बहा ले जाए जो सुप्त-थमे हुए दरिया में भी ,
यहाँ हर तरफ ऐसी ही मौजो के सफीने है,
गाँव में ही रहो ,इस शहर मत आना पगली,
क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है।
माँ को माँ नहीं समझते, बहन को बहन नहीं,
बेरहमी का मंजर ये है ,इनमें कोई जहन नहीं,
अँगुली की मुन्दरिया के खोटे सब नगीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
और तो और, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है।
प्यास बुझाने को भी तोल के मिलता पानी है,
दीन-ईमान की बात , सबके सब बेईमानी है,
बेचने को समेटते बूँद-बूद टपके हुए पसीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
तुम क्या जानो, यहाँ के पत्थर भी कमीने है।
बेशर्मी का आलम ऐसा,शर्म न इनकी नाक में है,
किसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
मार्बल के चेहरे इनके, किंतु तारकोल के सीने है,
गाँव में ही रहना , इस शहर मत आना पगली,
तुम्हे नहीं मालूम, यहाँ के पत्थर भी कमीने है !
यहाँ हर तरफ ऐसी ही मौजो के सफीने है,
गाँव में ही रहो ,इस शहर मत आना पगली,
क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है।
माँ को माँ नहीं समझते, बहन को बहन नहीं,
बेरहमी का मंजर ये है ,इनमें कोई जहन नहीं,
अँगुली की मुन्दरिया के खोटे सब नगीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
और तो और, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है।
प्यास बुझाने को भी तोल के मिलता पानी है,
दीन-ईमान की बात , सबके सब बेईमानी है,
बेचने को समेटते बूँद-बूद टपके हुए पसीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
तुम क्या जानो, यहाँ के पत्थर भी कमीने है।
बेशर्मी का आलम ऐसा,शर्म न इनकी नाक में है,
किसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
मार्बल के चेहरे इनके, किंतु तारकोल के सीने है,
गाँव में ही रहना , इस शहर मत आना पगली,
तुम्हे नहीं मालूम, यहाँ के पत्थर भी कमीने है !
तुम गांव में ही रहो ... बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteवाह-वाह क्या बात है गो्दियाल साब मजा आ गया,
ReplyDeleteभाभी जी गांव से शहर से आ गयी तो भंडा फ़ूट जाएगा और सारा राज खुल जाएगा इसलिए कितने प्रेम से भाभी जी को आप शहर डरा रहे हो,
पगली रह गई पगली की पगली
साहब ने शहर मे दुसरी रख ली
हा हा हा- नाईस, बड़े काम की चीज लि्खी है,
कईयों के काम आयेगी-हा हा हा
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
ReplyDeleteक्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !
आक्रामक कविता ....:)
गोदियाल साहब जीवन की विसंगतियां देख गुस्सा तो आएगा ही न...बेहतरीन...
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है !!
ReplyDeleteपसंद आई। बढ़िया।
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है जनाब आपने, शानदार अभिव्यक्ति। बधाई
ReplyDelete"तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
ReplyDeleteक्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है!"
वाह! क्या बात कही है गोदियाल जी!!
गोदियाल जी,
ReplyDeleteआजकल अपने धर्मेंद्र भाजी खाली है...इन कमीनों का खून पीने के लिए उन्हें ठेका दे दीजिए...
जय हिंद...
बढ़िया लिखा है...
ReplyDeleteबेशर्मी का आलम ये, शर्म न इनकी नाक में है
ReplyDeleteकिसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
मार्बल के चेहरे इनके, तारकोल के जैसे सीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
तुम्हे नहीं मालूम, यहाँ तो पत्थर भी कमीने है !
wah! in panktiyon ne dill ko choo liya.....
bahut hi behtareen abhivyakti.......
क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !
ReplyDeleteJai ho....बेहतरीन रचना..... साधुवाद स्वीकारें....
'मार्बल के चेहरे इनके, तारकोल के जैसे सीने है'- सबसे बेहतरीन लगी ये पंक्ति। क्यूंकि हसीं चेहरों की इस दुनिया में मुखौटे कुछ ज़्यादा हो चले हैं।
ReplyDeleteतुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
ReplyDeleteक्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !
वाह क्या बात है। बहुत ही पसंद आई आपकी ये रचना।
सच शहर उतना ही बेरहम है जितना आपने लिखा है...शायद उस से एक कदम अधिक ही...बहुत सच्ची और अच्छी रचना..वाह...
ReplyDeleteनीरज
पत्थर भी कमीने हैं
ReplyDeleteऔर दिल भी पत्थर हैं
बहुत लाजवाब रचना.
ReplyDeleteरामराम.
बेशर्मी का आलम ये, शर्म न इनकी नाक में है
ReplyDeleteकिसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
य़थार्थ तो यही है
बेहतर है कि गाँव मे ही ---
बहुत ही सुन्दर हैखत उनके नाम ......पर क्या करें गोन्दियाल जी आजकल पत्थर तो गांव के भी कुछ अच्छे नही दिख रहे है वहा के फिजाओ मे भी कुछ शहरी कीडो का वास हो गया है !नीली फिल्मो ने वहा के पत्थर को भी कमीना बना दिया है !
ReplyDeleteरचना लय और ताल मे बधी है कि गुनगुनाने को जी चाहता है !
बहुत सुन्दर व सही।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
Har shahar me bhatakti hai
ReplyDeletekoi na koi pagli
Kyonki...
Har gaon me kameene hain...
Tu apne hi paas rahna pagli
Tere apne calander me hi
Teri zindagi ke maheene hain...
-Sainny Ashesh
माँ को माँ नहीं समझते, बहन को बहन नहीं,
ReplyDeleteबेरहमी का मंजर ये, मानो इनमें जहन नहीं
उंगली की मुन्दरिया के खोटे सब नगीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
और तो और, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !
बहुत ही सुंदर दिल को छ गई आप की यह रचना.
धन्यवाद
बेशर्मी का आलम ये, शर्म न इनकी नाक में है
ReplyDeleteकिसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
मार्बल के चेहरे इनके, तारकोल के जैसे सीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
तुम्हे नहीं मालूम, यहाँ तो पत्थर भी कमीने है !
बहुत वजनदार लिखा है!
बधाई!
बेशर्मी का आलम ये, शर्म न इनकी नाक में है
ReplyDeleteकिसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
मार्बल के चेहरे इनके, तारकोल के जैसे सीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
तुम्हे नहीं मालूम, यहाँ तो पत्थर भी कमीने है !
-बहुत सुन्दर, भाई जी!! बेहतरीन!!
बहुत ख़ूब।
ReplyDeleteशहरी जिन्दगी पर एक खूबसूरत कटाक्ष. पर क्या शहरों ऐसा हम सब ही नहीं बनाती, वरना आज के सब शहर कल गांव ही थे.
ReplyDeleteमाँ को माँ नहीं समझते, बहन को बहन नहीं,
ReplyDeleteबेरहमी का मंजर ये, मानो इनमें जहन नहीं
उंगली की मुन्दरिया के खोटे सब नगीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
और तो और, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !
ek behtreen kataksh hai shahar ki zindagi aur aaj ke halat par.
बहा ले जाए सुप्त-थमे हुए दरिया में भी जो ,
ReplyDeleteयहाँ हर तरफ ऐसी कुछ मौजो के सफीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है
excellent kya marmik abhivyakti hai
bandhai swikaren
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
ReplyDeleteऔर तो और, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !
बहुत बढ़िया ...जवाब नहीं
यहाँ तो पत्थर भी कमीने है !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना.
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