आगे चलकर एक परिवार की चरण-वंदना जीवन में कुछ प्राप्त करने, कुछ बनने के लिए इतनी महत्वपूर्ण हो जायेगी, ये बात अगर मुझे अथवा मेरे खानदान को पहले से पता होती तो सच कहता हूँ कि मैं तो अपने बाप-दादा से भी यही कहता कि फालतू का देश सेवा का जज्बा मन में लिए प्रथम विश्वयुद्ध ईराक में बसरा के मोर्चे पर लड़ने , 1962 और 1965 की लड़ाई लद्दाख और गुरुदासपुर के मोर्चे पर लड़ने के बजाये , छोटे भाई को कहता कि 1999 का कारगिल युद्ध लड़ने के बजाये तत्परता से इस परिवार की चरण-वंदना में जुट जाओ, अपने खानदान, जाति,धर्म को ही बुरा भला कहो, बड़े पदों पर बैठकर अपने धर्म को आतंक पैदा करने वाला धर्म कहो, अपनी देश-निंदा करो, जाति और धर्म की राजनीति खुद करों, दो धर्मों और जातियों के बीच कटुता खुद पैदा करों और कम्युनल( साम्प्रदायिक) दूसरों को बताओ ,और फिर देखिये कि चाहे हम हर जिम्मेदारी को निभाने में असफल ही क्यों न रहें, उत्तरी ग्रिड फेल हो जाए तो हो, देश आर्थिक रूप से दिवालियेपन की कगार पर खडा हो जाए तो हो, हर दूसरे दिन कोर्ट अथवा जज भेल ही हमारे खिलाफ कटर टिप्पणिया ही क्यों न करते रहे फिर भी कैसे यह परिवार हम पर मेहरबान होकर हमें कैसी-कैसी रेबडिया बांटता है, कभी ऊर्जा मंत्री बनाकर, कभी गृहमंत्री और कभी वित् मंत्री बनाकर, बस हमें करना इतना था कि अपनी नाक दबाकर रखनी थी ताकि उसके अन्दर शर्म न घुसने पाए। जमकर भ्रष्टाचार करते, खुद भी खाते और इन्हें भी बांटते तो यह भी संभव था कि अगला प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति बनने के अवसर भी उपलब्ध हो सकते थे। वाकई, बहुत बड़ी गलती कर गए हम लोग, खानदानी मूर्ख जो ठहरे।
अरे मैं तो इस चक्कर में राजनाथ सिंह जी को वधाई देना ही भूल गया। खैर, अब दिए देता हूँ। हाँ, एक बात और कहना चाहूँगा कि भूतकाल में कुछ वजहों से भले ही श्री लाल कृष्ण आडवानी को मैं उतना पसंद न करता हूँ, किन्तु पिछले कुछ समय़ से इस नेता के प्रति मेरे दिल में एक सम्मान उम्डा है। उसकी भी वजहें है। अगर आप याद करे, तो यह पहले ऐसे राजनीतिक नेता थे जिन्होंने 2005 में ही यह कह दिया था कि अपने मन मोहन सिंह जी एक प्रधानमंत्री रूपी सामग्री लायक इन्सान नहीं है। उस वक्त भले ही सबके सबने , यहाँ तक खुद मन मोहन सिंह जी ने उन्हें भला-बुरा कहा था लेकिन आज सच्चाई सबके सामने है, और आज हर किसी की जुबाँ पर वही उदगार है जो आज से सात साल पहले आडवानी जी कह गए।
अभी जिस तरह अध्यक्ष के चुनाव में उन्होंने आरएसएस की हठधर्मिता के समक्ष जिस दृडता का परिचय दिया उसकी जितनी सराहन की जाए वह कम है। हालांकि राजनाथ सिंह जी का पिछला कार्यकाल बहुत सफल नहीं ठहराया जा सकता किन्तु बदलाव जरूरी था, हर लिहाज से। मुझे जो सबसे ज्यादा जो एक बात ने क्षुब्द किया वह था आरएसएस का पूर्व अध्यक्ष गडकरी के प्रति ढुलमुल रवैया। इस संगठन से वैमनुष्यता रखने वाले भले ही इसे एक आतंकवादी संगठन कहते हो और जोकि गलत है , किन्तु इतना तो मैंने भी महसूस किया कि ( बड़े अफ़सोस के साथ लिख रहा हूँ ) कि यह एक साम्प्रदायिक संगठन है , जिसमे क्षेत्रवाद कूट-कूटकर भरा है। और जो लोग वाकई इसे एक वृहत परिदृश्य में हिन्दुओं का संरक्षक और एक सामाजिक संस्था के तौर पर इसकी साख पुन: स्थापित करने के इच्छुक है उन्हें यह मराठी फैक्टर, जो कुछ समय से इसके कार्य-कलापों में साफ़ परिलक्षित हो रहा है , उसको कमजोर करने की सख्त जरुरत है, वरना यह संभव है कि इस संस्था का आन्दोलन आगे चलकर अपनी प्रासंगिकता ही खो बैठे ।