Thursday, January 31, 2013

नेता चालीसा


देशवासियों तुम हमें सत्ता देंगे
तो हम तुम्हें गुजारा भत्ता देंगे।

सारे भूखे-नंगों की जमात को, 
बिजली-पानी,कपड़ा-लत्ता देंगे। 


विकास के वादे पे शक करलो,  
विनाश,भ्रष्टाचार अलबत्ता देंगे।  

तुम हमको शहद खिलाओ,हम  
तुम्हें मधुमक्खी का छत्ता देंगे।  

नक़द रक़म मुंतक़ली सियासी,                      मुंतक़ली =अंतरण  
इंतिख़ाबात तुरुफ का पत्ता देंगे।                   इंतिख़ाबात =चुनाव 

टहलुआ बन हमारे तलवे चाटो,                   टहलुआ=गुलाम 
वरना बता तुम्हें हम धत्ता देंगे।    

Wednesday, January 30, 2013

जनतंत्र रूपी चिलमन और (अ)धर्मनिर्पेक्षता !



शाहरुख ख़ान समेत भारत के उस बड़े तबके से मुझे कोई शिकायत नहीं है, जो यह सोचता है कि तमाम पड़ोसी मुल्कों समेत भारत को पाकिस्तान के साथ भी अच्छे संबंध रखने चाहिए, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में परस्पर सहयोग हो, खेल हो, संगीत हो अथवा व्यापार, क्योंकि हर मुल्क में बुरे और भले दोनों ही तरह के लोग होते है, और मेरे हिसाब से जब हम किसी मुल्क के पूरे आवाम के प्रति अपनी कोई राय बनाते है तो कम से कम हमें वहाँ पर सिर्फ कुछ नमूने उठाकर उसके आधार पर अंतिम निष्कर्षों पर नहीं पहुंचना चाहिए। बहुत से अमनपरस्त लोग उधर भी है और इधर भी। ये बात और है कि उनके और हमारे अमनपरस्ती के पैमाने भिन्न-भिन्न है।

हमारे देश में अभिव्यक्ति की "तथाकथित" स्वतंत्रता है और जिसका भरपूर लाभ सभी मौक़ा-परस्त उठा भी रहे है। हो भी क्यों न, हरेक को अपनी बात कहने का पूरा हक़ है। लेकिन इस तमाम कहने सुनाने की प्रक्रिया के दौरान कुछ बातें ऐसी भी हो जाती है जो कहीं कोई टीस दिलों पर छोड़ जाती है। अब तक दूसरों की ही लिखी हुई कहने बाले सुपरहीरो ने एक पत्रिका के माध्यम से जब अपनी बात कही तो लोग यह देख कर चकित थे कि दूसरे की जुबाँ बोलने वाला एक एक्टर इतनी बेहतरीन लेखनी भी चला सकता है। लेकिन लिखते वक्त यह ऐक्टर गलती यह कर गया कि इन्होने भूलबश या फिर जानबूझकर दिमाग इस्तेमाल नहीं किया। वे ये भूल गए कि भावाभेश या फिर किसी स्वार्थ की आड़ में उनकी बचकानी हरकतें धूर्त लोगों को मौकापरस्ती का न्यौता दे सकतीं हैं। 

इस विवाद को खुद उन्होंने जन्म करीब 3 साल पहले ही तब दे दिया था,जब आईपीएल में खिलाड़ियों की नीलामी के दौरान जब कमान उनके अपने हाथ में थी,  तब खुद तो किसी पाकिस्तानी खिलाडी को लेने की याद उन्हें नहीं आई, किन्तु  बाद में उन्हें पाकिस्तानी खिलाड़ियों का बहुत ख्याल आया और इस मुद्दे पर उनकी आँखों से खूब  घडियाली आंसू बहने लगे थे। इसी सिलसिले में बाद में जब किसी ने  उनसे पूछा  कि आपने अपनी बारी क्यों नहीं पाकिस्तानी खिलाडियो  को लिया ? तो उनका जबाब भी खूब  हास्यास्पद था। वे बोले उन्हें तेज़ गेंदबाज़ की ज़ूरूरत थी इसलिए उन्होंने पाकिस्तानी खिलाड़ी को नहीं ख़रीदा। वाह !. इसका मतलब ये निकला कि पाकिस्तान में कोई तेज़ गेंदबाज़ ही नहीं था। 

परिणाम यह निकला की खुद की मौकापरस्ती के चक्कर में उन्होंने धूर्त लोगों को भी मौकापरस्ती का न्यौता दे दिया। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए था कि हमारा पडोसी हमारी अच्छाई का गलत फ़ायदा उठता है। हमारी अहिंसा वादी विचारधारा को हमारी कमजोरी समझता है। हमें पाकिस्तान से अच्छे सम्बन्ध रखना चाहिए पर अगर वो अपनी हद पार करे तो उसका मुंह तोड़ जवाब भी देना चाहिए, जिसका प्रदर्शन हमने उचित मौकों पर हमेशा चूका। और जिसकी वजह से यह हमारा धूर्त पड़ोसी और धूर्त हुआ। अपने अल्पसंख्यक होने का रोना रोने की बजाये उन्हें इतिहास का यह कटु सत्य समझना चाहिए था कि भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ था, उसके बावजूद भी मुसलमानों को इस देश में अधिकारों के मामले में छला नहीं गया। उन्हें जो बहुसंख्यक हिंदुओं से बढ़कर धार्मिक और सामाजिक स्वतंत्रता यहाँ दी गयी, वो पाकिस्तान के मुसलमानों को भी हासिल नहीं है। शियाओं और अहमदियों का कत्लेआम रोज की बात है। अल्पसंख्यक  हिन्दुओं का वहां क्या हश्र हुआ यह किसी से छुपा नहीं है। तो श्रीमान, हम,  यानी इस देश के करोड़ों आम लोग, जिन्होंने आपको सिर्फ आपकी काबिलियत के आधार पर सर-आँखों पर बिठाया है,वो तो अपने इस सुपर हीरो से सिर्फ  इतना चाहता था कि जब वह बेशर्म पाकिस्तानी दरिंदा हमदर्दी दिखाने का नाटक कर रहा था तो उसे उसी वक्त आपकी तरफ से कहा जाना चाहिए था " कीप यौर माउथ शट।" बस, आम नागरिक तो सिर्फ इतना सा देखना, सुनना चाहता था। . 

खैर, अंत में यही कहूंगा कि सिर और चेहरे पर चिलमन की महता भी तभी है जब सुघड़ निर्पेक्षता संतुलित परिधानों में हरवक्त  सजी-संवरी नजर आए, ऐसा नहीं की अपनी सहूलियत के हिसाब से तुम सिर्फ अपने फायदे के लिए, अपने वक्त पर ही संवारो । अगर आप दूसरे को साम्प्रदायिक बता रहे है तो आपने अपने अल्पसंख्यक  होने का राग किस धर्मनिरपेक्षता के मुखौटे तले अल्पा?

सावधान !




अंध,मूक,वधिर,अहमक़,खोटा,

न कोई ठठोल,ऊल-जुलूल बैठे ,

भीड़-तन्त्र की डाल पर मित्रों,

अब और न कोई "फूल" बैठे।






न किसी और को तोहमत देना,

सोच-समझकर तुम मत देना,

वरना उसने जो खर्चा है खुद पर,

कहीं तुम्ही से न सब वसूल बैठे।




स्पर्धी सब हैं बड़े खुदगर्ज ये,

बनकर भूल जाते है फर्ज ये,

वरण का दौर गुजरने के बाद,

वो कहीं तुम्हे ही न भूल बैठे।





गिद्ध बैठे है गोश्त की चाह में,

फूंक कर रखो कदम तुम राह में,

तरजीह हरगिज न ऐसी हो

कि अपने ही पांव शूल बैठे।

Thursday, January 24, 2013

कोण को गलत कोण से देखने की हमारी मानसिकता !

आगे चलकर एक परिवार की चरण-वंदना जीवन में कुछ प्राप्त करने, कुछ बनने के लिए इतनी महत्वपूर्ण हो जायेगी, ये बात अगर मुझे अथवा मेरे खानदान को पहले से पता होती तो सच कहता हूँ कि मैं  तो अपने बाप-दादा से भी यही कहता कि फालतू का देश सेवा का जज्बा मन में लिए  प्रथम विश्वयुद्ध ईराक में बसरा के मोर्चे पर लड़ने , 1962 और 1965 की लड़ाई  लद्दाख और गुरुदासपुर के मोर्चे पर लड़ने के बजाये , छोटे भाई को कहता कि 1999 का कारगिल युद्ध लड़ने के बजाये तत्परता से इस परिवार की चरण-वंदना में जुट जाओ, अपने खानदान, जाति,धर्म  को ही बुरा भला कहो, बड़े पदों पर बैठकर अपने धर्म को आतंक पैदा करने वाला धर्म कहो, अपनी देश-निंदा करो, जाति और धर्म की  राजनीति खुद करों, दो धर्मों और जातियों  के बीच कटुता खुद पैदा करों और कम्युनल( साम्प्रदायिक) दूसरों को बताओ ,और फिर देखिये कि चाहे हम हर जिम्मेदारी को निभाने में असफल ही क्यों न रहें, उत्तरी ग्रिड फेल हो जाए तो हो, देश आर्थिक रूप से दिवालियेपन की कगार पर खडा हो जाए तो हो, हर दूसरे दिन कोर्ट अथवा जज भेल ही हमारे खिलाफ कटर टिप्पणिया ही क्यों न करते रहे फिर भी  कैसे यह परिवार हम पर मेहरबान होकर हमें कैसी-कैसी रेबडिया बांटता है, कभी ऊर्जा मंत्री बनाकर, कभी गृहमंत्री और कभी वित् मंत्री बनाकर, बस हमें करना इतना था कि अपनी नाक दबाकर रखनी थी ताकि उसके अन्दर शर्म न घुसने पाए। जमकर भ्रष्टाचार करते, खुद भी खाते और इन्हें भी बांटते  तो यह भी संभव था कि अगला प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति बनने के अवसर भी उपलब्ध हो सकते थे। वाकई, बहुत बड़ी गलती कर गए हम लोग, खानदानी मूर्ख जो ठहरे।  

अरे मैं तो इस चक्कर में राजनाथ सिंह जी को वधाई देना ही भूल गया। खैर, अब दिए देता हूँ। हाँ, एक बात और कहना चाहूँगा कि भूतकाल में कुछ वजहों से भले ही श्री लाल कृष्ण आडवानी को मैं उतना पसंद न करता हूँ, किन्तु पिछले कुछ समय़ से इस नेता के प्रति मेरे दिल में एक सम्मान उम्डा है। उसकी भी  वजहें है। अगर  आप याद करे, तो यह पहले ऐसे  राजनीतिक नेता थे जिन्होंने 2005 में ही यह कह दिया था कि अपने मन मोहन सिंह जी एक प्रधानमंत्री रूपी सामग्री लायक इन्सान नहीं है। उस  वक्त भले ही सबके सबने , यहाँ तक खुद मन मोहन सिंह जी ने उन्हें भला-बुरा कहा था लेकिन आज सच्चाई सबके सामने है, और आज हर किसी की जुबाँ पर वही उदगार है जो आज से सात साल पहले आडवानी जी कह गए। 

अभी जिस तरह अध्यक्ष के चुनाव में उन्होंने आरएसएस की हठधर्मिता के समक्ष जिस दृडता का परिचय दिया उसकी जितनी सराहन की जाए वह कम है। हालांकि राजनाथ सिंह जी का पिछला कार्यकाल बहुत सफल नहीं ठहराया जा सकता किन्तु बदलाव जरूरी था, हर लिहाज से। मुझे जो सबसे ज्यादा जो एक बात ने क्षुब्द किया वह था आरएसएस का पूर्व अध्यक्ष गडकरी के प्रति ढुलमुल रवैया। इस संगठन से वैमनुष्यता रखने वाले भले ही इसे एक आतंकवादी संगठन कहते हो और जोकि गलत है , किन्तु इतना तो मैंने भी महसूस किया कि ( बड़े अफ़सोस के साथ लिख रहा हूँ ) कि  यह एक साम्प्रदायिक संगठन है , जिसमे क्षेत्रवाद कूट-कूटकर भरा है। और जो लोग वाकई इसे एक वृहत परिदृश्य में हिन्दुओं का संरक्षक और एक सामाजिक संस्था के तौर  पर इसकी साख पुन: स्थापित करने के इच्छुक है उन्हें यह मराठी फैक्टर, जो कुछ समय से इसके कार्य-कलापों में साफ़ परिलक्षित हो रहा है , उसको कमजोर करने की सख्त जरुरत है, वरना यह संभव है कि इस  संस्था का आन्दोलन आगे चलकर अपनी प्रासंगिकता ही खो बैठे  ।                       


           

Wednesday, January 23, 2013

खुर-पशु और पन्जा-तंत्र !

यह बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि देश के मौजूदा हालात पर एक नजर, उसके  भूत और भविष्य का आंकलन हमारे समक्ष कोई आशातीत, सकारात्मक परिदृश्य प्रस्तुत नहीं करता। ऐसा लगता है कि मानो पिछली सदियों की ही भांति इस तथाकथित शिक्षित और तकनीकि रूप से उन्नत और प्रगतिशील सदी में भी हमने शीतलमय, उत्तेजनाविहीन रहकर सब कुछ भगवान भरोसे ही छोड़ दिया है। अगर मैं गलत नहीं तो  ऐसा प्रतीत होता है कि शायद हमारे पास विकल्पों का अकाल सा पड़ गया है। 


पशु-पक्षी जगत में चूँकि अपनी एक ख़ासी रूचि है, इसलिए मैं डिस्कवरी एवं नेशनल जियोग्राफिकल चैनल बड़े ध्यान से   देखता हूँ।   पालतू और वन्य-जीव जगत में दो प्रकार के पशु-प्राणी, एक भेड और दूसरा बैल सदृश्य, खास अफ़्रीकी प्रजाति का मृग, जिसे अंग्रेजी भाषा में विल्ड़ेबीस्ट या विल्डबीस्ट के नाम से जाना जाता है, मैं समझता हूँ कि न सिर्फ मेरे लिए अपितु तमाम बुद्धिजीवी वर्ग के लिए हमेशा अध्ययन और कौतुहल के खासे विषय बने रहे है। वाकई बड़े अद्भुत किस्म के प्राणी है ये दोनों ही प्रकार के खुर-पशु। मेरा यह मानना है कि इनका स्वभाव, अस्तित्व, आकार और व्यवहार किसी का भी  ध्यान सहसा अपनी और आकर्षित करने में पूर्णत: सक्षम है। मैं जब कभी इन्हें देख अपने ख्यालाती जंगलों के इर्द-गिर्द घूमते हुए इनके हाव-भाव पर गौर फरमा रहा होता हूँ तो इनकी तुलना अपने आस-पास बिखरे मानव-जगत के तमाम सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक ताने-बाने से करने लगता हूँ। और हो भे क्यों न, क्योंकि अगर हम बारीकी से दोनों पर गौर फरमाए तो बहुत सी समानताए हमें खुद व खुद नजर आने लगेंगी।   

खिले-अधखिले, कुम्पित-मुरझाए, स्पष्ट-अस्पष्ट इस खुर-पशु जगत से ताल्लुक रखने वाले हर चेहरे को अपने ढंग से पढने का भरसक प्रयास करता हूँ। अपनी कल्पना शक्तियों के आधार पर, टीवी प्रोग्रामो में जीव-जंतुओं पर आधारित डाक्यूमेंट्री फिल्मों, चल-चित्रों में देखे गए दृश्यों को याद कर उन घटनाओं को इन खुर-पशुओं के समकक्ष रखने की कोशिश करता हूँ। कहीं किसी संकरी गली से गुजरता हुआ एक भेडों का झुण्ड नजर आता है जिसे देखकर मुझे कहीं पढ़ा हुआ एक प्रसंग याद आ जाता है और मैं अपने चक्षुओं के सामने आये वाकिये को उसी अंदाज में अवलोकित करने लगता हूँ कि गली के अगले छोर पर किसी ने एक अवरोध-सूचक डंडा (बैरियर) लगा रखा था ! लीडर भेड़ आगे-आगे चलते हुए जब डंडे के पास पहुँची तो उस बैरियर के ऊपर से कूदकर निकल गई। लेकिन कूदते वक्त डंडा उसकी टांग से टकराने की वजह से नीचे गिर गया ! और अब उसी स्थान से गुजरने की बारी लीडर का अनुसरण कर रही बाकी भेड़ो की थी। और यह देख आश्चर्य मिश्रित आनंद हो रहा था कि डंडा नीचे गिर जाने के बावजूद भी जितनी भेड़े अपने लीडर के पीछे थी, वे भी सभी उसी अंदाज में वहाँ से कूद-कूदकर निकली, जैसे लीडर भेड़ निकली थी।

कहीं हरा-भरा सहरा, सपाट मैदान, कहीं ऊबड़-खाबड़ टीले, कहीं घने वृक्षों के झुरमुट और उनके बीचों-बीच कहीं कलकल तो कहीं शांत बहती नदी और कहीं पथरीला तपता रेगिस्तान। जब कभी किंचित इन्ही ख्यालों के सहरा में गुम हो जाता हूँ तो वो चाहे घर से दफ्तर तक का मार्ग तय करना हो अथवा दफ्तर से घर लौटने तक का या फिर कहीं लम्बे सफ़र में जाने-पहचाने अथवा अनजान रास्तों को तय करने का।  यूं महसूस होता है कि मानो मैं किसी स्पोर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल (SUV) में बैठा, उपरोक्त वर्णित तमाम खूबियों से परिपूर्ण किसी घने अफ्रीकी जंगल क्षेत्र से होकर गुजर रहा हूँ , और उस  सुहाने सफ़र के दौरान मैं देख रहा होता हूँ कि भोर की बेला पर अनेक अफ्रीकी खुर-पशुओं के झुण्ड उस वनांचल में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक  अपने और अपने बच्चों के भरण-पोषण की तलाश में गंतव्य को निकल रहे है, अथवा फिर शाम को थके-हारे, कोई पेट भर खाने और कुछ पाने की संतुष्टि एवं कोई कुछ खोने का गम चेहरे पर लपेटे अपने रैन-बसेरों की और लौट रहे होते  हैं।  कहीं, ऊँची घास, पेड़ अथवा झाड़ियों की ओट में ताक में बैठे भेड़िये कि कब कोई  खुर-पशु कहीं जरा सा जंगल के कानूनों का उल्लघन करता नजर आये और वे उन जंगली कानूनों की आड़ में उसे नोच खाए। कहीं झाड़ियों में छुपे लकडबग्घे और सियार कि बाघ, शेरनी अथवा जंगल का कोई राजा और उसके चाटुकार कोई शिकार करे, और ये उससे उसे झपटने  और अपना हिस्सा प्राप्त करने का प्रयास करें। क्योंकि शेरनी , जंगल का राजा भी ये खूब समझते है कि चाटुकार और पंजे वाले  परजीवी  ही है जो  किसी निरीह खुर-पशु को उनका काल ग्रास बनने और उनके  खूनी पंजो तक पहुचाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। ऊपरी तौर पर देखने से ही ऐसा लगता है कि  मानो यहाँ भी इनका अपना कोई कमीशन पहले से तय है।        

और अंत में बस चंद  शब्द ही मेरी जुबाँ पर रेंगकर रह जाते है, वे ये कि इन खुर-पशुओं को एक और बड़ी एवं  निर्णायक क्रान्ति की सख्त जरुरत है। कब आयेगी इनके लिए वह सुहानी भोर ? यह सवाल मेरे जेहन में इस कदर कौंधता है कि मैं उनकी दुर्दशा देख बडबडाने लगता हूँ कि ये खुर-पशु  क्यों  आए इस संसार मे, इन्हें तो पैदा ही नहीं होना चाहिए था। इसी कशमकश में मैं  अपने कानो पर हाथ रखकर  जोर से चीख पड़ता हूँ, मगर मेरी वह चीख कोई नहीं सुनता, सिर्फ मेरे कमरे की दीवारें या फिर  गाडी  अथवा जिस वाहन  में मैं सफ़र कर रहा होता हूँ उसके दरवाजे कांपकर रह जाते है।   

इस अफ्रीकी वन-प्रदेश के एक जंगल के बीहड़ों में अभी हाल में  वहां की रसूकदार शेरनी के 'युवा" शावक की ताजपोशी हुई है, जल्दी ही उसके  भी जंगल का राजा बनने के ख्वाब संजोए जा रहे है। ये बात और है कि जंगल में मौजूद कुछ शरारती बंदरों ने यह चुटकी लेनी भी शुरू कर दी है कि मौजूदा जंगल के राजा से तो प्रजा को यह शिकायत थी कि यह दहाड़ता नहीं है, मुह नहीं खोलता। किन्तु, अगर यह "युवा" शावक अगर जंगल का राजा बन गया तो इन खुर-पशुओं को फिर से यह शिकायत होनी शुरू हो जायेगी  कि जंगल का यह "युवा"  राजा दहाड़ता क्यों है, मुह क्यों खोलता है?  

अब जो चिंतित होने का बड़ा सबब है, वह यह है कि वर्तमान जंगल के निस्तेज किस्म के बूढ़े राजा को दरकिनार कर दिया गया है। उसके आगे उसका भविष्य एक पूर्ण विराम की तरह खड़ा कर दिया गया है। शेरनी के चाटुकार वजीर अपने-अपने राग अलाप रहे हैं। अपनी धुर्त्ताओं और करतूतों से ध्यान हटाने के लिए अनाप-शनाप बके जा रहे है। और ऐसा भी नहीं कि ये किसी अज्ञानता  या मूर्खताबश ऐसा कह रहे हो, बल्कि यह उनकी एक सोची-समझी जंगल-नीति का ही हिस्सा है, जिसे वे ख़ास मौकों पर अपनाते आये है। वे भली-भाँति यह जानते हैं कि खुर-पशुओं की  एक सबसे बड़ी और भद्दी खासियत यह है कि इनकी जुबाँ लम्बी और याददाश्त बहुत कमजोर होती है। ये झांसे में बहुत आसने से आ जाते है, इनके कान भरकर इन्हें आपस में ही लड़ा दो और फिर अपना काम स्वत: बहुत आसान हो जाता है।  अभी पड़ोसी जंगल के जानवरों की घटिया हरकतें सामने आने पर बूढ़े राजा ने पड़ोसी जंगल के हिंसक पशुओं से कहा था कि  उनकी इस निम्न स्तरीय  घटिया हरकत को माफ़  नहीं किया जा सकता, वहीं दूसरी और उसके एक जोकर वजीर ने परसों उसने जाकर कह दिया कि अप्रिय बाते जंगलों के बीच में होती रहती है, किन्तु इन्हें  शांति के मार्ग में बाधक नहीं बनने दिया  जा सकता।     

अंत में बस यही कहूंगा कि वर्तमान हालात को देखकर तो यही लगता है कि अगर समय रहते इन खुर-पशुओं ने किसी ठोस और निर्णायक दिशा में कदम नहीं उठाये तो जहां एकतरफ मुझे इस पंजा-तंत्र में पंजे वाले जानवरों, उनके परिवारों, कुनवों  का भविष्य बहुत उज्जवल दिखाई पड़ता है, वहीं इन खुर-पशुओं  के लिए आगे भी कुदरत और भगवान के ही मालिक बने रहने के पूर्ण आसार स्पष्ट तौर पर  दृष्ठि-गौचर हैं, क्योंकि बड़ी विडंबना यह भी है कि इस कुटिल पंजा-तंत्र का इस वक्त कोई मजबूत विकल्प भी नजर नही आ रहा। 

और आखिर में : नेताजी सुभाष चन्द्र बोष को नमन !

Monday, January 21, 2013

वाह रे वाह !


फिर  से सत्ता हथियाने के .जो देख रहे हैं  ख्वाब,
लादेन उनके "जी" हुए, हाफिज सईद हुए "सहाब"।

हाफिज सईद हुए सहाब, हिन्दू हो गए हैं आतंकी,
ऊपर वाला ही जाने कब खत्म होगी यह  नौटंकी।।

फूक में जो सपूत चढ़ाया, बोल गया कुछ यूं  धाँसू,
सुनके उसके बोल, माँ की आँखों में आ गए आंसू।

माँ की आँखों में आये आंसू, चिंतन खत्म हुआ सारा,
मुझे मिला क्या इसी चिंतन में है आमजन बेचारा।।

स्वार्थसिद्धि को अगर हमने, गधे बनाए बाप न होते,
भाग्य-विधाता  मंत्री बने, आज अंगूठा-छाप न होते।

आज अंगूठा-छाप न होते, किया धरा सब अपना है,
लोकतंत्र में सच्चा स्वराज पाना, बन गया सपना है।।    


Sunday, January 20, 2013

माँ ने कहा सत्ता जहर की तरह है, और भारत के लोग मेरी जान है:- राहुल गांधी


जयपुर में चल रहे कौंग्रेस के  "चिंतन शिविर" में कांग्रेस के "युवा" नेता और ताजा-ताजा बने कॉग्रेस के उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी  ने अपने भाषण में दो महत्वपूर्ण बातें कही;  "माँ ने कहा सत्ता जहर की तरह है, और भारत के लोग मेरी जान है। ", 

मेरे हिसाब से जो कुछ इस देश के लोगों ने पिछले 9-10 सालों में इस देश में देखा,  उस आधार पर तो  मैं यही कहूंगा कि अगर  इस देश के लोगों में जागरूकता और सजगता नाम की कोई चीज लेस मात्र भी बाकी है तो उन्हें  राहुल गांधी को अब विनम्रता से यही जबाब देना चाहिए कि आपकी उपरोक्त बातों को सर-आँखों पर रखते हुए हम आपसे यही  गुजारिश करेंगे  कि चूँकि जैसा कि आपने खुद ही कहा है  कि भारत के लोग आपकी जान है, और सत्ता जहर है, तो आप कृपा करके  "अपनी जान" ( भारत के लोगों ) की  सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए यह जहर ( सत्ता) कदापि ग्रहण न करे, क्योंकि आपकी  "जान" बेश-कीमती है भारत के लोग इसे अब और  जोखिम में नहीं डालना चाहते।  


Friday, January 18, 2013

सैकिंड-हैण्ड देह-नीलामी !




मान लो कि सैकिंड-हैण्ड गाड़ियों / सामान  की तरह ही इंसानों की भी बिक्री / नीलामी का प्रचलन होता तो मैं अपनी नीलामी का जो विज्ञापन निकालता  उसका मजमून कुछ इस तरह का होता :)   



गोदियाल 'परचेत' 
1964- मॉडल, 
माँ-बाप  द्वारा  
दिसम्बर माह में 
उपार्जित करने की 
एक ख़ास वजह शायद 
मूल्यों में वर्षांत मिलने वाली 
भारी छूट का लालच रहा होगा। 
संतोषजनक चालू स्थिति में 
मय समस्त बॉडी-पार्ट्स  
नीलामी के लिए उपलब्ध , 
 'पांच फुट सात  इंच की चेसिस '। 

इच्छुक जन कार्य-दिवस पर 
स्वयं अथवा अपने द्वारा 
विधिवत प्राधिकृत व्यक्ति के मार्फ़त,  
इस सुअवसर का लाभ उठाने 
और ह्रासित मुल्य पर बोली लगाने, 
निम्न पते पर संपर्क करें - 
"ऐज इज, व्हेर इज बेसिस"।।   


Thursday, January 17, 2013

अनोखी समरूपता !




हिन्द-पाक को  लाख 
अलग दिखलाने की कोशिश कर लो,
किंतु  ये  देखिये  कि 
कितनी समरूपता है बीच दोनों के। 
गर फ़र्क ढूंढना भी चाहो 
तो तुम्हें बस इतना सा मिलेगा कि 
उनका "राजा" बिजली के तार खा गया,
और अपना  'ए.  राजा ' टेलीफोनो के।।  

  




Wednesday, January 16, 2013

आश्चर्य !!


बहस-मुबाहिसा 
ये है कि  'पा ' जी ने 
घटना के आठ दिन बाद 
कुछ बोला है,
गोले नहीं दागे 
तो क्या ,
ये क्या कम है कि 
महामात्य ने मुहँ खोला है।      
कह दो जाकर 
हर मतदाता 
नए-पुराने वालों को, 
बदहाली और बदइंतजामात 
पर गुर्राने वालों को।   
वतन की आबरू का 
सरपरस्त बनाया खुद तुमने ,  
शव से कफ़न और 
सच से दामन चुराने वालों को।। 

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परिवार सँवारना  ही 
जीवन की रेल समझते थे जो,
बन्धनों में बंधना ही  
दिलों का मेल समझते थे जो, 
पूर्व - प्रवेश परीक्षा में 
असफल रहे कई ऐसे माँ-बाप, 
नर्सरी में दाखिले को 
बच्चों का खेल समझते थे जो।  

तोबा-तोबा !











निराले तुम्हारे अंदाज 
हर रंज-ओ-गम, सिकवे-गिले में,
शायद यही वजह है 
जो वालिद ने तुम्हारे, 
कैद करके रखा तुमको किले में।   

ताज्जुब की बात है कि 

फिर भी दिल तुम्हारा चोरी हो गया,
मुझे  ऐसे हुआ मालूम कि 
शक की वीनाः पर पुलिस ने 
मेरे घर छापा डाला इसी सिलसिले में।।   


Sunday, January 13, 2013

स्वास्थ्य सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण जानकारी !


सुप्रभात और आप सभी को  लोहड़ी की हार्दिक शुभकामनाये !  आज रविवार है और हर कोई फुर्सत के इन पलों को अपनी यथाशक्तिनुसार व्यतीत करने की सोच रहे होंगे। मैं भी ख़ास कुछ लिखने के मूढ़ में नहीं हूँ  आज। किन्तु मेरे में एक वंशानुगत बीमारी है,कि फ्री में दूसरों को सलाह देना, इसलिए मजबूरन यह नेक सलाह देने को पेट के अन्दर के कीड़े  मेरी इन्द्रियों पर पूरा दबाव बना रहे है।

तो आज की स्वास्थ्य संबंधी एक नेक सलाह उन मरीजों के लिए जिनका ब्लड प्रेशर  हमेशा  लो ( निम्न रक्तचाप ) रहता है, जिनका  खून नहीं खौलता  है , उन्हें एक  रामबाण औषधि बता रहा हूँ  जो यकीन मानिए,  शत-प्रतिशत कारगर सिद्ध होगी;            

आपको करना बस इतना है कि  अपने अख़बार वाले से बोलकर अपने घर में किसी अख़बार का उत्तरप्रदेश  संस्करण  विशेषकर पश्चमी उत्तरप्रदेश ( गाजियाबाद नौयेडा, ग्रेटर नौएडा, मेरठ, बागपत,बुलंदशर,मुरादाबाद, विजनौर, मुज्जफरनगर इत्यादि से सम्बन्धित ख़बरों वाला एक अखबार  लगवाना  है और उसे नियमित रूप से एक महीने तक पढ़ना है, दिन में तीन बार। बीच-बीच में आप टीवी पर उत्तरप्रदेश और हरियाणा से संबधित खबरिया चैनल की ख़बरों का अवलोकन भी करते रहिये।  यकीन मानिए, एक महीने बाद आपको न सिर्फ शर्तिया स्वास्थ्य लाभ  होगा अपितु आप उच्च रक्तचाप की दवा ढूढना भी शुरू कर देंगे। 
धन्यवाद! :)      


Friday, January 11, 2013

दरिया-ऐ-इश्क












दरिया-ऐ-इश्क, प्रीत दर्शाने की, फरमाइश अच्छी नही,
दिल की बात लव पे लाने की, सिफारिश अच्छी नहीं। 
  
मंजूर वो जो बे-गरज कहें निगाहें,गेसुओं की ओंट में,
अंजुमन में आने की अर्ज, ये गुजारिश अच्छी नही ।

मजमा-ए-महफ़िल करें क्यों, प्रेम की पहचां उजागर ,
मुहब्बत की नजर,जज्बातों की नुमाइश अच्छी नहीं।

दरमियां मुहब्बत के ये देखिये,भरोसा न टूटे कभी ,
यकीं दिलाने को ये रिश्तों की पैमाइश अच्छी नहीं।

पैमानो में भरकर दर्द को, क्यों भला छलकायें  हम,
मद भरी आँखों से बेमौसमी, हर बारिश अच्छी नहीं। 

Thursday, January 10, 2013

रास आता नहीं हमको, ये आलम तन्हाइयों का।










पीछा करें भी तो कहाँ तक भला,ये नयन परछाइयों का
रास आता नहीं अब और हमको, आलम तन्हाइयों का।

डरी-डरी सी बहने लगी है, हर बयार मन की गली से , 
ख्वाब भी आते नहीं अब,खौफ खाकर रुसवाइयों का।

हमें शुष्क दरिया समझ बैठे हैं, समंदर की चाह वाले,  
सीपियों को भी इल्म नहीं,इस दिल की गहराइयों का।

दौर -ए- पतझड़ सूखकर गिरने लगे हैं आशा वरक़,       
सहमा-सहमा है ये दिल दरख्त, डर है पुरवाइयों का।  
वरक़=पत्ते    
मुरादें करने लगी प्रणय पत्थरों से मंगल सूप धारण,  
कौन जाने,क्या पता कब बनेगा,योग शहनाइयों का।

Monday, January 7, 2013

सर्द अहसास !

जबाब देने  लगे जब तन,
वो भी  साथ लिए  हुए 
इक आहत मन, 
सवालों के जबाब देते-देते,
जिन्दगी भी खुद इक 
सवाल बनकर रह जाती है।   
फर्क बस इतना है कि 
लड़कपन में वालिद अक्सर  
जीवन का मकसद पूछा करते थे 
और बुढ़ापे में औलाद
जीने का मकसद पूछती है।

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दामन में पसरे हुए 
खुश्क, बेवफा मौसम को
जब हैरत से तकने लगते है 
कुछ  उमंगों के फूल,
कुछ अहसास कराती  है भूल, 
और तब समझ में  आता है 
कि क्यों तुम कहा करते थे,
वफ़ा की दुनिया
सितारों से  भी बहुत आगे है।
तुम तोड़कर चले गए 
तमाम दिल की सलाइयों  को ,
और जब सर्द-अहसासों के
खुश्क मौसम आए ,
हम कोई हसीं ख्वाब न बुन पाए ।  

Saturday, January 5, 2013

एक खोती की अभिलाषा !



मुझे चाहिए इक ऐसा खोता, 
जब मैं चांहू तब उसे जोता।

ढेंचू-ढेंचू करता वो दौड़ा आये,
जब दूं समीप आने का न्योता।

    मुझे चाहिए इक ऐसा खोता.....  

कूल रहे  हमेशा, जहां तक हो, 
किसी बड़े स्कूल से स्नातक हो, 
बोल न बोले कोई दिल चुभोता, 
मुझे चाहिए  इक ऐसा खोता.....   

ऋतु मुताबिक गाना गाना जाने,
हर व्यंजन,पकवान पकाना जाने,
कभी भी ऐन वक्त पे मिले न सोता, 
मुझे चाहिए  इक ऐसा खोता.....  

Thursday, January 3, 2013

तिलिस्म !



चढ़े प्यार की खुमारी,
जब मति जाए मारी , 
तशख़ीस न हो वक्त पर
तो लाईलाज है  ये 
कम्वख्त इश्क की बीमारी ।  
तशख़ीस=निदान (diagnose) 

संक्रामक है यह रोग,
तेजी से पसारता है पांव ,
और मिले इसे जो पलकों की छाँव 
तो  जाती नहीं फिर तारी ,
बढ़ा देती है दिल की बेकरारी,
कम्वख्त इश्क की बीमारी । 

है व्याधि लाइलाज ,
अनसुलझा है इसका राज,
परहेज़ उत्तम और बचो उससे 
जो सूरत कोई नजर आये प्यारी,
वरना उलझा देगी तकदीर बेचारी ,
कम्वख्त इश्क की बीमारी ।    


प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।