यों तो अक्सर यह शहर रेंगता ही रहता है, मगर कल तो देश की राजधानी का सेहरा सिर पर लिए यह शहर कुछ पलो के लिए ठहर सा गया था! अनुमान के हिसाब से करीब ६ लाख वाहन घंटो फसे रहे जाम में ! तेल खपत का अनुमान लगाया जाए तो इस जाम की वजह से अगर औसतन डेड लीटर तेल भी प्रति वाहन बेकार में जला है तो जिसका सीधा मतलब है कि करीब १० लाख लीटर पेट्रोल यूं ही धुआ हो गया ! यानी देश का करीब चार करोड़ रूपये स्वाह , इसके अलावा जो घंटो फंसे रहने से लोगो का आर्थिक और अन्य नुकशान हुए, वह अलग ! मगर चिंता किसे है ? ये तो इस देश में मामूली सी बात है ! महंगाई की वजह से लोगो के पास खाने के लाले पड़े हो, उससे सत्ता संभाले बैठे नेताओ पर क्या फर्क पड़ता है? अगर फर्क पड़ता है देश पर और उस गरीब मजदूर पर जो दिन भर मेहनत करके सौ -पचास रूपये जुटा पाता है, तो पड़े, इन्हें इससे क्या लेना ? जैसी कि किसानो ने धमकी दी कि अगर मांगे न मानी तो वे अपना गन्ना खेतो में भी जला लेंगे , तो जलाए, ये लोग चीनी आयात कर लेंगे , थोड़ा बहुत इन्कम वहा से भी हो जायेगी ! इनकी तो पांचो उंगलिया फिर भी घी में और सिर कड़ाई में ही रहने वाला है ! सब चोखा ही चोखा !
जिन पर जिम्मेदारी थी वे तो बुढापे और कृतज्ञंता की वजह से अपने विवेक का इस्तेमाल कर नहीं पाते, या करने नहीं दिया जाता! अत: तब सक्रीय होते है जब आंटी अथवा भैया कोई निर्देश उन्हें दे ! अगर मांगे माननी ही थी तो पहले क्यों नहीं, यह सब बखेड़ा खडा करने की जरुरत क्या थी ? पर तब इसके "श्रेय" का सेहरा भैया के सिर नहीं बंध पाता, पते की बात तो यह है ! देश का क्या, चलता ही रहता है, किसे फिक्र ? उसके अलावा गुणगान करवाने के लिए अपने पास सेकुलर मीडिया भी बहुतायात में है, जिसे किसानो की चिंता कम और इस बात की चिंता ज्यादा सता रही है कि जिस तरह सभी विपक्षी दल रैली में एक जुट दिखे, अगर सभी जगह इसी तरह एक जुट हो गए तो इनकी प्रिय पार्टी का क्या होगा ? इसीलिए कल एक सम्मानित अंग्रेजी न्यूज़ सेकुलर मीडिया के एंकर के मुख से एक प्रोग्राम के अंत में वह बात निकल ही गई कि क्या आपलोग इसी तरह बीजेपी के साथ मिलकर उ. प. में चुनाव भी लड़ोगे ? किसानो की किसे फिर्क ? इन पढ़े लिखे नौजवानों को फिक्र तो बस अपनी प्रिय पार्टी की है ! अगर पढलिख कर इन लोगो की यही सोच है, तो मैं तो कहूंगा कि भगवान् बचाए इस देश को इन पढ़े लिखो से ! इनसे बढ़िया तो वे ५० से ७० के दशक के अनपढ़ अंगूठा छाप ही थे जो कम से कम देश के लिए कुछ तो सोचते थे !
जिन पर जिम्मेदारी थी वे तो बुढापे और कृतज्ञंता की वजह से अपने विवेक का इस्तेमाल कर नहीं पाते, या करने नहीं दिया जाता! अत: तब सक्रीय होते है जब आंटी अथवा भैया कोई निर्देश उन्हें दे ! अगर मांगे माननी ही थी तो पहले क्यों नहीं, यह सब बखेड़ा खडा करने की जरुरत क्या थी ? पर तब इसके "श्रेय" का सेहरा भैया के सिर नहीं बंध पाता, पते की बात तो यह है ! देश का क्या, चलता ही रहता है, किसे फिक्र ? उसके अलावा गुणगान करवाने के लिए अपने पास सेकुलर मीडिया भी बहुतायात में है, जिसे किसानो की चिंता कम और इस बात की चिंता ज्यादा सता रही है कि जिस तरह सभी विपक्षी दल रैली में एक जुट दिखे, अगर सभी जगह इसी तरह एक जुट हो गए तो इनकी प्रिय पार्टी का क्या होगा ? इसीलिए कल एक सम्मानित अंग्रेजी न्यूज़ सेकुलर मीडिया के एंकर के मुख से एक प्रोग्राम के अंत में वह बात निकल ही गई कि क्या आपलोग इसी तरह बीजेपी के साथ मिलकर उ. प. में चुनाव भी लड़ोगे ? किसानो की किसे फिर्क ? इन पढ़े लिखे नौजवानों को फिक्र तो बस अपनी प्रिय पार्टी की है ! अगर पढलिख कर इन लोगो की यही सोच है, तो मैं तो कहूंगा कि भगवान् बचाए इस देश को इन पढ़े लिखो से ! इनसे बढ़िया तो वे ५० से ७० के दशक के अनपढ़ अंगूठा छाप ही थे जो कम से कम देश के लिए कुछ तो सोचते थे !
इनसे बढ़िया तो वे ५० से ७० के दशक के अनपढ़ अंगूठा छाप ही थे जो कम से कम देश के लिए कुछ तो सोचते थे !
ReplyDeletebilkul sahi kah rahe hain aap.....
bahut achchi lagi yeh post....
मित्र, इस प्रगतिशील मीडिया के लिए किसानों के गन्ना-आंदोलन से कहीं ज्यादा बड़ा है, सचिन के 20 और 30 हजार रन बनाना। जैसे सचिन ने कोई बहुत बड़ी क्रांति कर डाली हो।
ReplyDeleteसरकार इस मुद्दे पर राजनीति के अतिरिक्त कुछ और नहीं कर रही।
कुछ नहीं होने वाला....बस सब कुछ ऎवें ही चलते रहने वाला है ...
ReplyDeleteइनसे बढ़िया तो वे ५० से ७० के दशक के अनपढ़ अंगूठा छाप ही थे जो कम से कम देश के लिए कुछ तो सोचते थे !
ReplyDeletesahmat hoon aapse !