Wednesday, February 29, 2012

प्रणय गीत- तुम मिले !














कातिब-ऐ-तकदीर को मंजूर पाया,
तस्सवुर में तुम्हारा हसीं नूर पाया।
(कातिब-ऐ-तकदीर=विधाता) (तस्सवुर में = ख्यालों में )
बिन पिए ही मदमस्त हो गए हम,
तरन्नुम में तुम्हारे वो सुरूर पाया।
(तरन्नुम= गीत )
कुछ बात है हममे, जो हमें तुम मिले,
मन में पलता इक ऐंसा गुरुर पाया।
सेहर हसीं और शामे रंगीं हो गई,
तुमसा जब इक अपना हुजूर पाया।
(सेहर = सुबह )
जब निहारने नयन तुम्हारे हम गए,
उन्हें प्यार के खुमार में ही चूर पाया ।
बेकस यूँ लगा, खो गई महक फूल की,
तुमको जब कभी अपने से दूर पाया।
(बेकस = अकेला ) 

Tuesday, February 28, 2012

डगर नू भी कठिन क्या थी - चंद ख्यालात !

फुरसत के क्षणों में कल एक खबर पर गौर कर रहा था कि नार्वे संकट गहरा गया है। और एक  विशेष राजदूत भी उधर दौड़ा दिया गया  है। उन दो अप्रवासीय मासूमों के मसले को शीघ्र हल करने के लिए उनके नाना-नानी भी दिल्ली में नार्वे के दूतावास पर धरने पर बैठे है, जो चंद महीनो पहले वहाँ के सरकारी संरक्षण में इस आरोप के तहत जबरन ले लिए गए थे कि उनके अप्रवासी भारतीय माँ-बाप उस देश के जीवन-स्तर के हिसाब से उनका लालन पालन नहीं कर रहे, और खासकर इस बात पर कि वे अपने बच्चों को अपने साथ ही सुलाते है।

वो यार, हम लोग भी न सच में ग्रेट है, असल बात का बतडंग बनाना तो हमें आता ही नहीं, और नहीं हम इन गोरी चमड़ी वालों के इतने लम्बे समय तक गुलाम रहकर ही ठीक से ही कुछ  इनसे सीख पाए। खैर, मुद्दे पर लौटता हूँ, ये अगर राजनैतिक फायदे अथवा हथियारों की दलाली से जुडा मसला होता तो मैं दावे के साथ कह सकता था कि अपना डिग्गी बाजा अभी तक बज चुका होता, इस सुर-ताल में कि बच्चों के अभिभावक जरूर चारएसएस के बहकावे में आकर नाहक ही चिल-पौं मचा रहे है, बच्चे वहां के सरकारी खाते में फ्री में पल रहे है, और क्या चाहिए ?

और अगर मामले के पेंच कहीं ज़रा भी हाई-कमान के उजले कपड़ो में उलझे होते और यदि विशेष कुटिलता की जरुरत महसूस हो रही होती तो कुटिलों के कुटिल,  कुटिल निप्पल भाई, अरे वही, अपने बल्ली मारांन के मशहूर लच्छेदार परांठे वाले, जो अपना तंदूर दस- लथपथ के नुक्कड़ पर लगाते है, उनकी बहुमूल्य सेवाएँ कब की ले ली गई होती। और वे अबतक अपनी नेक सलाह भी दे चुके होते कि नॉर्वे के जो भी दम्पति और उनके छोटे-छोटे बच्चे हमारे देश में है, उन्हें उठा लाओ और कस्टडी में ले लो इस बिनाह पर कि ये तथाकथित सभ्य लोग अपने मासूमों को अपने साथ न सुलाकर अलग कमरे और अलग बिस्तरों पर सुलाते है, जो हमारे देश के मानवीय मूल्यों, संस्कृति  और स्टैण्डर्ड के खिलाफ है। दस-बीस डम्मी रिट याचिकाए भी अदालतों में डलवा चुके होते,  साथ ही अपने कुछ पुच्छैल खबरिया माध्यमों को भी थोड़ा- बहुत चारा डालकर बीच-बीच में नमक-मसाला लगाकर यह ब्रेकिंग न्यूज भी प्रसारित करवाते रहते कि इस देश में किसतरह बाल-गृहों में बच्चों का बाल-शोषण और योन-शोषण किया जा रहा है। फिर देखते कि कैसे दौड़कर न सिर्फ नॉर्वे वाले उन बच्चो को रिहा करते अपितु उनके दो-चार मंत्री उन्हें लेकर एक विशेष विमान से उन्हें उनके अभिभावकों को सुपुर्द करने घर तक आते। मगर अफ़सोस कि ऐसा कुछ नहीं, मसले-मसले की बात है।












Saturday, February 25, 2012

वक्त आयेगा एक दिन !

















छवि गूगल से साभार !


दिन आयेगा महफ़िल में जब, होंगे न हम एक दिन,
ख़त्म होकर रह जायेंगे सब, रंज-ओ-गम एक दिन।

नाम हमारा जुबाँ पे लाना, अखरता है अबतक जिन्हें ,
जिक्र आयेगा तो नयन उनके भी, होंगे नम एक दिन।

हमने तो वजूद को अपने , हर हाल में रखा कायम,
थक हार के खुद ही वो, बंद कर देंगे सितम एक दिन।

जख्मों को अपने हमने सदा,खरोचकर जीवित रखा ,
दिल पिघलेगा कभी , वो लगायेंगे मरहम एक दिन।

महंगी वसूली हमसे 'परचेत',कीमत हमारे शुकून की,
वक्त आयेगा जब भाव उनके भी होंगे कम एक दिन।

Friday, February 24, 2012

बादशाह मछेरा !


बादशाह मछेरे, 
तुमने मत्स्य जाल,
गुरुकाय व्हेल के ऊपर
डाला क्यों था?


जिन्न की रिहायश
बोतल में होती है,
यवसुरा* की शीशी से        (*बीयर)   
निकाला क्यों था?

बुजुर्ग फरमा गए
कर्म के चार अभ्यास,
ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,
वानप्रस्थ और संन्यास !
वक्त-ऐ-मोक्ष,
काम मॉडल का
निराला क्यों था ?


बादशाह मछेरे, तुमने
अपना मत्स्य जाल,
गुरुकाय व्हेल के ऊपर
डाला क्यों था?




किंगफिशर की विफलता पर एक चुटकी  !

Thursday, February 23, 2012

लघु कथा- चिराग तले...


इशु, बेटा गुप्ता जी की दूकान से बड़े वाले चार ड्राइंग पेपर और ले आ..........प्लीज! अपनी दस बर्षीय बेटी इशा को आवाज लगाते हुए रमेश बोला। आज छुट्टी का दिन था और रमेश सुबह-सबेरे ही उठकर भोजन कक्ष में मौजूद खाने की बड़ी मेज पर चार-पांच सफ़ेद आर्ट पेपरों और इशा के स्कूल-बस्ते से चित्रकला का सामान निकालकर अपने सपनो के घर का नक्शा बनाने में मशगूल था। अपने ही कल्पना जगत में खोया वह यह सज्ञान लेना भी भूल गया कि सबिता ने उसे उसी टेबल पर नाश्ता भी परोसा था और उसे वह कब का चट कर गया था। उसकी यह तंद्रा तब टूटी जब करीब ग्यारह बजे सबिता उसके लिए दूसरी बार चाय बनाकर लाई और रमेश ने सबिता से सवाल किया कि आज नाश्ता खिलाने का मूड नहीं है क्या, तो तब सबिता बोली, पागल हो गए हो क्या, तुमने साढ़े आठ बजे के करीब जो खाया था वो क्या नाश्ता नहीं था?


यूं तो जब से प्लॉट की रजिस्ट्री घर में आई थी, सबिता भी सोते-जागते अपने मानस पटल पर कई स्वप्न-महल खड़े कर चुकी थी। घर के कामों से फुर्सत मिलते ही आलमारी के लॉकर में रखी रजिस्ट्री को वह भी मेज पर फैलाकर उस रजिस्ट्री संग लगे प्लाट के मानचित्र को उल्टा-पुल्टाकर, भिन्न-भिन्न कोणों से देखने की कोशिश करती। यही हाल आज रमेश का भी था, अपनी जिज्ञासाओं और परिकल्पनाओं की ऊँची उडान उड़ते हुए वह भी इस कोशिश में जुटा था कि कैसे अपने उस प्लॉट की सीमित जगह में वह उस हर ख्वाइश को स्थापित कर पाए, जिसके उसने सालों से सपने बुन रखे थे। बगल के कमरे में इशा, मोहल्ले के अपने दोस्तों संग खेलते हुए अपने पापा की बात को अनसुना कर गई थी, अत: रमेश ने थोड़ा खीजते हुए पुन:आवाज लगाईं....बेटा इशु, यार आप मेरी बात सुनकर अनसुना कर जाती हो.... पांच मिनट तो लगेंगे..... ले आओं न प्लीज! इशा दोस्तों से निपटकर बैठक में आई और कहने लगी..... यार पापा, सुबह-सबेरे भी तो आपने इतने सारे ड्राइंग पेपर मुझसे मंगवाए थे, वे कहाँ गए ? ड्राइंग बनाते-बनाते सब खराब हो गए, रमेश ने जबाब दिया। ओ माई गोंड, उत्ते सारे पेपर......इशा बोली । फिर अपनी कोमल हथेली को अपने माथे पर मारते हुए बोली.... यार पापा, मम्मी ठीक कहती है... आप सच में बुद्धू हो। आप अपने लैपटॉप में फोटो-शॉप अथवा पेंट में जाकर क्यों नहीं मैप बना लेते हो..... फालतू में ड्राइंग पेपर खराब कर रहे हो। उसमे मुझे लाइनिग ठीक से खींचनी नहीं आती, रमेश बोला। अरे बाबा, आपको लाइनिंग खीचने की जरुरत क्या है..... गूगल सर्च में जाकर किसी मकान का नक्शा ढूंढो और उसे वहाँ कॉपी-पेस्ट करके उसमे अपने मुताविक काट-छाँट कर लो...बस।


बेटी की कही बात अब रमेश की समझ में आ गई थी, साथ ही साथ वह इशा की समझ की भी मन ही मन सराहना भी कर रहा था और सोच रहा था कि हम कहाँ रह गए, ये आजकल की नई पीढी वाकई हमसे कितने आगे है। रमेश को तो मानो घर का मानचित्र बनाने का भूत सा सवार हो गया था, अत: दोपहर का भोजन करने के उपरान्त एक बार फिर से वह लैपटॉप पर बैठ गया था। मन मुताविक उसने एक खाका भी तैयार कर लिया था, तभी इलाके में ही रहने वाले उसके एक परिचित घर में आ धमके।उन्होंने जब उसका हालचाल पूछा और पूछा कि कंप्यूटर पर क्या कर रहे थे, तो उससे रहा न गया और उन्हें अपना बनाया हुआ घर का मानचित्र लैपटॉप की स्क्रीन पर ही उन्हें दिखाने और उसकी बारीकियों से उन्हें अवगत कराने में जुट गया। इस बीच सबिता भी किचन से चाय-पानी ले आई थी, उसे मेज पर रखते हुए वह उनकी तरह मुखातिब होते हुए बोली; भाई साहब, ये तो ऐसी चीजे मानते नहीं और न हीं इन्हें उस चीज का ज्ञान ही है, किन्तु आपको तो मालूम ही होगा वास्तु के बारे में, थोड़ा इन्हें भी बताइये न।


आगंतुक बोले, भाभी जी ! सच कहूँ तो वास्तु के बारे में ख़ास जानकारी तो मुझे भी नहीं है किन्तु मैं देसाई भाई को जानता हूँ जो संरचना अभियांत्रिकी और वास्तु शिल्प के अच्छे ज्ञाता और सरकारी मान्यताप्राप्त मानचित्र प्रमाण कर्ता और सलाहकार है, फीस भी ठीक-ठाक ही लेते है, वे आपको आपके घर का एक शानदार और वास्तु से परिपूर्ण नक्शा बनाकर दे देंगे, आप चाहो तो आप लोंगो को मैं उनसे उनके दफ्तर में मिला सकता हूँ। हालांकि रमेश वास्तु को ख़ास तबज्जो नहीं देता था, किन्तु सबिता टीवी पर वास्तु से सम्बंधित कार्यकर्म देख-देखकर उसे काफी अहमियत देने लगी थी, अत : उसने जिद कर दी कि जब हमें नक्शा पास करवाना ही है तो क्यों न किसी ऐसे सलाहकार की मदद ली जाए जो नक्शा भी प्रमाणित करके दे और वास्तु के गुण भी उसमे सम्मिलित करके दे।


कुछ रोज उपरान्त एक दिन रमेश, पत्नी सबिता और बेटी इशा को साथ लेकर उन देसाई भाई के दफ्तर पहुँच गए थे। उनके दफ्तर के बाहर देसाई एंड कंसल्टेंट का एक बड़ा सा बोर्ड लगा था। आपसी परिचय के दौरान ही रमेश को पता चला कि इन सज्जन का नाम इफ्तिकार मोहम्मद भाई देसाई है, और जो गुजरात के मूल निवासी है। अपने उस परिचित का हवाला देकर जिन्होंने पिछले रविवार को इन देसाई भाई के बारे में रमेश को जानकारी दी थी, रमेश ने अपने प्लॉट की रजिस्ट्री और मानचित्र उनके समक्ष रखे और उनसे वास्तु परिपूर्ण अपने घर का नक्शा बनाने का आग्रह किया।


देसाई भाई ने अपने मेज की दराज से कुछ नक़्शे निकाले और उनके समक्ष मेज पर फैलाकर उन्हें वास्तु की जानकारियों और बारीकियों से अवगत कराने लगे। वे बोले, रमेश जी, वास्तु कोई अंध-विश्वास नहीं है, यह एक विज्ञान है, जो ये बताता है कि हम अपने घर में अथवा दफ्तर में किंचित छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखकर अधिक से अधिक सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण कर सकते है, और एक पढ़े-लिखे इंसान से हमेशा ऐसी समझदारी की अपेक्षा भी की जाती है कि वह अपने -अच्छे-बुरे को समझे और अच्छाइयों का अनुशरण करे,वरना तो...... अब देखिये कि चूंकि आपका प्लाट दक्षिण-पूरब मुखी है, इसलिए आपको चाहिए कि आप अपने कीचन का स्थान दक्षिण-पूरब वाले कोने पर रखे..... मुख्य शयन कक्ष दक्षिण पश्चिम में और मंदिर को उत्तर-पूरब में रखे। मंदिर को इस ढंग से स्थापित किया जाना चाहिए कि जब आप प्रभू-स्मरण और पूजा-पाठ को बैठे तो आपका मुख हमेशा पूरब की तरफ होना चाहिए........ईश वंदना का यही सर्वोत्तम तरीका माना जाता है, और इससे मन को सकारात्मक ऊर्जा मिलती है।


रमेश और उसका परिवार, खासकर बेटी इशा बड़े ध्यान से देसाई भाई की बातों को सुन रहे थे। रमेश तो इस बात से देसाई भाई का मन ही मन कायल हो गया था कि एक भिन्न मजहब के होते हुए भी उन्हें हमारे धर्म से सम्बंधित कितना ज्ञान है। बातों-बातों में दोपहर होने को आई थी, इससे पहले कि रमेश, देसाई भाई से यह पूछता कि नक्शा तैयार होने में और कितना समय लगेगा, देसाई भाई खुद ही बोल पड़े; रमेश जी,अभी नक्शा तैयार होने में एक-डेड घंटा लग जाएगा, दोपहर के भोजन का समय हो गया है , बिटिया को भूख लग रही होगी, उसे बाहर मार्केट से कुछ खिला-पिला लाइए । रमेश बोला, ठीक है सर जी, आप भी चलिए..... देसाई भाई बोले, नहीं.. नहीं, आप जाइये मुझे अभी दिन की नमाज भी अता करनी है....!

बाजार से भोजन कर रमेश और उसका परिवार जब पुन; देसाई भाई के दफ्तर में पहुंचे तो देखा कि देसाई भाई एक चटाई बिछाकर पश्चिम की तरफ मुख करके नमाज अता कर रहे थे। चुलबुली इशा कहाँ चुप रहने वाली थी, झट से बोल पडी, पापा, ये अंकल हमें तो समझा रहे थे कि पूजा करते वक्त इंसान का मुख पूरब की तरफ होना चाइये... और खुद पश्चिम ... इससे पहले कि इशा कुछ और कहती सबिता ने इशा को बड़ी-बड़ी आँखें दिखाकर झठ से अपने हाथ से उसका मुह बंद कर दिया........................!

Tuesday, February 21, 2012

सुखांतकी !


यह दुनिया  एक रंगशाला है 
और हमसब इसके  मज़ूर,
कुशल, अकुशल सब   
जुटते  हैं  काम  पर 
कोई तन-मन से,
कोई अनमन से ,  
निभाते फिर भी किन्तु 
सब अपना-अपना किरदार !
रंगमच की राह में 
कुछ समर्पण करते है 
और कुछ परित्याग ....
लेकिन  दस्तूर वही चलता  है  
पर्दा उठते ही अभिनय शुरू  
और गिरने पर  ख़त्म !!

Monday, February 20, 2012

शिव अराधना





अनुतप्त न होगा कभी तेरा मन,
कर भोर भये भोले का सुमिरन|

रख शिव चरणों में मनोरथ अपना,
निश्चित मनोकामना होगी पूरन||


सरल सहृदय मन कृपालु बड़े है,
जय भोलेनाथ सन्निकट खड़े है|

अनसुलझी रहे न कोई उलझन,
कर भोर भये भोले का सुमिरन||

सिंहवाहिनी सौम्य छटा में रहती,
तारणी प्रभु शीश जटा से बहती|

ढोल, शंखनाद, घडियाली झनझन,
कर भोर भये भोले का सुमिरन||

नील कंठेश्वर इस जग के रब है,
धन-धान्य वही, वही सुख-वैभव है|

प्रभु-पाद सम्मुख फैलाकर आसन,
कर भोर भये भोले का सुमिरन||


तारणहार जयशंकर विश्व-विधाता,
सर्व शक्तिमान शिव जग के दाता|

न्योछावर करके अपना तन-मन,
कर भोर भये भोले का सुमिरन||
.
.
 

Sunday, February 19, 2012

नासमझ !
















कर ले तू भी थोड़ी सी वफ़ा जिन्दगी से,
होता क्यों है इसकदर खफा जिन्दगी से।  


बढ़ाए जा कदम तू ख्वाइशों के दर पर,
मुहब्बत फरमाके इकदफा जिन्दगी से।  


बिगड़ने न दे दस्तूर तू जमाने का ऐसे,
रखले थोड़ा कमाकर नफ़ा जिन्दगी से।  


मत कर बयां राज बेतकल्लुफी के ऐंसे
कि मिले जो बदले में जफा जिन्दगी से।   


ऐतबार बनने न पाये बेऐतबारी का सबब,
जोड़ 'परचेत' इक फलसफा जिन्दगी से।    


छवि  गूगल  से  साभार ! 

Thursday, February 16, 2012

कसाब के लिए चिंतित देश !

जैसा कि आप सभी को विदित होगा कि विगत माह के अंतिम पखवाड़े में सन 2008 के मुंबई हमलों के दोषी, पाकिस्तानी आतंकवादी २४ वर्षीय नवाब, "श्री" अजमल आमिर कसाब "जी" ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा उन्हें उपलब्ध कराये गए वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन के मार्फ़त दाखिल की गयी अपनी विशेष अनुमति याचिका में बम्बई उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए दावा किया था कि उनके मामले की सुनवाई स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से नहीं हुई है। साथ ही उन्होंने कहा था कि खुदा के नाम पर जघन्य अपराध को अंजाम देने के लिए किसी रोबोट की तरह उन्हें बुद्धि-भ्रष्ट किया गया और अपनी कम उम्र को देखते हुए वे इतनी बड़ी सजा के हकदार नहीं है। सनद रहे कि शीर्ष अदालत ने पिछले साल दस अक्तूबर को श्री कसाब जी की मौत की सजा पर रोक लगा दी थी।


हालांकि पिछले हफ्ते ८ फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका यह कहकर खारिज कर दी कि वे भारतीय जमीन पर पहुंचने से पहले ही सबकुछ जानते थे, और इस साजिश में शामिल थे। उस दाखिल की गयी विशेष अनुमति याचिका में लगाए गए आरोपों के जबाब में पिछले बुधवार को बहस को आगे बढाते हुए महाराष्ट्र सरकार के वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमनियम ने उनके द्वारा लगाए गए आरोपों को गलत बताया और उन्हें सख्त से सख्त सजा देने की अपील की।


इसमें कोई दो राय नहीं कि आज अगर इस देश की जनता को अपने लोकतंत्र के तीन स्तम्भों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में से किसी पर अगर पूर्ण भरोषा है तो वह है न्यायपालिका। और निसंदेह देश के तमाम कानूनों के तहत कसाब जी के केस में भी हमारी न्यायपालिका निष्पक्ष रूप से अपने-अपने कार्य में जुटी है। जिस देश में एक आम आदमी का समय पर न्याय पाना उसके लिए आसमान पर से चाँद-तारे तोड़ लाना जैसा हो, जहां उसकी न्याय पाने की आशा में अदालती चक्कर काटते-काटते उम्र गुजर जाती हो, जहां एक नामी वकील सर्वोच्च न्यायालय की सिर्फ एक सुनवाई(हियरिंग) की फीस २० लाख रूपये से ४० लाख रूपये के बीच में लेता हो, वहा श्री कसाब जी को मुफ्त में ( यानि कि देश के खर्चे पर ) दो-दो वरिष्ठ वकील मुहैया कराये जाने और उन अधिवक्ताओं द्वारा कसाब जी के वकील के तौर पर उनके पक्ष में तथाकथित उच्च कोटि की दलीलें न्यायालय के समक्ष पेश की जा रही हो, वहाँ कसाब जी का यह दावा कि उन्हें निष्पक्ष विचारण नहीं मिला, मैं तो कहूंगा कि न सिर्फ शरारतपूर्ण बल्कि हास्यास्पद भी है।


इस पहलू पर आगे कोई टीका-टिप्पणी करने से पूर्व अपने पड़ोसी मुल्क से सम्बंधित एक और न्यायिक पहलू पर भी एक नजर डाल ली जाये तो बेहतर होगा। पाकिस्तान के पेशावर जिले की कुख्यात अदिआला जेल, कुख्यात इसलिए भी कह रहा हूँ कि यह जेल न सिर्फ अपने प्रताड़ना प्रकोष्ठों के लिए जानी जाती है अपितु २६/११ के जो दोषी पाकिस्तान में मौजूद है, उनके मुकदमों की सुनवाई भी इसी जेल में होती है ताकि कोई मीडिया का व्यक्ति वहाँ अपने पर भी न मार सके। यानि जिसे कोई कार्यवाही निष्पक्ष कराने की मंशा न हो वह इस जेल का रुख करता है। अतीत में तमाम पाकिस्तान की जेलों से गुम हुए हजारों कैदियों में से ग्यारह वे कैदी भी थे जो या तो पाकिस्तानी सेना से सम्बद्ध थे, या फिर स्थानीय नागरिक। और जिनपर तत्कालीन सैनिक शासक जनरल परवेज मुशर्रफ पर हमले की साजिस और २००९ में सेना तथा आइएसआई मुख्यालय पर हुए हमलों के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था और इसी अदिअला जेल में बंद थे। इन्हें लाहौर की अदालत ने बरी भी कर दिया था, किन्तु करीब डेड साल पहले इस जेल से ये आरोपी अचानक गायब हो गए थे। इन्हें ढूढने की जब इनके परिजनों की तमाम कोशिशें नाकाम हो गई तो आखिरकार उन्होंने पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट की शरण ली। कोर्ट ने प्रशासन को इन गुमशुदा कैदियों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराने के लिए कई बार निर्देश दिए, मगर प्रशासन टाल-मटोल करता रहा। इस बीच दबाव बढ़ने पर सेना और आइएसआई से भयभीत इस जेल के कुछ अधिकारियों ने गुपचुप तौर पर पूरे वाकिये से फरियादियों के वकीलों को पूरी वस्तुस्थिति समझा दी। अपने सख्त मिजाज के लिए प्रसिद्द पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख जज श्री इफ्तिखार चौधरी ने आइएसआई और सेना गुप्तचर शाखा को अंतिम चेतावनी के तौर पर गुमशुदा कैदियों को अदालत में पेश करने के लिए सिर्फ २४ घंटे का समय दिया तो अगले दिन खचाखच भरी अदालत में जो नजारा सामने आया, उसे देख उपस्थित जनसमूह सहम कर रह गया। इन गुमशुदा कैदियों को डेड साल पहले सेना और आईएसआई उठाकर अपने यातना बैरिकों में ले गयी थी, और कोर्ट की फटकार के बाद इनके अधिकारियों ने कोर्ट को बताया कि इन ग्यारह में से चार कैदी यातना के दौरान पहले ही दम तोड़ चुके थे, जबकि बाकी बचे सात कैदियों में से तीन की किडनी फेल हो चुकी है, और चार अन्य भी इस कदर बीमार है कि चल पाने में भी असमर्थ है। जिन्हें पेश किया गया वे बात कर पाने में भी असमर्थ थे और सभी कैदी हाथों में यूरीन बैग ( मूत्र-थैलिया) पकडे थे, यानि इन्हें स्वत : मूत्र त्याग करने लायक भी नहीं छोड़ा गया। कैदियों की ऐसी हालत देख उनके परिजन अदालत में ही बिलखकर रो पड़े।

शौल में ढककर पाकिस्तानी कोर्ट में पेश किये जा रहे गुमशुदा कैदी






अब जरा उपरोक्त पहलुओं पर कुछ तुलनात्मक नजर दौडाए; ऐसा नहीं कि मैं पाकिस्तान के उन ग्यारह कैदियों से कोई ख़ास हमदर्दी जतलाने की कोशिश कर रहा हूँ, किन्तु मानवीय पक्ष के मध्यनजर वहाँ की सुरक्षा एजेंसियों और प्रशासन की ज्यादतियां भी भिन्न-भिन्न आयामों से गौर करने योग्य है। हालांकि वहा की सर्वोच्च अदालत, खासकर जस्टिस चौधरी की भूमिका भी उतनी ही सराहनीय है जितनी कि हमारे न्यायालयों की, किन्तु ऐसा भी नहीं कि मैं वहां की न्याय-व्यवस्था की तुलना अपने देश की न्याय व्यवस्था से कर रहा हूँ। मगर अब आप ज़रा सोचिये कि उपरोक्त वर्णित पाकिस्तानी कैदी उस देश के ही नागरिक है, और इधर इन जनाब कसाब जी ने एक दुश्मन देश का नागरिक होने के बावजूद भी हमारी लचर कह लीजिये या फिर घुन लगी न्याय-व्यवस्था, का नाजायज फायदा उठाकर क्या-क्या गुल खिलाये, किसी से छुपा नहीं। देश अपने करदाता की गाडी कमाई का ५० करोड़ रूपये इस मेहमान की खातिरदारी में खर्च कर चुका ! जिसे रोज मनपसंद भोजन, चिकन बिरयानी उपलब्ध कराई जा रही हो वह भला मरना क्यों चाहेगा? जिसके इतने सारे शुभचिंतक इस देश में हो कि एक अनपढ़-गंवार को कोर्ट में क्या बेहतरीन दलील पेश करनी है, उसकी मुफ्त और मुहमांगी सलाह मिल रही हो तो वह तो कोर्ट के फैसलों पर उंगली उठाएगा ही।


अभी दिल्ली में जो आतंकी हमला हुआ उसको अंजाम देने वालों का अभी कोई सुराग नहीं मिला, किन्तु फर्ज कीजिये और थोड़ी देर के लिए यह मान लीजिये कि दिल्ली में इजराइली राजनयिक की पत्नी पर अभी जो हमला हुआ उसमे ईरान का ही हाथ है, तो जो अहम् सवाल अब खडा होता है, वह यह कि ईरान ने इजराइल पर हमले के लिए भारत को ही क्यों उपयुक्त जगह समझा? सीधा सा जबाब है कि ईरान भी जानता है कि यदि उसके एजेंट रंगे हाथों पकडे भी जाते है तो भी कुछ ख़ास नहीं होने वाला, और ऐसा सोचने के लिए उसके पास कारण भी है! और जिनमे से इस तरह की राय बनने के जो दो कारण प्रमुख  है, वह हैं संसद और मुंबई पर हमले के बाद की हमारी सुस्त प्रतिक्रिया।


अंत में, हो सकता है कि देखने वालों की नजरों में कसाब के प्रति इस तरह की मेरी सोच में भी अनेकों खोट हों, किन्तु जो उपरोक्त गुमशुदा पाकिस्तानी कैदियों का किस्सा मैंने यहाँ पेश किया, जरा अपने दिमाग की बत्ती जलाइए और सोचिये कि जिस देश का प्रशासन, जिस देश की फ़ौज और खुफिया-तंत्र दुनियाभर के झूठ बोलकर अपने सर्वोच्च न्यायालय और कानूनों की अवहेलना कर अपने ही नागरिकों से इतनी बर्बरता से पेश आ रहा हो, तो आज से ४०-४५ साल पहले हमारे भी अनेकों जवान अपनी भरी जवानी में इस देश की रक्षा करते हुए कहीं गुम हो गए थे, लेकिन दुश्मन मुल्क के  ये ही हुक्मरान वही दोहराते रहे थे कि हमारे यहाँ आपका कोई युद्ध-बंदी नहीं है। फर्ज कीजिये कि वहाँ भी इन्होने झूठ बोला हो, तो ये दरिन्दे हमारे उन प्रिजनर आफ वार (PoW) के साथ किस बर्बरता से पेश आए होंगे, उसकी कल्पना तो हम तभी कर सकते हैं कि जब हम कसाब की फ़िक्र करना छोड़ वास्तविक धरातल पर सोचे। हम खुदगर्जों ने तो १२ साल पहले की वह घटना भी भुला दी जब इन्होने अपनी दरिन्दगी का खेल   शहीद लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उसके साथियों के साथ कारगिल के मोर्चे पर खेला था।

छवि गूगल से साभार !











Wednesday, February 15, 2012

दुविद्या


अति सम्मोहित ख्वाब
कैफियत तलब करने
आज भी गए थे उस जगह, 
जहां कल रंगविरंगे 
कुसुम लेकर वसंत आया था !
ख़याल यह देख विस्मित थे 
कि उन्मत्त दरख्त की ख्वाईशें,
उम्मीद की टहनियों से
झर-झर उद्वत हुए जा रही थी,
पतझड़ पुन:दस्तक दे गया था  
या फिर वसंत के पुलकित एहसास ही
क्षण-भंगूर थे, नहीं मालूम !! 

Tuesday, February 14, 2012

जानेमन !


जाने जाना,गुल-ए-गुलजार  !

तुम जानती हो, मैं खुले में नहीं करता 

कभी अपने इश्क का इजहार।   



समय की मर्यादा रुकावट न बने

इसलिए मैंने तुम्हारे लिए

अपने एहसास ट्विटर पर,

अनुभूति फेसबुक पर

और भावनाएं ब्लॉग पर

अभिव्यक्त कर दी हैं !



अब इतनी है तुमसे दरकार ,
जब जी करे, गूगल सर्च पर

दिलवर और अपना नाम

टंकित कर ढूंढ लेना,

सबकुछ उपलब्द्ध हैं शजर-ए-डार!!

Monday, February 13, 2012

कार्टून कुछ बोलता है- वैलेंनटाइनस डे !



                                                           14-02-12   = "0"

Sunday, February 12, 2012

एक सौभाग्यशाली देश का दुर्भाग्य !

विविधताओं भरे इस देश में जहां अनेक धर्मों, जातियों, भाषाओं और पंथों के लोग निवास करते हैं, वहाँ   धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व और उदारवाद  सिर्फ इकतरफा यातायात का हिस्सा बनकर  नहीं रह सकते  हैं  और उसके अनुसरण का बोझ अकेले वहाँ के बहुसंख्यक समुदाय के कंधों पर डालना  सीधे-सीधे  न सिर्फ लोकतंत्र की मूल भावना का उल्लंघन है, बल्कि उसके उद्देश्यों को भी कमजोर करता है  किसी भी लोकतांत्रिक समाज में बिना भेदभाव के सभी के लिए समान अवसर उस  देश-समाज और व्यवस्था की सफलता का एक मुख्य पैमाना माना जाता है 

यह एक दुःख  की बात है कि जिन मौजूदा देश, काल और परिस्थितियों में हम जी रहे है  वह एक धर्मनिरपेक्ष समाज का हिस्सा कम और प्रतिस्पर्धी साम्प्रदायिक और जातीय तुष्टीकरण और वोट-बैंक की राजनीति का हिस्सा अधिक बनकर रह गया है। राष्ट्रवाद को हमारी कुटिल राजनीति और तुच्छ धार्मिक स्वार्थों ने महज एक साम्प्रदायिकता का अंग-चिंह बनाकर  रख छोड़ा है, और जो वास्तविक साम्प्रदायिकता और विघट्न  का जहर तमाम देश-समाज में  घोला जा रहा है,उसे हम धर्मनिरपेक्षता की संज्ञा देकर नजरअंदाज कर देते है  आज हर देश भक्त जो सवाल पूछता है, वह यह है कि आज  हमारे बीच में  "भारतीय" कहाँ  हैं? कोई हिन्दू है तो कोई मुसलमान, कोई सिक्ख तो कोई इसाई, कोई तमिल है तो कोई कश्मीरी, कोई मराठी है तो कोई असमी, भारतीय और  भारतीयता तो मानो कहीं गुम होकर रह गई है  कितने अफसोस की बात है कि  हम भारतीयों को आज दुनिया में एक सबसे भ्रष्ट, अनैतिक और धर्मांध  समाज  के अंग के तौर पर देखा जाता है   हम लाख अपनी प्रगति और खुशहाली की शेखिया बघारें मगर दुर्भाग्यबश सच्चाई यही है कि ब्रिटेन जैसे देश के नेताओं को कहना पड़ता है कि अगर हमने भारत को सहायता देना बंद कर दिया तो वहाँ लाखों लोग भूखों मर जायेंगे। ऐसा भी नहीं कि हमारे पास किसी चीज की कमी रही हो अंग्रेजों और मुगलों की गुलामी से पूर्व का हमारा एक गौरवशाली इतिहास था, था इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरा मानना है कि गुलामी के दौर का इतिहास बनावटी और तथ्यों से हटकर पेश किया हुआ है  हमारे पास प्राकृतिक संसाधन इसकदर मौजूद थे कि एक समय में इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था, मेहनतकश जन-शक्ति थी, बौद्धिक क्षेत्र में दुनियाभर में अपना लोहा मनवाने वाली युवा शक्ति थी, बहादुर सेनानी थे, क्या नहीं था ? मगर मनन करने की बात यह है कि इन सबके बावजूद भी हमारे राजनेता इस खेल में सिद्ध हस्त हो गए  कि किस तरह अपने राजनैतिक फायदे के लिए उन्हें अपनी फूट डालो और राज करो  की नीति को हमारे बीच बनाए रखना है। और उसके लिए सिर्फ नेताओं को ही दोषी ठहराना भी न्यायसंगत न होगा, आखिरकार ये नेता भी तो इसी समाज से उठकर आगे जाते हैं। इसलिए  इसके लिए पूरा ही समाज दोषी है, कोई एक ख़ास समाज या मजहब नहीं। 

जब हम किसी ख़ास समाज अथवा मजहब को देश की राजनीति को गंदा करने का श्रेय देते है, तो हम यह भूल जाते है कि जिस समाज पर दोष मड़ा जा रहा है, वह उस समाज से तादाद में कहीं कम है, जो समाज उनपर दोष मढ़ रहा है। अगर वृहत समाज में अल्प समाज की तरह एकता या भेडचाल नहीं है तो भला इसमें उस अल्प समाज का क्या दोष? हाँ, जहां तक देश हित, देश   की एकता और अखंडता का सवाल है, यह भी जरूरी है कि उस अल्प समाज को राष्ट्र-हित में अपने तुच्छ स्वार्थों को त्यागना होगा। उन्हें मजहब के उन ठेकेदारों, जिनकी सोच हमारे उन नेताओं से  ख़ास भिन्न नहीं है, जो ये सोचते है कि अगर समाज के लोग पढ़-लिख गए, खूब खाने-पीने लगे और प्रगति करने लगे तो इनके चूल्हों की आग ठंडी पड़ जायेगी, को एक नए स्वतंत्रता संग्राम की सी चुनौती समझ उनके चंगुल से हर हाल में बाहर निकलना ही होगा, अन्यथा पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कबीलाई इलाकों जैसी स्थिति हमारे  समक्ष भी कभी भी आ सकती है

वर्तमान में जारी इन कुछ राज्य चुनावों के दौरान क्या कुछ चल रहा है, इस सूचना क्रान्ति के युग में किसी से छिपा नहीं है। अनेक राजनीतिक पार्टियों द्वारा जनता को दूसरे दलों की साम्प्रदायिकता का भय दिखाकर एक सुनियोजित ढंग से खुद साम्प्रदायिकता का सहारा लेकर समाज को विभाजित करने का जो गंदा खेल पिछले छह दशकों से खेला जा रहा था, उसमे और तेजी आ गई है। और इसका जो एक और भी अफसोसजनक पहलू है, वह यह है कि जिस व्यक्ति के कन्धों पर देश के कानूनों को बनाने और उनके ठीक से संचालन को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी थी, जिन महाशय से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी है और अपनी मर्यादाओं की सीमारेखा का सम्मान करते हुए खुद एक जिम्मेदार नागरिक होने का जनता के समक्ष उदाहरण पेश करेंगे, वही उन कानूनों का न सिर्फ खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते नजर आ रहे है अपितु  उनको चुनौती भी दे रहे है। इस देश का इससे बड़ा और क्या दुर्भाग्य हो सकता है, अगर क़ानून मंत्री के ये हाल है तो जनता से क्या अपेक्षा करेंगे? इस देश के संरचनात्मक ढाँचे के मद्द्यनजर तख्तापलट संभव नहीं वरना तो इन हालातों में मॉलदीव जैसी स्थिति बनने में देर कितनी लगती? ६५ सालों से आप सरकार चला रहे है, एक ख़ास मजहब से तो आप इन ६५ सालों में सिर्फ और सिर्फ उनके शुभचिंतक के तौर पर ही वोट मांग और पा रहे है, फिर जो मुद्दा आज आप चुनाव जीतने के लिए उठा रहे है, या जो मुद्दा आज आपको याद आ रहा है , उसे पिछले ६५ सालों में क्यों नहीं आपने कार्यान्वित किया? जब सबकुछ नीतियाँ आप अल्पसंखयकों और पिछड़े वर्गों के हितार्थ ही बना रहे थे तो फिर आज आपको उनकी स्थिति  दयनीय क्यों नजर आ रही है? इसका मतलब आप अपने कार्यों में अक्षम है   फिर आप को किस बात का वोट दिया जाए ? बटला मुठभेड़ यदि फर्जी थी तो जनाब, दिल्ली और केंद्र में सरकार तो आप ही की थी, फिर क्यों नहीं आपने इस तथाकथित जघन्य कृत्य की जिम्मेदारी ली ? अपने भ्रष्ट कार्यों और लूटमार को छुपाने के लिए क्या  कोई और मुद्दा ही न बचा आपके पास? दोष उस ख़ास मजहब के लोगो का भी कुछ कम नहीं है जो मूक दर्शक बने बैठे है,  क्योंकि उन्होंने कभी खुलकर ये सवाल इस सरकार से पूछने की जरुरत महसूस नहीं की और  इसपर इसतरह की राजनीति को चलने दिया   

अब ज़रा रुख करे अपने चुनाव आयोग की तरफ   याद दिलाना अनुचित न होगा कि क्या राष्ट्रपति पद  की दावेदारी, क्या चुनाव आयुक्त की नियुक्ति , क्या सीवीसी की नियुक्ति,  इस सरकार के वे सारे अहम् निर्णय विवादों में घिरे रहे थे। जानकारी के मुताविक श्री खुर्शीद के रवैये से क्षुब्द  चुनाव आयोग ने  उनकी शिकायत राष्ट्रपति से की है यहाँ एक पुराना चुटकिला याद आ रहा है; एक बार रॉकेट और विमान में गुफ्तगू चल रही थी, रॉकेट सेखी बघारने से बाज नहीं आ रहा था कि वह अन्तरिक्ष में कहाँ-कहाँ नहीं जाता है। विमान बोला; यार वो तो सब ठीक है, मैं भी आसमान में दूर-दूर तक उड़ता हूँ, मगर ये बता कि मुझे तो उड़ने से पहले रनवे पर दूर तक दौड़ना पड़ता है, तू कैसे सीधे उछलकर ऊपर चला जाता है? रॉकेट हँसते हुए बोला, बेटा, जब खुद के पिछवाड़े आग लग जाए तो ऐसे ही उछलते है। खुद का चेहरा बचाने और गुस्सा निकालने के लिए चुनाव आयोग ने  श्री खुर्शीद की शिकायत राष्ट्रपति से लिखित तौर पर भले ही कर दी हो लेकिन जानकार इसे भी चुनाव आयोग द्वारा मामले की लीपापोती बता रहे है। उनका मानना है कि एक स्वायत्त संस्था होते हुए कायदे से आयोग को इसकी शिकायत सुप्रीम कोर्ट में करनी चाहिए थी। यह भी खबर है कि राष्ट्रपति ने उनकी शिकायत प्रधानमंत्री कार्यालय को भेज दी है, जिसे आम लोग आजकल यहाँ 'ठन्डे बस्ते' की संज्ञा देते है 

खैर, परिणाम जो भी हों मगर, चुनाव आयोग ने ऐसा करके एक गलत परिपाटी जो भी जन्म दे दिया है जिसमे पूर्वागढ़ साफ़ नजर आता है     इतना सबकुछ होते, देखते हुए भी हम अगर  नहीं चेते तो इसे मैं अपने इस सौभाग्यशाली देश का दुर्भाग्य न कहूं तो और क्या कहूँ ?    

नोट: जब बात निकली है तो यह भी एक गौर करने योग्य बात है जिस प्रकार से एक स्वशासी संस्था यानि  चुनाव आयोग को कौंग्रेस के ये नेता अपने अधीन समझने  या होने का दावा करते है तो अगर जिस रूप में ये अपना लोकपाल लाना चाहते है, उसके दांत कितने मजबूत होंगे इन्हें काटने के लिए उसका भी सहज अंदाजा लगाया जा सकता है !                                        

Friday, February 10, 2012

जंगल का अमंगल भविष्य ! ( लघु-व्यंग्य)

दश्त-ओ-सहरा में बहार आये, न आये। कानन में मधुमास छाये, न छाये... किन्तु, कुछ दुर्लभ जाति एवं ख़ास किस्म के वन्य-प्राणियों के लिए संरक्षित वन्य-जीव अभ्यारण के अनेकों मांसाहारी पशु-पक्षियों के कुटिल चेहरों पर अचानक ही मैं एक अनोखे किस्म की चमक देख रहा हूँ। ऐसा प्रतीत होता है कि इनके लिए सचमुच का वसंत आ गया है। सभी चेहरे खुशी से झूम उठे है, और क्यों न झूमे, उनका झूमना भी लाजमी है क्योंकि घने जंगल के अंधकार में गुम होती उनकी नैया को अचानक एक प्रकाश-पुंज जो नजर आ गया है। दूर क्षितिज की गोद से उन्हें एक नया सूरज उदयमान होता दिखाई दे रहा है, और यही वजह है कि उच्च अभियाचनाग्रस्त इनकी जोरुओं ने भी जो मायाजाल रूपी प्रचंड ख़याल अपने त्रिषित लोचनों में सजा रखे थे, और उम्मीद की धुमिल पड़ती किरणों के चलते उन्होंने वे सारे स्वप्न एक-एककर अपनी पलकों से उतार-उतारकर अपने गुप्त खोहो और कंदराओं में रख छोड़े थे, उन्हें वे पुन: समेटकर अपनी पलकों पर चिपकाने और प्रतिस्थापित करने की कोशिश में जुट गई है।

जंगल के प्राणी आजाद होने को लाख छटपटायें, मगर कटु-सत्य यही है कि जंगल कभी आजाद नहीं हो सकता, उसे हमेशा ही एक वनराज अथवा वनरानी की जरुरत महसूस होती ही रहती है। यह बुरी लत तब अपने और बिकराल रूप में पेश आती है जब कहीं किसी जंगल का अपना एक लंबा गुलामी और विश्वासघात का इतिहास रहा हो। वन्य-जीवो के मस्तिष्क-पटल पर गुलाम मानसिकता इस कदर हावी हो चुकी होती है कि बिना किसी वनराज अथवा वनरानी के मजबूत वरदहस्त के वह कुछ करना तो दूर, ठीक से सोच भी नहीं पाते। और पिछले कुछ समय से इन ख़ास किस्म के मांसाहारी वन्य-प्राणियों की मन: स्थिति भी इससे कुछ ख़ास भिन्न नहीं थी। ये प्राणी यह सोच-सोच कर परेशान हो रहे थे कि अगर उनके एक मात्र युवबाघ ने घर नहीं बसाया तो ये लोग, एक युग के बाद किसकी चाटुकारिता करेंगे, किसके गुणगान के कसीदे पढेंगे, किसकी छत्रछाया तले तमाम वन-क्षेत्र की ऐसी-तैसी करेंगे? युवबाघ का बंश चलाने हेतु ये प्राणी किसकदर निराश हो रहे थे, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इनके बीच के कुछ धुरंदर प्राणी तो युवबाघ को यहाँ तक सुझाव देने को आतुर बैठे थे कि अरे भाई मेरे, तू भी पश्चमी जंगलों की आधुनिक गा-गे परम्परा का अनुसरण कर ले और कोई बाघ का बच्चा न सही तो कम से कम किसी गैंडे अथवा भेड़िये के बच्चे को ही गोद ले ले। हम भद्र प्राणि उसी से काम चला लेंगे, मगर युवबाघ था कि उस घाघ किस्म के प्राणि के कानो में जूँ तक नहीं रेंग रही थी।

मगर वो कहते है न कि वक्त कब पलट जाए कोई नहीं जानता। और शायद जंगल के पालनहार से भी उनकी यह दुर्दशा देखी न गई, इसलिए तो फिर एकदिन उसने नन्हे शावकों के  जंगल में आखेट पर पहुँचने का प्रबंध कर दिया। शिकार करते हुए जो उत्सुकता और फुर्तीलापन शावकों ने दिखाया उसे देख इन ख़ास किस्म के मांसाहारी वन्य-प्राणियों की बांछें खिल उठी। चेहरों पर चमक आ गई, जुबान और पावों में एक नई शक्ति का संचार हो गया। कुछ कुत्ते टाईप के जंगली कुत्तों ने, जिन्हें जंगल में निरीह पशु-पक्षियों का शिकार करने के लिए हमेशा कोई बड़ी आड़ चाहिए होती है, उन्होंने तो आज से बीस-पच्चीस साल बाद के वे सुनहले सपने अभी से देखने शुरू कर दिए हैं जब इनके पिल्ले भी इन्ही की तरह उन नन्हे शावकों, जो कि तबतक युवबाघ-बाघिन की शक्ल ले चुके होंगे,की खुशामद और चाटुकारिता करते नजर आएंगे। कुछ जंगली सूअरों के झुंडों  ने  अपनी इस खुशी के मारे अपने थोब्डों और खुरों से जंगल की जमीन पर जगह--जगह गड्डे खोदने शुरू कर दिए है। उनकी इन बेहूदा हरकतों को देख जंगल में विचरण करते एक 'तीन में न तेरह में' किस्म के लंगूर ने सवाल उठाया कि भैया, जंगल के राजा के भय से जान बचाकर भागते जिन भोले-भले निरीह पशुओं के इन गड्डों में फंसाने और वनराज-वनरानी का निवाला बनवाने का आप इंतजाम कर रहे हो, उसमें कभी तुम खुद भी तो फंस सकते हो, तो उसकी बात सुनकर सारे सूअर दांत निपोड़ने लगे। बेचारा लंगूर एक पेड़ की डाल पर बैठ यही सोचता रह गया कि भले ही इन हिंसक प्राणियों का भविष्य उज्जवल नजर आ रहा हो, किन्तु पुराने अनुभवों के आधार पर उसे तो यही लगता है कि जंगल का भविष्य अमंगल है।



Wednesday, February 8, 2012

वनाचार !


इंद्रप्रस्थ  में फिर जब वसंत आया वरण का,

तो सहरा में शुरू हुआ खेल, पहले चरण का।  

प्रतिद्वंदी को झूठा बताके ,शठों ने अपने परचम लहराए , 
कुर्सी पाने हेतु चर सृष्टि से ,गिद्ध,वृक सब करबद्ध आए।  

अल्हड़ से कुम्भ में शरीकी का आह्वान किया, 
हुजूम उमड़े, भेड़ों के झुंडों ने बागदान किया।  


यथार्थ से मूँदकर आँखे, मुद्दे वही धर्म और जातपात ,

और अंतत: परिणाम क्या ? वही, 'ढाक के तीन पात' !!
















Tuesday, February 7, 2012

बिकने और नीलाम होने का सुख !

आप कल्पना कीजिये कि वह वक्त कैंसा रहा होगा जब कोई अंग्रेज किसी गरीब और मजबूर भारतीय के घर के किसी सदस्य को नीलामी में खरीदकर, गुलाम बनाकर अपने किसी उपनिवेश पर जानवरों की तरह काम करवाने के लिए उसे अपने साथ लेकर चलने को तैयार होता होगा, दूसरी तरफ अपने परिवार से सदा के लिए विदा होता वह अभागा गुलाम और उसका परिवार एक दूसरे से बिछुड़ते हुए किस तरह बिलख-बिलखकर रोते होंगे, उनकी शारीरिक स्थिति और मनोदशा उसवक्त कैसी भयावह रहती होगी, इन्सान होने के नाते हम उस बात का सहज अंदाजा तो लगा ही सकते है।



और शायद इसी की परिणीति थी ज़माने का वह दौर जब समाज में किसी को 'बिका हुआ', अथवा 'नीलाम' की संज्ञा देना अपने आप में एक गाली समझी जाती थी। किसी को मजाक में भी बिका हुआ कह दो तो वह काटने को दौड़ता था। हाँ, कोई अगर इस क्रिया में रंगे हाथों पकड़ा जाए तो उसके लिए मरने जैसी स्थित हो जाती थी, मुह छुपाने के लिए वह दर-दर भागा करता था। और फिर आया आधुनिक सभ्यता का दौर, वैश्विक बाजार व्यवस्था का दौर। और इस दौर ने बिकने और नीलाम होने की सारी परिभाषाएं ही पलट कर रख दी। बिके हुए अथवा नीलाम हुए इंसान के माशाल्लाह, ज़रा नखरे तो देखो, उजली पोशाक, बड़ा सा बँगला, चमचमाती महंगी विदेशी कार, और शरीर में ऐंठन। हो भी क्यों न, जब उसके अगल-बगल उसके अंगरक्षक के तौर पर बड़ी तादाद में काली वर्दी में कमांडो हो, भिन्न-भिन्न पोज में फोटो खींचने और वीडिओ बनाने को मीडिया वाले आपस में ही एक दूसरे के ऊपर चढ़ रहे हों, ऑटोग्राफ लेने को भीड़ कतार में आतुर खड़ी हो। कोई और बोले न बोले मगर  खुद उसके घरवाले ही उसे इस नीलामी पर गर्व से सीना चौड़ा करके कहते होंगे, मेरा नीलाम लाडला ! वाह रे वक्त, तुम वाकई बलवान हो !



प्रसिद्द लेखक और कवि स्वर्गीय विष्णु प्रभाकर जी की ये चंद लाइने भी याद आ गई;



चुके हुए लोगों से

ख़तरनाक़ हैं

बिके हुए लोग,

वे

करते हैं व्यभिचार

अपनी ही प्रतिभा से !



अब ज़रा एक नजर हालिया कुछ ख़ास नीलामी की ख़बरों पर पर भी डाल लेते है ;

-राष्ट्रपति बनने से पहले बराक ओबामा जिस कार से सफर करते थे उसकी अब नीलामी होने जा रही है। उसकी प्रारंभिक बोली 10 लाख डॉलर रखी गई है। वर्ष 2005 की सिलेटी रंग की क्रिसलर सेडान ई बे पर नीलाम होने जा रही है।

-दिवंगत पॉप गायक माइकल जैक्सन के दीवालिया त्वचा विशेषज्ञ डॉक्टर आर्नोल्ड क्लीन दिवंगत पॉप गायक के अनसुने गीत की नीलामी करने जा रहे हैं। क्लीन ने साढ़े आठ लाइनों के हाथ से लिखे इस गीत को दीवालिया होने के बाद नीलाम करने की घोषणा की। उन्हें 3,000 से 5,000 पाउंड में इस गीत की नीलामी होने का अनुमान है।

-नीलाम होगी गद्दाफी की खून से सनी कमीज लंदन। लीबिया के पूर्व तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी की खून से सनी कमीज और शादी की अंगूठी अब नीलाम होने जा रही है। यह वही कमीज है, जिसे गद्दाफी ने अपनी मौत के वक्त पहना था।

-सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार हमारे देश के दिग्गजों की नींद हराम करने वाली २जी की फिर से नीलामी होगी और दोबारा नीलामी में भाग लेगी। दूरसंचार सेवा प्रदान करने वाली नार्वे की सरकारी कंपनी टेलीनॉर की भारतीय इकाई यूनीनार ने कहा है कि वह टूजी स्पेक्ट्रम के लिए दोबारा होने वाली नीलामी में भाग लेगी।

-अमिताभ बच्चन ने कहा कि फ़िल्मी सितारों की भी होती है नीलामी, उन्होंने शनिवार को आइपीएल में नीलामी के वर्तमान सत्र को देखते हुए यह टिप्पणी की।



ऊपर की जिन ख़बरों पर नजर डाली वे सभी वस्तुओं की नीलामी की थी, अब जो बात शुरू अमिताभ जी की टिपण्णी से हुई, अब आते है उसी बात पर; ३५० खिलाड़ी आईपीएल-५ में नीलाम होने की कतार में बैठे थे।पिछले शनिवार को नीलामी शुरू हुई और उम्मीद के मुताबिक इंडियन प्रीमियर लीग पांच की खिलाड़ियों की नीलामी में रविन्द्र जडेजा सबसे महंगे क्रिकेटर रहे, जिन्हें चेन्नई सुपर किंग्स ने 20 लाख डालर :लगभग 9 . 72 करोड़ रुपये: में खरीदा ।जडेजा का आधार मूल्य सिर्फ एक लाख डालर था और चेन्नई की टीम ने 20 लाख डालर की अधिकतम नीलामी राशि पर डेक्कन चार्जर्स के साथ मुकाबला बराबर रहने के बाद सौराष्ट्र के इस खिलाड़ी को टाईब्रेकर में खरीदा।

बस इतना ही कहूंगा कि वाह री किस्मत ! काश कि हम भी नीलाम होने लायक होते !

अब एक खबर अपने पड़ोस की भी देख ले ;

पाकिस्तान ने इंग्लैंड को तीसरे टेस्ट में 71 रनों से शिकस्त देकर टेस्ट मैचों की सीरीज में 3-0 से क्लीन स्वीप किया। यह पहला अवसर है जब पाकिस्तान ने इंग्लैंड को सीरीज के सभी मैच में हराकर व्हाइटवाश किया। पाकिस्तान ने कुल पांचवीं बार किसी सीरीज में क्लीनस्वीप किया। आखिरी बार उसने 2003 में बांग्लादेश के खिलाफ 3-0 से क्लीनस्वीप किया था। उसने इस जीत से इंग्लैंड के हाथों पिछली दो सीरीजों में मिली हार का बदला भी चुकता कर दिया।

अब ज़रा इस इंसानों की नीलामी के महानायक अथवा खलनायक की भी चर्चा कर ली जाए तो अनुचित न होगा। दिसंबर १९२८ में कलकता क्रिकेट कल्ब की दूकान को अधिग्रहित कर बीसीसीआई के नाम से यह संस्था बनाई गई। और आज इस देश में क्रिकेट की एकछत्र ठेकेदार है। आज इस देश में क्रिकेट की जो भी स्थिति है, उसका लगभग सारा ही श्रेय इस संस्था को जाता है। इस संस्था के बारे में बहुत से रोचक तथ्य है, कुछ हालिया रोचक तथ्य यह है कि देश के ज्यादातर लोगो खासकर निठल्ली प्रवृति के लोगो में बड़ी कुशलता से क्रिकेट रूपी वायरस डालकर, मोटी टिकट कमाई से मालामाल इस संस्था को जब आरटीआई के दायरे में लाने की बात उठी तो इनके कर्ता-धर्ताओं द्वारा विरोध स्वरुप जो तर्क दिया गया वह था कि जी हम तो एक प्राइवेट स्वायत संस्था है, इसलिए हमें उसके दायरे में नहीं लाया जा सकता। इनके इस तर्क से जो सवाल उपजे वो और भी मजेदार है, मसलन जैसे क्या प्राइवेट   संस्थाएं भी स्वायत हो सकती है इस देश में? क्या प्राइवेट स्वायत संस्थाओं को इसकदर कर में छूट भी दी जाती है इस देश में? जैसा कि इन्होने कोर्ट में दावा किया कि ये एक प्राइवेट संस्था है, इसलिए भारतीय कानूनों के प्रति जबाबदेह नहीं है, तो फिर क्या इतने बड़े इस देश के, जहां कुछ लोग इसे एक धर्म की तरह मानते है, के पूरे क्रिकेट तंत्र का ठेका इन्हें किसने दिया? और यदि ये इसके असली ठेकेदार हैं तो फिर ८६ साल बाद भी कुछ महानगरों तक ही इनके खिलाड़ियों के चयन की दुकाने सिमटी हुई है, देश के दूर-दराज के युवा प्रतिभावान खिलाड़ियों के जीवन से ये क्यों खिलवाड़ कर रहे है? यदि ये प्राइवेट संस्थान है तो इसे देश में किसी और प्राइवेट संस्थान ( आई सी एल एक उदाहरण है ) को खुलने और चलने से रोकने वाले ये कौन होते है?


खैर, अंत में यही कहूंगा कि हम हिन्दुस्तानियों की एक बुरी आदत है कि क्या राजनीति, क्या खेल, क्या व्यवसाय, जहां हमें मलाई खाने को मिल जाए, हम चिपककर बैठ जाते है। खुदा से यही दुआ करूंगा कि भले ही लोग नीलाम हो रहे हो, बिक रहे हो, लेकिन इन तथाकथित ठेकेदारों की पगड़ी इस अनंत  सुख से बची रहे।













Monday, February 6, 2012

दल बदल गए यार सारे !










चित-ध्येय में बाहुल्य के,चढ़ गए खुमार सारे,
जिस्म दुर्बल नोचने को,गिद्ध,वृक तैयार सारे।


बर्दाश्त कर पाते न थे,जुदाई जिस दोस्त की,
वक्त ने चाल बदली, दलबदल गए यार सारे।


छीनके निरपराध  से, हक़ भी फरियाद का,
रहनुमा बन घुमते हैं , देश-गुनहगार सारे।


मजहबी उन्माद में, रंग दिया आवाम को ,
नाकाम बन गए है,अमन के हथियार सारे।

शिष्टता को घर से उठा कर ले गई है बेहयाई,
पड़ गए 'परचेत'बौने,कौम के तिरस्कार सारे।



छवि  गूगल   से  साभार ! 



विरादर,
तमाम गुंडे-मवाली,
मिलके चमन लूटा
और कोष खाली।

हरतरफ
खुद ही
फैलाई बदहाली,
उसपर 

आंसू बहाता है
वो भी घडियाली।


अब तो बस यही 

बद्दुआ निकलती है
तेरे लिए दिल से,
धत्त तेरे की
निकम्मे, बेशर्म 
बगिया के माली !!






Sunday, February 5, 2012

नन्हे ख्वाब !

इंसान को संतृप्ति कैसे भी नहीं हो पाती ! जब छोटा था, तबकी दुनिया को देख अक्सर सोचा करता था कि मैं शायद देर से पैदा हुआ ! अब आज जब उम्र के इस पड़ाव पर आ गया, तब लगता है कि शायद मैं जल्दी पैदा हो गया ! अगर आज के इस दौर में पैदा हुआ होता तो जो कुछ ख़ास किस्म के नन्हे ख्वाब आज मेरे बालमन में पल रहे होते, वे किस तरह के होते, चलिए उनमे से एक-आधा ख्वाब से आज थोड़ा सा आपको भी अवगत करा दूं ;

ख्वाब न० एक : अपने आस-पास और इस देश के भ्रष्ट-तंत्र के बारे में जब टीवी पर देखता, अखबारों में पढता, अपने इर्द-गिर्द के समाज में देखता तो मैं सोचता कि मैं कुछ समय के लिए इस देश का लोकपाल (अन्ना) बनूगा, एक ऐसा लोकपाल  जिस पर गोली, तोप, तलवार का कोई असर न पड़ता हो, जिससे दुनिया कांपती हो, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये जिस तरह आज हम किसी स्टूडियो में अथवा कंप्यूटर- लैपटॉप पर अपने घर में कहीं भी आमने-सामने बात करते है, मेरे पास वो तकनीक होती कि मैं न सिर्फ लैपटॉप, टीवी,आइपैड पर मन चाहे व्यक्ति से बात कर पाता, बहस कर पाता बल्कि जरुरत पड़ने पर वहीं उस टीवी, लैपटॉप स्क्रीन से बाहर निकल कर बहसकर्ता पर दो-चार जमाने में भी सक्षम होता ! जिसे बोलते है ऑन दा स्पॉट जस्टिस ! जघन्य भ्रष्टाचार और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त पाए गए कुछ चुनिन्दा नेता, नौकरशाह अथवा किसी को भी वो सजा देता कि देखने वाले की रूह काँप जाये! उस तिल-तिल कर मरते भ्रष्ट अपराधी की वीडियो बनाता और यह अनिवार्य करता कि हर कार्यस्थल पर, चाहे वह सरकारी कार्यालय हो,संसद हो, विधानसभा हो या फिर कोई प्राइवेट संस्थान, रोज प्रात: जिस तरह हमारे स्कूलों में प्रार्थना होती है, ठीक उस तरह ही वहाँ वह अलग-अलग वीडियो दिखाए जाएँ, ताकि कुछ गलत करने से पहले भ्रष्ट और अपराधी उन परिणामों को भी ध्यान में रखे ! क्योंकि मैं समझता कि डर ही एक ऐसा हथियार है जो हम हिन्दुस्तानियों को नैतिकता सिखाता है !

ख्वाब न० दो : अपने कंप्यूटर पर गूगल-अर्थ तो आप देखते ही होंगे, कुछ समय पहले गुगल ने  अपनी इस शानदार खोज में एक और उपलब्धि जोड़ी थी, जिसमे आप न सिर्फ किसी ख़ास जगह का एक आकाशीय दृश्य ( एरियल व्यू ) ही देख सकते है, अपितु उस जगह का गली-कूचा दृश्य (स्ट्रीट व्यू ) का भी लुत्फ़ उठा सकते है ! इस गूगुल अर्थ के और क्या इस्तेमाल हो सकते है, आप लोग भली भांति वाकिफ होंगे, एक और जो नायब इस्तेमाल मेरा वह बाल -दिमाग सोचता वह भी जान लीजिये; मान लीजिये कि आपको अमेरिका जाना है तो सामान्यतौर पर बेहतर आप क्या करेंगे ? हवाई जहाज का टिकट लेंगे, एअरपोर्ट जायेंगे, जहाज पकड़ेंगे और १७-१८ घंटे में पहुँच गए अमेरिका ! लेकिन मेरा शातिर दिमाग क्या खोज करता, ज़रा जानिये ; सूट-बूट पहन तैयार होता, घर की छत पर स्थित पार्किंग में गाडी के पास पहुंचता, गाडी की पिछली सीट का दरवाजा स्वत: खुलता, मैं सीट पर बैठता, गाडी की अगली सीट के पिछले भाग में मोजूद कंप्यूटर की टचस्क्रीन जैसी कि अमूमन इंटरनेश्नल फ्लाइट्स में होती है , पर गूगल अर्थ खोलता, गूगल स्ट्रीट में जाकर कंप्यूटर की ऐरो की को गूगल अर्थ की स्ट्रीट व्यू में दर्शित हो रही अपनी कार पर ले जाता और कार को ड्रैग(कर्षण / खींच ) करके एक मिनट में अमेरिका स्थित गंतव्य पर ले जाता ! दमघोटू ट्रैफिक को झेलकर दो घंटे पहले एयर पोर्ट पहुँचने, इमिग्रेशन, वीजा चेक-अप इत्यादि की कोई झंझट ही नहीं ! ख्वाब और भी ढेरों है मगर दो ही बताना काफी है, नहीं तो लोग कहेंगे बहुत ख्वाब देखता है  :) :) :)

काश !


चलते-चलते .....
वैसे कल से मैं ऐसा महसूस कर रहा हूँ कि क्या २जी, क्या सी डब्ल्यू जी, क्या आदर्श, क्या नरेगा और क्या-क्या---- मानो  इस देश में कोई घोटाला ही नहीं हुआ था ! कुछ बच्चे पार्क में घोटाला नाम का खेल खेल रहे थे, अधेरा होने पर उनके मम्मी-पापा ने उन्हें घर बुला लिया और खेल ख़त्म !! सिर्फ एक पार्क ही अडिग है जो  उस खेल की यादों को लिए इस अँधेरे में भी  उस उजाले की बाट जोह  रहा है, जो मुहल्ले वालों को अगली भोर पर यह बता सके कि इन शरारती बच्चों ने  अपने खेल के चक्कर में किस कदर उस बगिया को रौंदा जो उस पार्क के समीप थी ! सोचता हूँ अगर यह पार्क न होता तो इस बात की भनक भी किसे लग पाती कि उस बगिया को किसने उजाड़ा है !  निकम्मे मुहल्ले वाले तो भरी दोपहर में भी उंघते हुए ही नजर आते है ! डॉक्टर स्वामी को  मेरा सलाम !        

Friday, February 3, 2012

क्षणिकाएँ !

देह माटी की,
दिल कांच का,
दिमाग आक्षीर
रबड़ का गुब्बारा,


बनाने वाले ,
कोई एक चीज तो
फौलाद की बनाई होती !


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नयनों में मस्ती,
नजरों में हया,
पलकों में प्यार,
ये तीन ही विलक्षणताएँ
प्रदर्शित की थी महबूबा ने
मुह दिखाई के वक्त !


वो हमसे रखी छुपाये,
तेवर जो बाद में दिखाये,
नादाँ ये नहीं जानती थी कि
सरकारी मुलाजिम से
महत्वपूर्ण जानकारी छुपाना,
भारतीय दंड संहिता के तहत
दंडनीय अपराध है !!


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दहशतें बढ़ती गई,
जख्म फिर ताजा हुआ,
हँस के जो बजा था कभी
वो बैंड अब बाजा हुआ,
तेरी बेरुखी, तेरे नखरे,
कर देंगे इक दिन मेरा
जीना मुहाल,
छोड़कर बच्चे जिम्मे मेरे
जब तुम मायके चली गई
तब जाके ये अंदाजा हुआ !


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ये मैंने कब कहा था
कि तुम मेरी हो जाओ,
सरनेम (उपनाम ) बदलने को
तुम्ही बेताव थी !!


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जानता  हूँ ,
हमारे घर बसाने के बाद 
तुम्हारी माँ, यानि 
मेरी सास ने
३ फुट गुणा ६ फुट का
पर्दा क्यों भेजा ,
क्योंकि वो जानती है कि
महंगाई और
मंदी के दौर में
शहरी लोगो के पास
शारीरिक परिधानों की
अत्यंत कमी चल रही है !!



Thursday, February 2, 2012

जीवन प्रतिफल !

दो भिन्न रास्तों से 
सफर को निकले  
दो हसीन लम्हें,
अरमानों के चौराहे पर 
संविलीन हो जाते है। 

और फिर होता है
कोमल अहसासों का सृजन,
आशा और उम्मीद फिर से
मुसाफ़िर बन जाते है  
मगर एक ही मंजिल के।   


सीधी-सपाट, टेडी-मेडी
और उबड़-खाबड़ राहों का
सफ़र तय करते हुए
जब मंजिल पास आ जाती है 
तब  गुनगुनी धुप में बैठ
आशा, उम्मीद से कहती है;

आज प्रतिफल के भोजन में 
परोसने को बस, दो ही मद है, 
संतृप्ति और  मलाल।  

Wednesday, February 1, 2012

रुग्ण समाज की वेदी पर भेंट चढ़ती फलकें !

कुछ ख़ास आश्चर्य नहीं हुआ जब समाचार माध्यमों से यह मालूम पड़ा कि दो साल की एक मासूम फलक, जो हैवानियत के निर्मम हाथो कुचली और विक्षिप्त अवस्था में परित्यक्त दिल्ली के एक निर्माण स्थल से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के आईसीयु में मौत से जूझने के लिए छोड़ दी गई, और अब वेंटिलेटर पर जिन्दगी और मौत के बीच की लड़ाई अकेले लड़ रही है। और इसकी ख़ास वजह यह है कि क्योंकि यह घटना तो तब सुर्ख़ियों में आ गई जब मासूम फलक एम्स पहुची और मीडिया की नजरों में आई, वरना तो इस देश में रोज ही पता नहीं, इंसानों की दरिंदगी की शिकार कितनी ही अभागी फलकें भुखमरी, दरिद्रता, अज्ञानता और बेरोजगारी के अंधेरों में घुट-घुटकर दम तोड़ देती हैं, कोई गिनती ही नहीं। आप सहज अंदाजा लगा सकते है कि यह हाल तो तथाकथित आर्थिक हस्ती बनने को छटपटाते इस देश की राजधानी दिल्ली का है, इतने विशाल देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में क्या-क्या हो गुजरता होगा, भगवान् मालिक है।



आज ही एक खबर पर नजर गई कि पश्चिम बंगाल में एक सात माह की बच्ची को उसके माँ-बाप रेल के डिब्बे में ही भगवान् भरोसे छोड़ चलते बने। साथ में छोड़ गए एक ज्वलंत सवाल कि यदि यह मासूम, लडकी की वजाए लड़का होता तो क्या तब भी इसके माता-पिता इसके साथ यही सुलूक करते? एक और खबर पढ़ रहा था उत्तरी अफगानिस्तान के कुन्दूज प्रांत की, जहाँ २९ वर्षीय शेर मुहमद ने अपनी २२ वर्षीय पत्नी स्टोरे को सिर्फ इसलिए मार डाला क्योंकि उसने तीसरी बार भी बेटी को ही जन्म दिया था। यहाँ यह भी एक गौर करने लायक बात है कि इनकी शादी को अभी सिर्फ ४ साल ही हुए थे और इन्होने चार साल में तीसरी संतान को जन्म दिया था।अभी एक सप्ताह पहले की ही खबर थी कि इसी जगह में पुलिस ने एक पंद्रह साल की लडकी को उसके ससुरालवालों के चंगुल से छुडाया था, जिसे बेसमेंट में बंद करके कई दिनों से भूखा-प्यासा रखा गया था। और ऐसा नहीं कि यह घटना सिर्फ अफगानिस्तान अथवा पाकिस्तान में ही होती हो, हमारा देश इसमें कहीं भी पीछे नहीं। फलक को अस्पताल पहुंचाने वाली १४ वर्षीय लडकी किशोरी  के शोषण की दास्तान भी आप लोंगो ने ख़बरों में सुनी होगी, जो रौंगटे खड़े कर देने वाली है।
 

इस अफगान लडकी के नाक-कान सिर्फ इसलिए
काट दिए गए कि यह अपने आतंकवादी पति के
संग नहीं रहना चाहती थी!
 यह भी नहीं कि लिंगभेद की इस बीमारी से सिर्फ दुनिया का यह एशिया खंड ही जूझ रहा हो, परिलक्षण भिन्न हो सकते है मगर हमारा पुरुषप्रधान समूचा विश्व समाज ही इस समस्या से पीढित है। कल ही एक रिपोर्ट न्यू योर्क टाइम्स के एक ब्लॉग पर पढ़ रहा था, यहाँ देखें, जिसमे दर्शाया गया है कि किस तरह तथाकथित विकसित और सभ्य देश अमेरिका में कामकाजी गर्भवती महिलाओं के साथ भेदभाव और अन्याय होता है, एक सात माह की गर्भवती महिला कैशियर के प्रति बजाये नर्म व्यवहार अपनाने के उसका नियोक्ता उसे सिर्फ इस हास्यास्पद विनाह पर नौकरी से निकाल देता है, क्योंकि इस दौरान वह टायलेट विराम अधिक ले रही थी। दूसरी घटना में एक गर्भवती कामकाजी महिला, जोकि रिटेल शॉप पर कार्यरत थी, को इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया क्योंकि उसने अपने सुपरवाईजर को डाक्टर का सर्टिफिकेट दिखा यह अनुरोध किया था कि उसे डाक्टर द्वारा इस अवस्था में सीढियां चढ़ने और भारी सामान उठाने की मनाही थी। ऊपर से वहाँ की कोर्ट ने भी नियोक्ता के ही पक्ष में फैसला दिया।



सदियां गुजरी, अनेक महारथियों ने हमारे इस रुग्ण समाज के कायाकल्प के दावे किये, कुछ ने ईमानदार प्रयास भी किये, मगर फिर ढाक के वही तीन पात, मानसिक रुग्णता की भयावहता ज्यों की त्यों बनी हुई है। अफ़सोस कि शिक्षित कहे जाने वाले हमारे पुरुष समाज ने सिर्फ महिला के भूगोल को वर्णित करने तक ही अपने को सीमित रखा। लिंग-भेद रूपी समाज के इस घृणित फोड़े की शल्यक्रिया की ख़ास जरुरत किसी ने नहीं समझी। आरक्षण के मुद्दे पर बड़ी-बड़ी फेंकने वाले और महिला सशक्तिकरण पर घडियाली आंसू बहाने वाले हमारे ये भ्रष्ट नेतागण, जिनके हाथों हमने देश की बागडोर सौंप रखी है, पिछले १६ साल से महिला आरक्षण बिल के ऊपर पालथी मारे बैठे है।



आधुनिक सभ्यता के इस युग में जरुरत इस बात की है कि हम और हमारे समाज के ये तथाकथित ठेकेदार मानवता को शर्मशार करने वाली इन इंसानी हरकतों पर गंभीरता से मनन करते हुए किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुँचने हेतु यह तय करें कि आज वेंटिलेटर पर रखे जाने की अधिक आवश्यकता किसे है, फलक को या फिर सभ्य और सुशिक्षित कहे जाने वाले लिंगभेद की लाइलाज बीमारी से ग्रसित इस आधुनिक पुरुष प्रधान रुग्ण समाज को।

बस अंत में यही कहूंगा कि


ईमान के जीर्ण चेहरे काले न पड़ें,
जान के इस देश में लाले न पड़ें।
जुल्म के विरुद्ध आवाज उठती रहे,
जुबान पे इस देश में ताले न पड़ें।। 
 
Jai hind !

छवि गुगुल से साभार !

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।