Saturday, November 28, 2009

कुर्बानी लेना ही नहीं, देना "भी" सीखो !

मैं, हूँ तो निहायत ही एक भोला-भाला, सीधा-साधा सा ग्रामीण, मगर उस दुश्मन की बड़ी इज्जत करता हूँ, जो मान लो कि मुझे ख़त्म करने की इच्छा रखता हो और आकर कहे कि मैं तुम्हे मारना चाहता हूँ ! खुले मैदान में आ जावो, एक तलवार या कोई भी हथियार मेरे पास है, एक तुम पकड़ लो और दो-दो हाथ कर लेते है ! तुम जीते तो तुम जियो, मैं जीता तो मैं जिऊंगा ! और नफरत करता हूँ मैं उस कायर से, जो छुपकर वार करता है, किसी बच्चे या स्त्री को ढाल बना के और अपने को वीर समझता है! कुछ तथा-कथित विद्वान लोग, जो यह तर्क देते फिरते है कि दुश्मन को टैक्टफुली मारना ही समझदारी है, उसे प्रतिघात का मौका ही मत दो! ऐसे विद्वान अगर ज़रा सी भी ईमानदारी से अपनी गिरेवान में झाँक के देखे, तो पायेंगे कि दूसरो को भले ही वे विद्वतापूर्ण सन्देश दे रहे हो, मगर खुद है, बुजदिल और कायर ! यदि हर छलपूर्ण कार्य समझदारी है, तो किसी बैंक की दीवार पर जब कोई चोर सेंध लगाता है और खजाना लूटता है तो उसे चोरी की संज्ञा क्यों दी जाती है, उसने भी तो विद्वता पूर्वक वह काम किया ?

खैर, यह तो थी प्रस्तावना, अब असल बात पर आता हूँ! आप लोग तर्क देंगे कि वैसे भी तो हम मांसाहारी है, और दुनिया में रोजाना करोडो पशु पक्षी कटते है ! इस तर्क पर आप बिलकुल सही है, चूँकि दुनिया का दस्तूर है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है ! लेकिन यह कितनी बकवास वाली बात है कि हम लोग आज के इस शिक्षित युग में भी युगों पुरानी उस बेहूदी प्रथा को निभा रहे है, जहां भगवान् , खुदा और ईशा के नाम पर हम निरीह प्राणियों को बेरहमी से सिर्फ इसलिए मार देते है कि ताकि इससे हमारा भगवान्, खुदा और गौड़ हम पर खुश हो जाए और इसे नाम देते है कुर्बानी का ! मगर मैं कहता हूँ कि इस तरह की बेहूदी हरकते करने वाला कोई एक हिन्दू, मुसलमान या इसाई यह प्रमाणित करके दिखा दे, कि उसके भगवान् ने ही उसे ऐसा करने को कहा और ऐसा करने से उसका खुदा या भगवान् खुश हो रहा है ! आखिर आप किसकी कुर्बानी दे रहे हो? इतने ही वीर पुरुष हो तो भगवान् या खुदा के चरणों में अपनी गर्दन काट कर डालो, तब निश्चित तौर पर ऊपर वाला तुम पर खुस होगा ! मगर कुर्बानी के लिए दूसरे की ह्त्या, अरे मूर्खो, तुमसे बड़ा कोई पापी तो इस दुनिया में हो नहीं सकता और यदि तुम यह उम्मीद लगाते हो कि इससे ऊपर वाला खुश होगा तो तुम लोग महा मूर्ख हो ! उत्तराखंड के पहाडो में देवी देवताओ के मंदिरों में बलि प्रथा थी, जब लोग अनपढ़ गवार थे! एक-आद अपवादों को छोड़, आज सारे मंदिरों में सालों से बलि प्रथा बंद हो चुकी है, अब सिर्फ फूल-प्रसाद ही चडाया जाता है, (अफ़सोस कि नेपाल जैसे अशिक्षित देश में अभी यह प्रथा जारी है) ! तो क्या वहा के वे देवी-देवता भूखो मर गए ? या वहां के लोगो पर खुश नहीं ? कोई एक तो प्रमाण बता दो !


निरीह पशु की कुर्बानी, ले रहे है बेरहमी से, दे नहीं रहे !



नेपाल के मंदिर में चड्ती भैंस की आँखों से छलकता दर्द और हम सोच रहे है की भगवान इससे खुश हो रहे है, क्रूरता और मूर्खता की इंसानी हदे !



डेनमार्क में ख़ास अवसर पर बेरहमी से व्हेल का क़त्ल कर सागर को ही लाल बना दिया जाता है!


इच्छा अपनी होती है, खून के प्यासे खुद है, और नाम घसीटते है, भगवान्, खुदा और गोड़ का ! कुर्बानी देने का इतना ही शौक है तो अपनी क्यों नहीं दे देते ? कुछ लोग कहते है कि हमने मजहब के लिए अपने बेटे की कुर्बानी दे दी, शायद कसाब का अब्बू भी यही कहता होगा, लेकिन सच्चाई क्या है, सब जानते है ! आज के ज़माने में बेटे की कुर्बानी देने वाले भी कई कलयुगी माता पिता मौजूद है ! अभी कल का मुंबई का किस्सा ताजा है जिसमे एक कलयुगी माता अपने प्रेमी के साथ गुलछर्रे उड़ा रही थी और प्रेमी उसके मासूम बच्चे को सिगरेट से जला रहा था, उसी के सामने ! पता नहीं कब हम लोग सही मायने में शिक्षित कहलायेंगे !

14 comments:

  1. दया धरम का मूल है पाप मूल अभिमान!

    प्राणीमात्र पर दया करना ही सही पुण्य का काम है।

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  2. सच कह रहे हैं आप..... कहीं यह नहीं लिखा है ...कि बेजुबानों कि कुर्बानी दो..... मुझे तो यही लगता है.... कि यह अनपढ़ों का काम है ....
    इच्छा अपनी होती है, खून के प्यासे खुद है, और नाम घसीटते है, भगवान्, खुदा और गोड़ का ! कुर्बानी देने का इतना हे शौक है तो अपनी क्यों नहीं दे देते ? कुछ लोग कहते है कि हमने मजहब के लिए अपने बेटे की कुर्बानी दे दी.... बिलकुल सही कहा आपने.....

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  3. बहुत ही सटीक आपके विचारो से सहमत

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  4. पी.सी.गोदियाल,आप सच कह रहे है, अगर हमारी धार्मिक पुस्तको मै कही बलि या कुर्बानी का जिक्र होगा तो उस के साथ यह भी लिखा है कि हमे अपनी सब से प्यारी चीज की बलि ओर कुरबानी देनी है, ओर यह सब से प्यारी चीज कोन सी है? अरे जो सब से प्यारी ओर कीमती चीज होती है उसे हम लोगो से, चोरो से बचा कर समभाल कर रखते है, जेसे ओलाद, सोने की कोई वस्तू, ओर इन सब से कीमती हमारी जान, लेकिन एक ओर भी वस्तू है जिस की कुरबानी या बलि मांगी जाती है, लेकिन हम उस की बलि कभी नही देते, बल्कि हम इन जानवरो को मार कर अपने ईष्ट को वेबकुफ़ नही बन सकते, ओर वो प्यारी ओर कीमती वस्तू है हमारी बुरी आदते, ओर अगर हम अपनी बुरी आदातो की बलि दे दे तो हम क्या यह सारी दुनिया ही सुखी रहे, ओर इसी बुरी आदतो की बलि या कुरबनी की बात कही है हमारी धार्मिक पुस्तको मै.....
    धन्यवाद सुंदर लेख के लिये

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  5. पता नही कब समझेगा इंसान।
    फिलहाल तो देखकर अत्यन्त दुःख होता है, इंसान की अज्ञानता पर।
    साहसी और सार्थक लेख।

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  6. सही लिखा है आपने लेकिन गोदियाल जी बिना असुरों के, बिना दैत्यों के,दुनिया होती भी तो नहीं है और असुरों के दैत्यों के कर्म ऐसे ही होते हैं . तो जनाब ये तो रहेंगे ही क्योंकि असुर हैं, बस देवों(सात्विक प्रक्रति) के लोगों की संख्या बढ़नी चाहिए, ये हम सबको सोचना होगा. आपके विचार बहुत अच्छे सही लगे. आज सुबह स्वामी रामदेव ने भी यही सब अपने संबोधन में कहा था.

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  7. अपनी जिव्हा के सुख के लिये मनुष्य के प्रपंच ।

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  8. अब ऐसी प्रथाएं गिनी चुनी ही रह गई हैं। देखने में ये विभीत्स चित्र लगते है पर रोज़ कमेले [अबेटायर] में ऐसा हॊ तो दृश्य देखने को मिलेगा... हां, वहां धर्म का नाटक नहीं दिखेगा:)

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  9. बहुत दर्दनाक और अफ़्सोसजनक कृत्य है.

    रामराम.

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  10. बस लोग अपनी अज्ञानता, मूर्खता और दरिंदगी को धर्म का नाम दिए जा रहे हैं...

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    आदरणीय गोदियाल जी,

    एकदम सही कहा आपने... 'ऊपर वाला' अगर वाकई में है तो है तो वह सभी का...माता या पिता समान... फिर सारे जगत की 'माता'या 'पिता' यह 'ऊपर वाला' अपने ही बनाये बेजुबान जानवरों की बलि लेकर ही क्यों खुश होता है।

    मौका है, तो यह भी सोचा जाये कि सारे जगत का 'पिता' या 'माता' यह 'सर्वशक्तिमान' कैसा सैडिस्ट है कि अपने बच्चों के व्रत या उपवास के नाम पर अन्न-जल छोड़कर भूखा रहने से प्रसन्न होता है जबकि सृष्टि का हर मां-बाप खुद भूखा रह सकता है पर अपने बच्चे को भूखा नहीं देख सकता।

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  12. आदरणीय गोदियाल जी, इस पोस्‍ट को लिखने में कितने मुर्गे गटक लिए वह भी बता देते, इस विषय पर अधिकतर अनपढ गंवारों वाली बातें देसकते हैं और जनाब तो माशाअल्‍लाह हैं ही इधर ना उधर,

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  13. न पता कब, हम इंसान बेजुबानों पर अत्याचार करना छोड़ंगे । बेहद दुःखद है ।

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।