Friday, November 13, 2009

ख़त उसके नाम !

बहा ले जाए जो सुप्त-थमे हुए दरिया में भी ,
यहाँ हर तरफ ऐसी  ही  मौजो के सफीने है,
गाँव में ही रहो ,इस शहर मत आना पगली,
क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है।

माँ को माँ नहीं समझते, बहन को बहन नहीं,
बेरहमी का मंजर ये है ,इनमें कोई जहन नहीं,
अँगुली  की मुन्दरिया के खोटे सब नगीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
और तो और, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है।

प्यास बुझाने को भी तोल के मिलता पानी है,
दीन-ईमान की बात , सबके सब बेईमानी है,
बेचने को समेटते बूँद-बूद टपके हुए पसीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
तुम क्या जानो, यहाँ के पत्थर भी कमीने है।

बेशर्मी का आलम ऐसा,शर्म न इनकी नाक में है,
किसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
मार्बल के चेहरे इनके, किंतु तारकोल के सीने है,

गाँव में ही रहना , इस शहर मत आना पगली,
तुम्हे नहीं मालूम, यहाँ के पत्थर भी कमीने है !

29 comments:

  1. तुम गांव में ही रहो ... बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

    ReplyDelete
  2. वाह-वाह क्या बात है गो्दियाल साब मजा आ गया,
    भाभी जी गांव से शहर से आ गयी तो भंडा फ़ूट जाएगा और सारा राज खुल जाएगा इसलिए कितने प्रेम से भाभी जी को आप शहर डरा रहे हो,
    पगली रह गई पगली की पगली
    साहब ने शहर मे दुसरी रख ली
    हा हा हा- नाईस, बड़े काम की चीज लि्खी है,
    कईयों के काम आयेगी-हा हा हा

    ReplyDelete
  3. तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
    क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !

    आक्रामक कविता ....:)
    गोदियाल साहब जीवन की विसंगतियां देख गुस्सा तो आएगा ही न...बेहतरीन...

    ReplyDelete
  4. बहुत सुंदर अभिव्‍यक्ति है !!

    ReplyDelete
  5. पसंद आई। बढ़िया।

    ReplyDelete
  6. बहुत खूब लिखा है जनाब आपने, शानदार अभिव्यक्ति। बधाई

    ReplyDelete
  7. "तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
    क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है!"

    वाह! क्या बात कही है गोदियाल जी!!

    ReplyDelete
  8. गोदियाल जी,
    आजकल अपने धर्मेंद्र भाजी खाली है...इन कमीनों का खून पीने के लिए उन्हें ठेका दे दीजिए...

    जय हिंद...

    ReplyDelete
  9. बढ़िया लिखा है...

    ReplyDelete
  10. बेशर्मी का आलम ये, शर्म न इनकी नाक में है
    किसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
    मार्बल के चेहरे इनके, तारकोल के जैसे सीने है,
    तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
    तुम्हे नहीं मालूम, यहाँ तो पत्थर भी कमीने है !

    wah! in panktiyon ne dill ko choo liya.....

    bahut hi behtareen abhivyakti.......

    ReplyDelete
  11. क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !



    Jai ho....बेहतरीन रचना..... साधुवाद स्वीकारें....

    ReplyDelete
  12. 'मार्बल के चेहरे इनके, तारकोल के जैसे सीने है'- सबसे बेहतरीन लगी ये पंक्ति। क्यूंकि हसीं चेहरों की इस दुनिया में मुखौटे कुछ ज़्यादा हो चले हैं।

    ReplyDelete
  13. तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
    क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !

    वाह क्या बात है। बहुत ही पसंद आई आपकी ये रचना।

    ReplyDelete
  14. सच शहर उतना ही बेरहम है जितना आपने लिखा है...शायद उस से एक कदम अधिक ही...बहुत सच्ची और अच्छी रचना..वाह...
    नीरज

    ReplyDelete
  15. पत्थर भी कमीने हैं
    और दिल भी पत्थर हैं

    ReplyDelete
  16. बहुत लाजवाब रचना.

    रामराम.

    ReplyDelete
  17. बेशर्मी का आलम ये, शर्म न इनकी नाक में है
    किसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
    य़थार्थ तो यही है
    बेहतर है कि गाँव मे ही ---

    ReplyDelete
  18. बहुत ही सुन्दर हैखत उनके नाम ......पर क्या करें गोन्दियाल जी आजकल पत्थर तो गांव के भी कुछ अच्छे नही दिख रहे है वहा के फिजाओ मे भी कुछ शहरी कीडो का वास हो गया है !नीली फिल्मो ने वहा के पत्थर को भी कमीना बना दिया है !

    रचना लय और ताल मे बधी है कि गुनगुनाने को जी चाहता है !

    ReplyDelete
  19. बहुत सुन्दर व सही।
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  20. Har shahar me bhatakti hai
    koi na koi pagli
    Kyonki...
    Har gaon me kameene hain...
    Tu apne hi paas rahna pagli
    Tere apne calander me hi
    Teri zindagi ke maheene hain...

    -Sainny Ashesh

    ReplyDelete
  21. माँ को माँ नहीं समझते, बहन को बहन नहीं,
    बेरहमी का मंजर ये, मानो इनमें जहन नहीं
    उंगली की मुन्दरिया के खोटे सब नगीने है,
    तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
    और तो और, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !
    बहुत ही सुंदर दिल को छ गई आप की यह रचना.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  22. बेशर्मी का आलम ये, शर्म न इनकी नाक में है
    किसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
    मार्बल के चेहरे इनके, तारकोल के जैसे सीने है,
    तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
    तुम्हे नहीं मालूम, यहाँ तो पत्थर भी कमीने है !

    बहुत वजनदार लिखा है!
    बधाई!

    ReplyDelete
  23. बेशर्मी का आलम ये, शर्म न इनकी नाक में है
    किसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
    मार्बल के चेहरे इनके, तारकोल के जैसे सीने है,
    तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
    तुम्हे नहीं मालूम, यहाँ तो पत्थर भी कमीने है !


    -बहुत सुन्दर, भाई जी!! बेहतरीन!!

    ReplyDelete
  24. शहरी जिन्दगी पर एक खूबसूरत कटाक्ष. पर क्या शहरों ऐसा हम सब ही नहीं बनाती, वरना आज के सब शहर कल गांव ही थे.

    ReplyDelete
  25. माँ को माँ नहीं समझते, बहन को बहन नहीं,
    बेरहमी का मंजर ये, मानो इनमें जहन नहीं
    उंगली की मुन्दरिया के खोटे सब नगीने है,
    तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
    और तो और, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !

    ek behtreen kataksh hai shahar ki zindagi aur aaj ke halat par.

    ReplyDelete
  26. बहा ले जाए सुप्त-थमे हुए दरिया में भी जो ,
    यहाँ हर तरफ ऐसी कुछ मौजो के सफीने है,
    तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
    क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है

    excellent kya marmik abhivyakti hai
    bandhai swikaren

    ReplyDelete
  27. तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
    और तो और, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !

    बहुत बढ़िया ...जवाब नहीं

    ReplyDelete
  28. यहाँ तो पत्थर भी कमीने है !
    बहुत बढ़िया रचना.

    ReplyDelete

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।