।