क्योंकि तुम भी
इस खुशफहमी में हो कि
शहर इक खुशनुमा जिन्दगी
जीने का आधार है,
तभी तो तुम्हे
शहरी जिन्दगी से
इतना प्यार है।
मगर ये बात परम सत्य नही,
तुम्हे कैसे समझाऊ ?
यहाँ सांझ ढलने के बाद,
लोग कैसे जीते है ,
तुम्हे क्या बताऊ ?
अरे नासमझ,
गांव एवं शहर की जिन्दगी मे,
फर्क हैं नाना ,
शहरी जिन्दगी देखनी हो,
तो कभी मेरे शहर आना।
तुम्हे दिखाऊंगा कि
कथित विकास की आंधी मे,
मेरा शहर कैसे जीता है,
प्यास बुझाने को
पानी के बदले , पेट्रोल-डीजल,
मिनरल और ऐल्कोहल पीता है।
क्या घर, क्या शहर,
हर दिन-हर रात की मारा-मारी में,
वो सिर्फ जीने के लिए जीते है,
जीवन की इस जद्दोजहद में
क्या शेर, क्या मेमना,
सबके सब एक ही घाट का पीते है।
ऊँचा उठने की चाहत में,
मकान-दूकान, सड़क-रेल,
यहाँ सबके सब टिके है स्तंभों पर,
जिन्दगी भागती सरपट
कहीं जमीं के नीचे तो कहीं
खामोश लटकती खम्बों से खम्बों पर।
गगनचुम्बी इमारतों में
मंजिल तक पहुँचने को पैर,
लिफ्ट ढूंढते है ,खुद नहीं बढ़ते !
ऊँचे-ऊँचे शॉपिंग मॉल पर ,
सीडियों से चड़ते -उतरते वक्त
कहीं घुटने नहीं भांचने पड़ते।
एक बहुत पुराने किले का खंडहर
जो चिड़ियाघर के पास है ,
वो आजकल अपने में ख़ास है,
क्योंकि वहाँ पर अब
भरी दोपहर में भी
अतृप्त आत्माओं का वास है।
राजा से लेकर रंक तक,
यहाँ विचरण करती,
हर तरह की हस्ती हैं,
एक तरफ जिन्दादिलों
तो एक तरफ
मुर्दा-परस्तो की बस्ती है।
कहीं पर इस शहर में,
कोई अभागन,
देह बेचकर भी दिनभर
भरपेट नहीं जुटा पाती है,
और कहीं कोई नई दुल्हन
मंडप पर दुल्हे को
वरमाला पहनाने हेतु,
क्रेन से भी उतारी जाती है।
मैं हैरान स्तंभित नजरो से
देख-देखकर सोचता हूँ
कि इस सहरा में
बिन बरखा, बिन बाली ,
वन्दगी गाती है कौन सा तराना,
ऐ दोस्त ! शहरी जिन्दगी देखनी हो,
तो कभी मेरे इस शहर आना।
इस खुशफहमी में हो कि
शहर इक खुशनुमा जिन्दगी
जीने का आधार है,
तभी तो तुम्हे
शहरी जिन्दगी से
इतना प्यार है।
मगर ये बात परम सत्य नही,
तुम्हे कैसे समझाऊ ?
यहाँ सांझ ढलने के बाद,
लोग कैसे जीते है ,
तुम्हे क्या बताऊ ?
अरे नासमझ,
गांव एवं शहर की जिन्दगी मे,
फर्क हैं नाना ,
शहरी जिन्दगी देखनी हो,
तो कभी मेरे शहर आना।
तुम्हे दिखाऊंगा कि
कथित विकास की आंधी मे,
मेरा शहर कैसे जीता है,
प्यास बुझाने को
पानी के बदले , पेट्रोल-डीजल,
मिनरल और ऐल्कोहल पीता है।
क्या घर, क्या शहर,
हर दिन-हर रात की मारा-मारी में,
वो सिर्फ जीने के लिए जीते है,
जीवन की इस जद्दोजहद में
क्या शेर, क्या मेमना,
सबके सब एक ही घाट का पीते है।
ऊँचा उठने की चाहत में,
मकान-दूकान, सड़क-रेल,
यहाँ सबके सब टिके है स्तंभों पर,
जिन्दगी भागती सरपट
कहीं जमीं के नीचे तो कहीं
खामोश लटकती खम्बों से खम्बों पर।
गगनचुम्बी इमारतों में
मंजिल तक पहुँचने को पैर,
लिफ्ट ढूंढते है ,खुद नहीं बढ़ते !
ऊँचे-ऊँचे शॉपिंग मॉल पर ,
सीडियों से चड़ते -उतरते वक्त
कहीं घुटने नहीं भांचने पड़ते।
एक बहुत पुराने किले का खंडहर
जो चिड़ियाघर के पास है ,
वो आजकल अपने में ख़ास है,
क्योंकि वहाँ पर अब
भरी दोपहर में भी
अतृप्त आत्माओं का वास है।
राजा से लेकर रंक तक,
यहाँ विचरण करती,
हर तरह की हस्ती हैं,
एक तरफ जिन्दादिलों
तो एक तरफ
मुर्दा-परस्तो की बस्ती है।
कहीं पर इस शहर में,
कोई अभागन,
देह बेचकर भी दिनभर
भरपेट नहीं जुटा पाती है,
और कहीं कोई नई दुल्हन
मंडप पर दुल्हे को
वरमाला पहनाने हेतु,
क्रेन से भी उतारी जाती है।
मैं हैरान स्तंभित नजरो से
देख-देखकर सोचता हूँ
कि इस सहरा में
बिन बरखा, बिन बाली ,
वन्दगी गाती है कौन सा तराना,
ऐ दोस्त ! शहरी जिन्दगी देखनी हो,
तो कभी मेरे इस शहर आना।
nice poetry, full of emotions!
ReplyDeleteदिल को सिर्फ छूती हुई नहीं बल्कि उसके भीतर जाके उसके घावों को कुरेदती हुई सी कविता लिखी आपने,,, शहर मुझे भी कभी पसंद नहीं आये...
ReplyDeleteजय हिंद...
नंगा सच...पर हम सब का भोगा हुआ सच..हम सब के भीतर का सच..
ReplyDeleteजिंदगी को आईना दिखा दिया आपने।
ReplyDeleteबधाई इस सफल प्रस्तुति के लिए।
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11वाँ राष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मेलन।
गूगल की बेवफाई की कोई तो वजह होगी?
सुन्दर रचना , बधाई
ReplyDeleteufff! aapke lekhan ne rongte khade kar diye.........dil mein bahut gahre utar gayi.........sach ko aaina dikhti rachna .......ab kahne ko bacha kya hai.
ReplyDeleteशहरी जिन्दगी देखनी हो,
ReplyDeleteतो कभी,
मेरे शहर आना !!
बेहतरीन अभिव्यक्ति, स्खलित हो रहे शहरी संस्कृति को बखूबी उकेरा है
किसी शायर का एक मिसरा याद आ गया " आज ये शहर खफा है के मै सच बोलता हूँ " आपने शहर के बारे मे जो सच बयाँ किया है उससे यही लगता है । अजीब है यह शहर मे रह्ना भी मन होत है कि रहें और यह भी कि यहाँ न रहें ।
ReplyDeleteअजब बात कही कि जान ही नहीं पड़ता
ReplyDeleteभला ये तेरा शहर या कि ये मेरा शहर है...
आदमी के अंदर भी एक ऐसा ही शहर होता है।
ReplyDeleteaapke shahar aaye hue ko jara mere shahar bhi bhej dena taaki dekh le ki har shar ki hoti ek si dastan.
ReplyDelete"क्या घर, क्या शहर,
ReplyDeleteहर दिन-हर रात की
मारा-मारी में,
वो सिर्फ जीने के लिए जीते है!"
सही है, जीने का कोई उद्देश्य नहीं रह गया है, सिर्फ जीने के लिये जीते हैं!
बहुत खुब लिखी आप ने यह रचना दिल के तारो को छु गई.धन्यवाद
ReplyDeleteजिन्दगी का कच्चा चिट्ठा या कहें सच्चा चिट्ठा
ReplyDelete@"कहीं मेरे इस शहर में,
ReplyDeleteकोई अभागन,
देह बेच कर भी दिनभर
भरपेट नहीं जुटा पाती है !
और कहीं,
कोई नई सुहागन ,
दुल्हे को वरमाला पहनाने हेतु,
क्रेन से उतारी जाती है !!"
Kamaal ka observation ! Very moving poem indeed !
बहुत सुन्दर रचना…………………!!!!
ReplyDeleteअरे नासमझ,
ReplyDeleteगांव एवं शहर की जिन्दगी मे,
फर्क हैं नाना !
शहरी जिन्दगी देखनी हो,
तो कभी
मेरे शहर आना !!
बहुत सुंदर और शानदार रचना लिखा है आपने! हर एक पंक्तियाँ लाजवाब है! दिल को छू गई आपकी ये रचना!
शहरी जिन्दगी देखनी हो,
ReplyDeleteतो कभी
मेरे शहर आना ।
सच को उजागर करते शब्द हर पंक्ति को बेमिसाल बना गये, जीवन की जद्दोजहद लाजवाब प्रस्तुति ।
शहरी जिन्दगी देखनी हो,
ReplyDeleteतो कभी,
मेरे शहर आना !!
दिल से निकली आवाज़ है ....
जिंदगी को आईना दिखा दिया आपने।
ReplyDeleteबधाई इस सफल प्रस्तुति के लिए।
LAJWAAB
लाजवाब पंक्तियाँ
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