Tuesday, January 19, 2021

विचलन..

टलोलता ही फिर रहा हूँ उम्र को, 

तभी से मैं हर इक दराज़ मे,

जबसे, कुछ अजीज ये कह गये कि

'परचेत' तू अब, उम्रदराज़ हो गया।


7 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21.01.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  2. आदरणीय पी.सी.गोदियाल "परचेत" जी,
    चार पंक्तियों में बेहद गहरी बात बहुत सहजता से आपने बयां कर दी है।
    साधुवाद 🙏
    सादर शुभकामनाएं,
    डॉ. वर्षा सिंह

    ReplyDelete
  3. वाह बहुत खूब 👌🏻

    ReplyDelete

उपजीवी !

मिली तीन-तीन गुलामियां तुमको प्रतिफल मे, और कितना भला, भले मानुष ! तलवे चाटोगे। नाचना न आता हो, न अजिरा पे उंगली उठाओ, अरे खुदगर्जों, जैसा ब...