Tuesday, November 24, 2009

और हमारे संचार माध्यम कब सुधरेंगे ?

आज एक खबर पढी, पढने के बाद अपने देश के संचार माध्यमों पर बड़ा गुस्सा आ रहा था ! करीब महीना भर पहले आपने भी यह खबर पढी होगी:
लखनउ, 29 अक्टूबर :भाषा: गाजियाबाद जिले के साहिबाबाद थाना क्षेत्र में आज पुलिस ने 50 हजार रूपये के इनामी बदमाश रवीन्द्र त्यागी को मुठभेड़ में मार गिराया।........... इसके बाद जवाबी फायरिंग में बदमाश मारा गया, जबकि उसकी गोली से उपनिरीक्षक अनिल कपरवान तथा तीन सिपाही परमजीत सिंह, आदित्य और तेजपाल घायल हो गये, जिनमें से कपरवान और परमजीत को अस्पताल में भर्ती कराया गया है।

खबर यह थी कि उचित चिकित्सकीय सहायता न मिल पाने के कारण घायल सिपाही परमजीत सिंह की अपने पैत्रिक गाँव में कल मृत्यु हो गई ! जिस दिन यह घटना घटी थी, मैं भी गा.बाद में करीब डेड घंटे तक जाम में फंसा रहा था, इसलिए इस घटना का वाकया मेरे दिमाग में था! यह जानकार बड़ा अफ़सोस हुआ कि जिस जाबांज ने एक अपराधी को दबोचने में अपनी जान की बजी लगा दी, उसे हम उचित चिकित्सकीय सहायता नहीं उपलब्ध करा पाए ! फिर यह देश किस आधार पर किसी जाबांज अफसर या जवान से यह उम्मीद रखे कि वह अपने कर्तव्य को अंजाम देने में जी-जान लगा दे ?

और तो और इस घटना के अगले दिन आस-पास के लगभग सभी अखबारों और मीडिया ने बदमाश रविन्द्र त्यागी के घर जाकर उसकी बीबी का इंटरव्यू लिया और प्रमुख पृष्ठों पर उसे जगह दी ! जिसमे उसने आरोप लगाया था कि उसका पति मुठभेड़ में नहीं बल्कि चांदनी चौक से पुलिस द्वारा उठा कर लाया गया और फिर पुलिस ने उसकी ह्त्या कर दी! उसके इस ऊलजुलूल इंटरव्यू के लिए इनके पास समय है, पुलिस पर छींटा- कसी करने के लिए समय है , उसके कामो पर उंगली उठाने के लिए समय है, लेकिन उस एक घायल सिपाही के हाल-चाल पूछने का समय किसी के पास नहीं कि उसे कोई कमी तो नहीं ?...... माना कि कुछ केसों में पुलिस वालो की भूमिका संदिग्ध होती है मगर उसकी जांच कर तत्काल सही गलत का निर्णय लेने वाले ये संचार माध्यम होते कौन है? इससे क्या प्रेरणा लेकर एक सिपाही आगे से किसी क्रिमिनल को पकड़ने की जुर्रत करेगा ? हम पता नहीं यह क्यों भूल जाते है कि वह पुलिस वाला भी तो हमारे ही समाज का एक हिस्सा है, उसे अनैतिकता की राह पर चलना भी हमारे ही समाज ने सिखाया है, ज्यादातर उलटे ख्याल और आइडिया भी इन्ही संचार माध्यमो से सीखने को मिलते है, और ये संचार माध्यम कितने दूध के धुले है? आज निष्पक्षता के नाम पर ये जो गंदा खेल खेल रहे है उसकी सुगबुगाहट समाज में हर शिक्षित तबके में महसूस की जा रही है! जरुरत है इन्हें अपने गिरेबान में झांकर देखने की और उसमे सुधार लाने की, वरना इस आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आगे चलकर शिव सैनिको की तर्ज पर देश का हर एक सैनिक इनके खिलाफ खडा हो जाए !

क्या ही अच्छा होता कि अखवार सिर्फ आलतू फालतू खबरों से पन्ने रंगने की बजाये, अखबार का पन्ना कोरा छोड़कर लिख दे कि हमें खेद है कि समाचार अधिक न होने की वजह से यह पेज कोरा छोड़ा जा रहा है ! या फिर आजकल दुनिया भर के अच्छे से अच्छे लेख ब्लोगरो के ब्लोग्स पर है उन्हें स्थान देते साथ ही खबरिया चैनल भी बजाये मसालेदार खबरों के जिनका कि कोई सर पैर नहीं, लोगो को बताने के लिए प्रयाप्त समाचार न होने पर पुराने गाने और गीत सुनाये ताकि लोगो का सही मनोरंजन हो ! बच्चो के लिए पाठ्यक्रम से सम्बंधित प्रोग्राम चलाये ताकि आने वाली पीढ़िया इनसे कुछ अच्छा सीखे !

13 comments:

  1. आपने बिल्कुल सही कहा है आलतू फालतू ख़बरें छपने की जगह वहां खेद व्यक्त करें तो ज्यादा अच्छा होगा .

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  2. media walon ne apni aatma girvi rakh di hai.... kya kahen ab....

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  3. भाई साहब, अखबार वालों का पहला तो रुपया ही कमाना होता है, वह तो वही मसाला छापेगा जो चल जाये।

    ऐसी बातों पर गुस्सा कर के आप सिर्फ अपना ही खून जला रहे हैं, किसी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

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  4. आपका गुस्सा जायज है लेकिन पूरे के पूरे मीडिया को कठघरे खड़ा करना जायज नहीं

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  5. चटपटी और घटिया खबरें छापना तो मीडिया की नियति बन चुकी है।

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  6. सही कहा!! जो बिकता है वो ही छापते हैं.

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  7. अच्छा, विचारोत्तेजक आलेख। आपसे सहमत हूं।

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  8. पत्रकार खबर को ख़बर में गाड देते है और चटपटेदार, मसालेदार बना कर पेश करते हैं... इसी के ही तो पैसे मिलते हैं ॥

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  9. साहब यहाँ भी 'सब चलता है' वाली उक्ति काम करती है. पत्रकारिता में आज ऐसे लोग आ गए हैं जिनका जिम्मेवारी से कोई लेना-देना नहीं है. बस किसी तरह कोई खबर मिले, इनके लिए तो घायल पडा आदमी भी स्टोरी होता है.

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  10. व्यावसायिकता के दबाव ने संवेदनशीलता का गला रेत डाला है..गोदियाल जी..!!

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  11. अजी आज कल यह डाकू ही तो हीरो है, यह नेता ही कुते कहते है कि फ़ोजी ओर सिपाही की तो नोकरी है, उसे तंन्खा मिलती है, ओर उस के बाद बीबी बच्चे.... बेचारे, लेकिन एक डाकू तो मुफ़त मै काम करता है इस लिये इन समाचार पत्र वालो को मिडिया वालो को इन लोगो की आतंकवादियो की ज्यादा फ़िक्र है, ओर इन सब बातो पर गुस्सा नही आता, बल्कि इन सब से नफ़रत होती है, एक लावा अन्दर ही अंदर जमा होता है जो फ़ुटेगा तो यह सब भस्म हो जायेगे.
    आप ने बहुत सही लिखा आंखे खोलने वाला समाचार

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  12. सामाजिक और नैतिक पतन के लिये नेता और मीडिया बराबर के जिम्मेदार हैं

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।