"सॉरी, गोंट टु गो, आई वेस्टेड सो मच आफ योर टाइम।" हल्की सी कराह खुद में समेटे ये भारी-भरकम स्वर जब कानो में पड़े तब जाकर यह अहसास हुआ कि साथ में कोई अजनबी बैठे हैं। मोटी, घनी और घुमावदार सफ़ेद मूछों से सुसज्जित उस रौबीले चेहरे पर एक नजर डालने के उपरान्त मैं कहना चाहता था, "प्लीज स्टे अ लिटिल लौंगर" किन्तु न जाने क्या सोचकर मैंने खुद को रोक लिया था।
डग धीरे-धीरे एक ख़ास दिशा में बढ़ाते, उम्र के तकरीबन सत्तर वसंत पार कर चुके उन रिटायर्ड ब्रिगेडियर साहब को मैं और मेरा परिवार खामोश अंदाज में तब तक निहारता रहा, जब तक वे सज्जन टिप्पन टॉप के ठीक सामने, विपरीत दिशा में पार्क अपनी हरे रंग की जोंगा जीप में नहीं बैठ गए थे। और फिर उसे मोड़कर हमारे सामने की सड़क से, अंग्रेजों के जमाने के उस गिरजाघर के लॉन में खेल रहे मेरे दोनों बच्चों की तरफ खिड़की से हाथ हिलाते हुए वहाँ से निकल नहीं गए थे। मैं और मेरी धर्म-पत्नी यह देखकर हैरान थे कि ड्राइविंग सीट पर बैठे उन ब्रिगेडियर साहब के बगल की सीट पर एक अधेड उम्र संभ्रांत महिला भी बैठी थी।
उस वक्त में हमारे पास एक ११०० सीसी की प्रीमियर पद्मिनी की फिएट कार हुआ करती है। बड़े गर्व से उसकी सवारी करते हुए मैं, सपरिवार घूमने जब कहीं निकलता था तो उसकी डिक्की में एक दरी, एक या दो फोल्डिंग कुर्सी, एक छोटा सा चुल्हायुक्त गैस सिलेंडर,चाय बनाने के बर्तन और चाय का सामान ले जाना नहीं भूलता था। लम्बे सफ़र पर वह इसलिए भी हम जरूरी समझते थे, चूंकि बच्चे छोटे थे,और जहां जरुरत महसूस हुई सड़क किनारे गाडी पार्क कर दूध गर्म कर उन्हें पिलाने में भी सहूलियत रहती थी। इस बार भी हम दिल्ली से पूरे चार दिन का प्रोग्राम लेकर पूरे बोरिया-बिस्तर समेत लैंसडाउन भ्रमण को निकले थे। लैंसडाउन से मुझे इसलिए भी एक विशेष लगाव है कि मेरी शुरुआती शिक्षा यहीं के सेंट्रल स्कूल से हुई थी। बचपन में मैं करीब पांच साल यहाँ रहा था।
सुनशान पड़े गिरजाघर के गेट के ठीक सामने गाडी पार्क कर मैं, अपनी पत्नी और बच्चों को बांज, देवदार और काफल के पेड़ों से घिरी पहाड़ की चोटी के ठीक ऊपर खड़े उस बड़े से पत्थर पर ले गया था, जिसे टिप्पन-टॉप के नाम से जाना जाता है। हालाँकि पत्थर के ठीक ऊपर से नीचे झाँकने पर शरीर में एक स्वाभाविक सिहरन सी दौड़ जाती है, किन्तु साफ मौसम में उस स्थान से आगे की ओर का दृश्य बहुत ही मनमोहक और आँखों को शुकून पहुंचाने वाला होता है। हरे-भरे पहाड़ और सुदूर उस तरफ तिब्बत तक फैला धवल चादर ओढ़े गढ़वाल हिमालय का विहंगम दृश्य, सफ़ेद बर्फ से आछांदित पहाड़ियों पर जब उगते और डूबते सूर्य की किरणे पड़ती है , तो वह दृश्य देखते ही बनता है।
उस समय बच्चे न सिर्फ छोटे थे अपितु शरारती भी बहुत थे, खासकर तब तीन साल की बेटी। अत: थोड़ी देर टिप्पन-टॉप से हिमालय को टकटकी लगाकर देखने के उपरान्त हम उस समीप के गिरजाघर के आँगन में आ गए थे, जो अक्सर वीरान ही पडा रहता है। छोटे बच्चे साथ में होने की वजह से भी एक तो वह जगह थोड़ी सुरक्षित थी, साथ ही वहाँ से भी हिमालय की झलक हमें खूब मिल रही थी। कुर्सी और दरी आँगन में बिछाकर मेरी पत्नी ने चाय और दूध गर्म करने की तैयारी शुरू ही की थी, मैं डिक्की से सामान निकाल-निकाल कर उसके समीप रखे जा रहा था कि तभी बच्चों से बतियाते हुए सामने के छोर से वह सज्जन हमारे समीप आ गए थे। 'हाय-हैलो' के उपरान्त मैंने शिष्टता से एक फोल्डिंग कुर्सी उनकी तरफ सरका दी और उन्हें बैठने का आग्रह करते हुए खुद दरी में बैठ गया था। पत्नी ने गर्मा-गर्म चाय बनाकर जब दो प्यालिया हमें परोसी तो वे हमारे इस आइडिये की दाद देते हुए मुस्कुराते हुए बोले कि चलो आपसे सीखने को एक बढ़िया चीज मिली आज कि कहीं घूमने निकलो तो ये सामान भी साथ लेकर चलना जरूरी है, खासकर पहाडी इलाकों की यात्रा में तो। मैंने भी मुस्कुराकर उनकी बात का समर्थन किया और फिर चाय की चुसकिया लेते हुए आपसी परिचय से शुरू हुई बात उस वक्त की दिल्ली की सल्तनत पर आ पहुँची थी।
उनकी गाडी के वहाँ से निकल जाने के बाद मैं और मेरी धर्म-पत्नी मन में पैदा हुए एक ख़ास किस्म के अपराध-बोध से गर्सित होकर एक दूसरे को घूर रहे थे कि मेरी पत्नी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा " यार कम से कम तुम तो मुझे बता देते कि उन अंकल जी के साथ में एक आंटी भी है, एक कप चाय………. बेचारी वहाँ अकेली जीप में बैठी …।" "यार भाई, मैंने भी नहीं नोटिस किया था, मैंने भी अभी देखा उस आंटी को फ्रंट सीट पर बैठे हुए, मैं तो उलटे तुम्हे डपटने वाला था कि अगर तुमने उस आंटी को देख लिया था तो ज़रा उन्हें भी पूछ लेती" खैर छोड़ो, उस बुड्ढे ने भी तो नहीं बताया इतनी देर तक कि उनके साथ कोई और भी है…… मैंने कुढ़ते-झुंझलाते अपनी खीज बाहर निकालते हुए पत्नी से कहा। उसके बाद कुछ देर तक हम लोग उन ब्रिगेडियर साहब पर ही बातें करते रहे थे।
अभी हमारे पास दो दिन का समय बाकी था। अत: अगली सुबह, लैंसडाउन रोडवेज बस अड्डे के समीप जिस छोटे से होटल में हम लोग ठहरे हुए थे, दिन-भर बाहर ही गुजारने की मंशा से उस होटल के कर्मचारी से कहकर मेरी पत्नी ने दस आलू के पराठे और दही पैक करवा लिया था, ताकि दिन में लंच पर भी गैस स्टोव पर पराठे गरम कर उन्ही से दिन का जुगाड़ भी हो जाए। सूरज उगते ही हम पुन: टिप्पन-टॉप पर उसी स्थान पर पहुँच गए थे। यह देख हमारे उत्साह मिश्रित आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि उन रिटायर्ड ब्रिगेडियर साहब की जोंगा गाडी कल वाले निर्धारित स्थान पर ही पार्क थी और वह वृद्ध जोड़ा टिप्पन- टॉप पर बने सीमेंट-कंक्रीट के ढाँचे पर पीठ टिकाये एक टक हिमालय को ही निहारे जा रहा था।
गाडी से उतरकर मैंने अपनी ३ साल की बिटिया जोकि अभी सो ही रही थी को गोदी पर उठाया और धर्मपत्नी ने सात वर्षीय हमारे बेटे का हाथ पकड़ा और हम भी उस संकरी पगडंडी पर आहिस्ता-आहिस्ता टिप्पन-टॉप की तरफ बढ़ने लगे। समीप पहुचे ही थे कि ब्रिगडियर साहब की नजर हम पर पडी और वे अपना दांया हाथ हिलाते हुए मोटी आवाज में गरजे " हेलो " ! हम दोनों ने भी हाथ जोड़कर उन दोनों का अभिवादन किया, और ब्रिगेडियर साहब फूर्ती से उठकर झट से हमारे बेटे का हाथ पकड़कर उसे उस सीमेंट कंक्रीट के बने आसन पर ले गए, जहां वे लोग बैठे हुए थे। हम लोग भी समीप जाकर खड़े हुए तो ब्रिगेडियर साहब ने उस अधेड़ उम्र आंटी की तरफ हाथ का इशारा करते हुए कहा "माय वाइफ़, प्रतिभा राणा !" हम दोनों ने एक बार पुन: हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया, और मेरी पत्नी उनकी बगल पर जाकर बैठ गई। मैं बेटी को गोदी में पकड़ा खडा था, ब्रिगेडियर साहब को शायद मेरी बेटी का अभी तक सोते अच्छा लग रहा था अत: वे खड़े हुए और हथेली से मेरी बेटी के गाल थपथपाते हुए बोले " बेक अप बेबी, कमॉन वेक अप ". उनकी भारी-भरकम आवाज सुन अब वह भी जाग गई थी।
काफी देर तक हम लोग यूं ही बातो में मशगूल रहे, फिर ब्रिगेडियर साहब ने अपनी धर्म-पत्नी की तरफ इशारा करते हुए प्रश्नवाचक मुद्रा में कहा" चले "? बिना उनकी पत्नी का जबाब सुने मैंने ब्रिगेडियर साहब से सवाल किया "आर यू इन अ हरी" ?
वे फक्कड़ से अंदाज में मुस्कुराते हुए बोले " नहीं साहब, अपने पास तो टाइम ही टाइम है…लौटेंगे भी तो शाम को यहाँ से कोटद्वार के लिए निकलेंगे, मैं तो इनको नाश्ते के लिए आर्मी के ऑफिसर मेस चलने की बात कर रहा था….आप भी चलो हमारे साथ…।बस यहीं पर करीब एक किलोमीटर आगे जहां पर यहाँ का जो एक अकेला सिनेमाघर है, उसी के पास में ही है। उनकी बात सुनकर मैंने अभी सिर्फ इतना ही कहा था कि या आई एम् वेल ऐक्विंटेड विद आळ द प्लेसेस हेयर कि तभी मेरी धर्म-पत्नी ने साथ लाये दही-पराँठों की कहानी मेसेज राणा से छेड़ दे थी। ब्रिगेडियर राणा भी झट से सहमत होते हुए बोले " अगर आपको कोई दिक्कत नहीं है तो यह तो हमारा सौभाग्य होगा बेटे कि तुम्हारे हाथ की बनी स्वादिष्ट चाय का भी मैं एक बार फिर से लुत्फ़ उठा सकूं।
फिर हम सभी लोग वहां से झटपट गिरजाघर के आँगन में उसी जगह पर आ पहुंचे जहां पर बीता दिन गुजारा था। गाडी की डिक्की से फ़टाफ़ट सामान बाहर निकाल कर हम गिरजाघर के आँगन में सजाने लगे। दोनों बच्चे खेलने में मशगूल हो गए थे। चूँकि वह सड़क उधर से केन्द्रीय विद्यालय को जाती है और साथ ही कैंट एरिया होने की वजह से आगे आर्मी के वाहनों की वर्क-शॉप भी है, अत: उस सड़क पर यदा-कदा आर्मी के वन-टन, थ्री-टन गुजर जाते है, अत: मेसेज राणा बार-बार मेरे सात वर्षीय बेटे को देती थी " बब्बू, काक्की का ध्यान रखो बेटे, वो सड़क पे न चली जाए, आप उसके बड़े भैया हो……. "
गरमागरम चाय, दही-पराठों का लुफ्त उठाते हुए मेरी पत्नी ने एक अलग राग छेड़ते हुए ब्रिगेडियर साहब से सवाल किया " अंकल आप कुमाऊँ के हैं और आंटी हरियाणा की……. आपने यह नहीं बताया कि आप दोनों की पहली मुलाक़ात कहाँ हुई थी ? ब्रिगेडियर साहब ने एक ठहाका लगाया, और बोले " बेटे हमारा भी अपनी जवानी के दिनों में ऐसे ही एक एक्सीडेंट हो गया था। तब मेरी नई-नई पोस्टिंग अम्बाला कैंट में थी। एक दिन सुबह करीब साढ़े नौ, दस बजे बीपीटी से लौटते हुए मैं बहुत थका- प्यासा इनके गाँव की सड़क, जोकि एक छोटा हाईवे था, पर चला जा रहा था कि सड़क किनारे मुझे एक ढाबानुमा दूकान दिखी, काउंटर पर चुनर ओढ़े एक लडकी बैठी थी। मैंने कहाँ, बहुत प्यास लगी है थोड़ा पानी मिलेगा? अनादर से एक खनकती हुई आवाज आई, चुल्लू आगे करो। मेरी कुछ समझ में नहीं आया क्योंकि मुझे मालूम नहीं था कि चुल्लू क्या होता है अत: मैं उस लडकी के चेहरे पर देखने लगा। फिर एक खिलखिलाहट मेरे कानो से गुजरी और उस लडकी ने अपनी दोनों हथेलियाँ आपस में जोड़कर अपने मुहँ पर लगाईं और बोली, अरे बुददू ऐसा करो और बस हम उसी वक्त दिल दे बैठे।
उनकी बात सुन हम तीनो की नजरें मिसेज राणा पर ही टिकी थी और हमें महसूस हो रहा था कि वे कुछ-कुछ लजाते हुए मुस्कुराने की कोशिश कर रही थी। उन लोगो से इतनी सी मुलाक़ात में हमें कहीं ऐसा नहीं महसूस हो रहा था कि ये लोग कोई अजनबी है। और फिर मेरी पत्नी ने मानो उस वृद्ध जोड़े की दुखती रग छेड़ दी थी। उसने पूछा, आंटी, आपके बच्चे…….! मैंने नोट किया कि ब्रिगेडियर साहब बात घुमाना चाहते थे किन्तु मेरी बीबी कहाँ मानने वाले थी। उसने अब अपने सवाल का गोला ब्रिगेडियर साहब पर ही दागा, अंकल, आपके बच्चे…….!
मैं नोट कर रहा था कि आंटी ( मिसेज राणा ) की सुर्ख आँखे नम होती जा रही थी। इससे पहले कि ब्रिगेडियर साहब कुछ कहते, भारी आवाज में आंटी ने कहना शुरू किया " एक ही बेटा था, करीब चौदह साल का हो गया था, ऊपर वाला हमसे छीनकर ……." यह सुनकर हम दोनों पति-पत्नी के मुहं से एक साथ निकला "ओह, आई अम सॉरी…….!" जहां एक और मन ही मन मैं अपनी धर्म-पत्नी को बेवजह उनके जख्म कुरेंदने के लिए कोस रहा था, वहीं मैंने महसूस किया कि वह आंटी अपने मन के संताप को बाहर निकालने के लिए भी व्याकुल थी, इसलिए उसके बाद मैंने खुद को कोई प्रतिक्रिया देने से रोक लिया था।
उस ठन्डे प्रदेश में गुनगुनी धुप खिली हुई थी, ब्रिगेडियर साहब भी नजरें झुकाए खामोश बैठे थे। आंटी ने दर्द भरी आवाज में आगे बोलना शुरू किया " इनकी पोस्टिंग उस वक्त गुरुदासपुर के तिब्डी कैंट में थी। कुछ दिनों से अक्सर सुबह उठकर ये मुझसे कहा करते थे कि आजकल मुझे रात को बुरे-बुरे सपने आ रहे है। फिर एक दिन इन्होने कहा कि इस आने वाले वीकेंड पर ऑफिसर्स और जेसिओज की फेमलियाँ पाकिस्तान बोर्डर पर घूमने जा रही है, अत: तुम भी तैयार रहना। यहाँ से ख़ास दूर नहीं है, तुम्हे वह स्थान भी दिखाऊंगा जहाँ १९ ६५ की लड़ाई में मैं घायल हुआ था। और फिर शनिवार के दिन हम और बाकी फ़ौजी लोग सिविल ड्रेस में पाकिस्तान बोर्डर की तरफ घूमने निकल पड़े। हमारा बेटा यह सोचकर उत्तेजित था कि आज वह पाकिस्तान बोर्डर को करीब से देखेगा।
वहाँ पहुंचकर इन लोगो ने दूरबीन की मदद से पाकिस्तानी पोस्टों और उनके सुरक्षाकर्मियों को हमें दिखाया। हमने वे स्थान भी देखे जहां पैंसठ और इकत्तर की लड़ाई में गिरे बमों से जमीन पर बड़े-बड़े गड्ढे अभी भी विद्यमान थे। काफी देर घूमने के बाद हम लोग वहाँ मौजूद एक पेड़ की छाँव में सुस्ताने बैठ गए। ये दोनों-बाप-बेटे आपस में मजाक करते हुए पाकिस्तानी फौजियों पर जोक्स सुना रहे थे। हमारा बेटा पेड़ के तने पर पाकिस्तान के बोर्डर की तरफ मुह करके बैठा था, और हम दोनों उसकी तरफ मुह किये बैठे थे। अपने साथ ले जाये हुए बिस्किट और कुरकुरे खाते हुए कुछ देर हम मौज-मस्ती करते रहे। दोनों बाप-बेटों के बीच चुटकले सुनाने का दौर जारी था, और हमारे बेटे ने जब एक जोक्स सुनाया तो आदतन इन्हें जब कोई बात बहुत बढ़िया लगती तो ये हँसते हुए इनके समीप बैठे व्यक्ति के पीठ अथवा जाँघ पर अपने हाथ से थाप मारते थे। उस वक्त भी बेटे का सुनाया चुटकला सुनकर जब हम दोनों हँसे तो ये मेरी पीठ पर थाप मारने को मेरी तरफ झुके और जैसे ही इनका झुकना हुआ पाकिस्तान की तरफ से एक गोली आयी, जो अगर ये मेरी तरफ उस वक्त मेरी पीठ पर थाप मारने न झुकते तो इनकी पीठ पर लगती किन्तु, चूँकि ये बाई तरफ झुक गए थे, अत: वह गोली सीधे हमारे बेटे के सीने को चीरते हुए निकल गई …।
राणा आंटी की बूढ़ी आँखे बुरी तरह डब-डबा आई थी। घुटी सी आवाज में फिर उन्होंने कहा, मेरा नसीब देखिये, एक ही गोली के निशाने पर एक तरफ अपना पति था और दूसरी तरफ अपना बेटा !