सुन्दर तेरा वो आशियाना लगा,
जग सारा ही अपना घराना लगा।
कुछ लम्हा जो ठहरे थे दर पे तेरे ,
जाना -पहचाना सा ठिकाना लगा।।
समझ न पाये गफ़लत मे क्यों थे,
होता नही कोई किसी का यहां पर ।
पलभर जो शकूं तेरे आंचल मे पाया ,
अपना हमे फिर सारा जमाना लगा।।
वो जो पल्लू से ढककर चेहरा हमारा ,
गुनगुनाया था हौले से इक गीत तुमने।
जुबाँ पे यूं रम गया हर शब्द उसका ,
ज्यूँ अपना ही गाया कोई तराना लगा।।
घडीभर के लिये जब मुस्कुरा दिये तुम ,
मुझसे नजरें चुराकर मेरी शोखियों पर।
मिला फिर मेरे दिल को आह्लाद इतना ,
जैसे हाथ कोई अनमोल खजाना लगा।।
रुखसत हुआ जब महफिल से तुम्हारी ,
ये दिल अपना, तुम्हारा दीवाना लगा।
छलके थे वो जो आँसू पलकों से तेरी ,
तुम्हारा ही लिखा कोई अफ़साना लगा।।
सुन्दर सा वह उनका आशियाना लगा,
ReplyDeleteजग सारा ही अपना घराना लगा !
कुछ लम्हा ठहरे तो गैरों के दर पे थे,
जाने क्यों अपना ही ठिकाना लगा !!
wah! pahli pankti ne hi dil chhoo liya....
हुआ जब रुखसत तु उनकी महफिल से,
कुछ पल ठहरने के बाद ’गोदियाल’ !
छ्लका जो दर्द उनकी आंखो से था वो,
तेरा ही लिखा कोई अफ़साना लगा !!
bahut hi khoobsoorat.......
जग सारा अपना लगे अच्छा लगा विचार।
ReplyDeleteबेहतर रचना बन पड़ी लिखा खूब सरकार।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
कुछ लम्हा ठहरे तो गैरों के दर पे थे,
ReplyDeleteजाने क्यों अपना ही ठिकाना लगा !!
गौर से देखिये वह दर गैर का नहीं होगा.
बहुत सुन्दर
तेरा ही लिखा कोई अफ़साना लगा !
ReplyDeleteवही- शमा पे निसार परवाना लगा :)
pooree racanaa bahut sundar hai shubhakamanayen
ReplyDeleteयूं तो गम की दवा पीकर ही गुजार दी,
ReplyDeleteहमने भी यहां अपनी तमाम जिन्दगी !
शुरुर जो शाकी के परोसे हुए जाम मे था,
हमें ऐसा न कोई मयखाना लगा !!
bahut sundar...
waise shaki ki jagah saki hona chahiye...
पी.सी.गोदियाल said...
ReplyDeleteअमरीश जी बहुत सुन्दर, ब्लॉग्गिंग की यह नई स्टाइल भी पसंद आई ! मेरे ब्लॉग पर अगर आपने मजाक न किया हो तो आपको बतान उचित समझता हूँ कि साकी का मतलब है जो मधुबाला मयखाने में शराब परोसती है !और अगर मजाक किया हो please अन्यथा न लेना !
maaf kijiyega sir, mera naam ambarish hai....
majak nahi kiya tha sir... maine wahi meaning samajh kar "saki" kaha tha... agar "shaki" ka koi aur meaning ho to kripya samjhaane ka kasht karein..
अम्बरीश जी सर्वप्रथम आपके नाम को गलत पढने के लिए क्षमा ! पहले मैं आपकी बात का मतलब ठीक से नहीं समझ पाया था, मैं समझा कि आप 'सखी' शब्द इस्तेमाल करने को कह रहे है ! आप बिलकुल सही है सही शब्द "साकी"(पिलाने वाली) होना चाहिए न कि "शाकी" (शिकायत करने वाली) , लेकिन अक्सर लोग इन दो शब्दों में इतना भेद नहीं करते और वही गलती मैंने की ! आपके सजेशन के लिए आपका हार्दिक शुक्रिया और मैंने गलती सुधार ली है !
ReplyDeleteबहुत खूब गोदियाल साहब..आपकी दोनो अदा पसंद आयी..पोस्ट वाली भी और टीप वाली भी .....चलिये मैं भी चलते चलते एक मजाक..नहीं नहीं जी गंभीरतापूर्वक.. कह देता हूं...आपने सुरूर को शायद शुरूर लिखा है..जब साकी ठीक करें तो इसे भी..
ReplyDeleteआपका ये अंदाज खूब भाया..आगे प्रतीक्षा रहेगी..
अजय जी, सच में आपकी टिपण्णी पाकर मैं गदगद हूँ कि आप लोगो ने इस नाचीज की रचना को इतने गौर से पढा ! आपका सुझाव सर आँखों पर और मैंने वह गलती भी सुधार की है, देखा जाए तो इन्सान ऐसे ही तो सीखता है और गलतियां सुधारता है !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना है।
ReplyDeleteहुआ जब रुखसत तु उनकी महफिल से,
कुछ पल ठहरने के बाद ’गोदियाल’ !
छ्लका जो दर्द उनकी आंखो से था वो,
तेरा ही लिखा कोई अफ़साना लगा !!
बहुत खूब !!
बहुत ही उम्दा कविता...........
ReplyDeleteदिल के आस पास से गुज़रती हुई कविता,,,,,,,,
कविता की कोमलता और सौन्दर्य लिए हुए
एक नवेली कविता........
________अच्छी लगी आपकी कविता
बधाई !
shukriya..
ReplyDeleteबहुत बहुत बहुत बहुत बहुत सुन्दर रचना!बधाई!
ReplyDeleteयूं तो गम की दवा पीकर ही गुजार दी,
ReplyDeleteहमने भी यहां अपनी तमाम जिन्दगी !
सुरूर जो साकी के परोसे हुए जाम मे था,
हमें ऐसा न कोई मयखाना लगा !!
हर लाइन जोरदार..उम्दा रचना...बधाई!!
कुछ लम्हा ठहरे तो गैरों के दर पे थे,
ReplyDeleteजाने क्यों अपना ही ठिकाना लगा !!
...सच मे..जिंदगी भी तो कुछ ऐसी ही है..है न !!..उदासी के धुँए मे लिपटी एक खूबसूरत पंक्तियाँ..खासकर आखिरी वाली तो बेहद दिलफ़रेब हैं..और उस पर यह चित्र.....
अरे गोदियाल साहब
ReplyDeleteक्या खूब रचा है. हम तो एक साथ दो बार बाँच गये:
सोचता था अब तक कि इस जहां मे,
अकेला मैं ही दर्द-ए-गम का मारा हूं !
जिसे समझता था मै किसी गम की दवा,
वह खुद ही गमों का खजाना लगा !!
-सच के कितना करीब...सुन्दरता से भाव उभारे हैं, बधाई. और रचनाएँ लाईये.
कुछ लम्हा ठहरे तो गैरों के दर पे थे,
ReplyDeleteजाने क्यों अपना ही ठिकाना लगा !!
-वाह!!